देशभर में व्याप्त चौतरफा नकारात्मक वातावरण से हटकर बिहार ने ‘जल जीवन हरियाली’ की अहम जरूरत पर एक महत्वपूर्ण अभियान को शुरू करके देश को अवश्य ही एक नई दिशा दिखाने का सकारात्मक प्रयास तो किया ही है। दरअसल, बिहार जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सार्थक पहल कर देश और विश्व के सामने एक नजीर रखना चाहता है। देखिए, अब ऐसी स्थितियां बनती जा रही हैं कि जल, जीवन और हरियाली के सॅंरक्षण से जुडे कार्यक्रम तो सारे देश में ही चलाने होंगे। इसमें सरकार और समाज को मिल-जुलकर भाग लेना होगा। हमें उन तालाबों को फिर से जीवित करना होगा जो विकास की दौड़ में दफन हो गए या दुष्टों के द्वारा अतिक्रमित कर लिये गये। अगर बात दिल्ली की ही करें तो जब देश आजाद हुआ था, उस समय दिल्ली में 363 गांव थे, जिनके आसपास 1012 तालाब थे। आबादी बढ़ने और दिल्ली के विकास के साथ ही कुछ गिने- चुने तालाबों को छोड़कर बाकी खत्म हो गए। कई तालाबों पर तो आलीशान कॉलोनियां बस गईं। जो तालाब अाज के दिन बचे भी हैं, उनमें से ज्यादातर लगभग सूख चुके हैं। क्या यह किसी को बताने की जरूरत है कि जल है तभी तो कल है?। अगर हमारे शहरों में बारिश के पानी को सही तरीके से संचित किया जाए तो पेयजल का मसला हल हो सकता है। हमें अपनी आने वाली नस्लों के लिए एक हरी भरी धरा सौंपनी होगी ताकि पृथ्वी पर जीवन का यह क्रम जारी रहे। पर फिलहाल तो स्थिति बेहद डरावनी सी बनी हुई है। लेकिन, हम जल संरक्षण को लेकर कर क्या कर रहे है ? बिहार में जल जीवन हरियाली अभियान के बहाने यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए। इस सवाल का उतर है- “कुछ नहीं। बस थोड़े-बहुत “सांकेतिक प्रयास।” क्या होने वाला है इन सांकेतिक प्रयासों से?
जो जल, प्रकृति, सुन्दर वन- उपवन व हरी भरी वसुंधरा हमें हमