ललित गर्ग
दिल्ली में विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे निकट आता जा रहा है, अपने राजनीति भाग्य की संभावनाओं की तलाश में आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस तीनों ही दल जनता को लुभाने एवं ठगने की हरसंभव कोशिश करते हुए दिखाई दे रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर भारतीय राजनीति में अपना सितारा आजमाने वाले अरविन्द केजरीवाल अब खैरात बांटने एवं मुफ्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को ठगने एवं लुभाने की कुचेष्टाओं में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वैसे कांग्रेस एवं भाजपा भी इस दृष्टि से पीछे नहीं हैं। तीनों ही दलों में मुफ्त बांटने की संस्कृति का प्रचलन बढ़-चढ़ कर हो रहा है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। राजनीतिक दलों में पनप रही ये मुफ्त बांटने की संस्कृति को क्या लोभ की राजनीति नहीं माना जाना चाहिए?
यह कैसा लोकतांत्रिक ढ़ांचा बन रहा है जिसमें पार्टियां अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं, उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। प्रश्न है कि राजनीतिक पार्टियां एवं राजनेता सत्ता के नशे में डूबकर इतने आक्रामक एवं गैरजिम्मेदार कैसे हो सकते हंै? चुनाव में जीत पाने के मकसद से होने वाली चुनावी लड़ाइयों में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से लुभावने वादे करना कोई नई बात नहीं है। लेकिन विडंबना यह है कि चुनावी मौसम में वोट पाने के लिए किए गए ऐसे ज्यादातर वादे किसी अंजाम तक पहुंचने का इंतजार ही करते रह जाते हैं। हकीकत यह भी है कि कई राजनीतिक पार्टियां चुनावों में हर हाल में जीत के लिए मतदाताओं के सामने ऐसे वादे भी कर देती हैं, जो दिखने में तो आकर्षक लगते हैं, लेकिन उनका आर्थिक बोझ दूसरे पहलुओं पर असर डालता है। आज जो देश में आर्थिक असंतुलन देखने को मिल रहा है, उसका एक बड़ा यह भी है।
सत्ताधारी आम आदमी पार्टी ने चुनाव की आहट के साथ ही अनेक जनलुभावन घोषणाएं की है, अब चुनाव प्रचार में भी इसी मकसद से सक्रिय दिख रही है। हालांकि अभी पार्टी का घोषणा-पत्र सामने नहीं आया है, लेकिन जारी किये गये ‘गारंटी कार्ड’ के तहत जिस तरह की घोषणाएं की गई हैं, उनसे यही लगता है कि पिछली बार की तरह इस बार भी पार्टी ने लोगों के सामने वोट के बदले आकर्षक प्रस्ताव एवं लुभावने आश्वासन रखे हैं। इसमें मौजूदा कार्यकाल के बिजली और पानी के बिल को मुद्दा बनाने के अलावा पार्टी ने शिक्षा, चिकित्सा, प्रदूषण से लेकर झुग्गी बस्तियों के लोगों को पक्के मकान की गारंटी जैसे कई अन्य आकर्षक प्रस्ताव दिए हैं। पार्टी ने जिस तरह विश्वस्तरीय यातायात व्यवस्था सुनिश्चित कराने के साथ विद्यार्थियों एवं महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा मुहैया कराने की घोषणा की है, क्या यातायात की दुर्दशा, बसों का अभाव एवं सड़कों के गड्डे इसके विरोधाभासी होने के संकेत नहीं है? खैरात बांटने एवं मुफ्त की सुविधाओं की घोषणा की प्रवृत्ति से एक सवाल यह भी उठता है कि जनता को कोई सुविधा मुफ्त मुहैया कराने से सरकार के कोष पर जो बोझ पड़ता है, क्या उसकी भरपाई जनता से ही नहीं की जाती है?
प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को ढकती है, भोली-भाली जनता को ठगने की कुचेष्टा भी है और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। भाजपा सरकार एवं नरेन्द्र मोदी कैंपेन चलाकर आम आदमी की गाढ़ी कमाई के करोड़ो रुपये यह बताने में खर्च कर दिये हैं कि किस तरह उन्होंने देश को चमका दिया है। इस तरह का बड़बोलेपन एवं मुफ्त की संस्कृति को पढ़े-लिखे बेरोजगारों ने अपना अपमान समझते है, लेकिन अधिकांश वोट करने वाला जनसमूह इस बहकावे में आ ही जाता है। कई बार सरकारों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वे अपने लोगों के अभाव, भूख, बेरोजगारी जैसी विपदाओं से बचा सकें। लेकिन जब उनके पास इन मूलभूत जनसमस्याओं के निदान के लिये धन नहीं होता है तो वे मुफ्त में सुविधाएं कैसे बांटते हैं? क्यों करोड़ो-अरबो रूपये अपने प्रचार-प्रसार में खर्च करते हैं?
सचाई तो यह है कि राजनीतिक दलों के आकर्षक माने जाने वाले वादे नागरिकों के आम अधिकार ही होते हैं, फिर उन्हें किसी दल विशेष की उपलब्धि कैसे माना जाये? दिल्ली में सरकारी स्कूलों और मोहल्ला क्लीनिक जैसे कुछ कामों को ‘आप’ सरकार अपनी उपलब्धि बता सकती है। लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के अधिकार को सरकार की ओर से अपनी उपलब्धि बताने को कैसे देखा जाए? पानी-बिजली के बिल में सुविधा या सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त सफर के वादे से ज्यादा जरूरी यह है कि जनता के बुनियादी अधिकारों को लोभ का मुद्दा न बना कर उसे सरकार के दायित्वों के रूप में देखा जाए और इन्हंे चुनावी प्रचार का माध्यम तो कतई नहीं बनाया जाये।
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही है। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम ’नागरिक नहीं परजीवी’ तैयार कर रहे हैं। देश का टैक्स दाता अल्पसंख्यक वर्ग मुफ्त खोर बहुसंख्यक समाज को कब तक पालेगा? जब ये आर्थिक समीकरण फैल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? यह कैसा चुनावी महासंग्राम का लोभी एवं ठगी का वातावरण है? चुनावी हार-जीत की राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है। चुनाव प्रचार में मुफ्त यात्रा के साथ-साथ बिजली-पानी-शिक्षा-चिकित्सा को लगभग मुफ्त उपलब्ध कराने की जो विसंगतिपूर्ण घोषणाएं हो रही हैं, उसने अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं। यह विसंगति इसलिये है कि दिल्ली सरकार एक तरफ तो कहती रही है कि दिल्ली में विकास के लिए पैसा नहीं लेकिन मुफ्त की यात्रा के लिए 1300 करोड़ की सालाना सब्सिडी देने के लिए तैयार हो गई और चुनाव जीतने के लिये अतिश्यतोक्तिपूर्ण घोषणाएं कर रही हंै। वह सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक हालात को एक ऐसी अंधेरी खाई की तरफ धकेल रही है जहां से निकलना कठिन हो सकता है।
वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। दिल्ली के राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, स्वच्छ जल एवं पर्यावरण, उन्नत यातायात व्यवस्था, उच्चस्तरीय स्कूल एवं अस्पताल जैसी प्राथमिक जिम्मेवारियां नदारद हो चुकी है, बिना मेहंदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके हंै। जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसको अपनी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लोकतंत्र में लोगों को नकारा, आलसी, लोभी, अकर्मण्य, लुंज बनाना ही क्या चुनाव जीतने का उद्देश्य है? अपना हित एवं स्वार्थ-साधना ही सर्वव्यापी हो चला है? हकीकत में मुफ्त तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है।
आज राजनीतिक परिपाटी में मुफ्त-खैरात की संस्कृति चुनाव जीतने का हथियार बन गया है। सच्चाई यह भी है कि ये कोरे मुफ्त वादे जमीनी सतह पर उतरते भी कहां है, कोरे लुभाने एवं ठगने का माध्यम बनते हैं। मुफ्त एवं खैराती वादों के भरोसे सत्ता की चाबी तो हथियायी जा सकती है, लेकिन राष्ट्र प्रगति नहीं कर पायेगा और विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पायेगा। प्रेषकः
(ललित गर्ग)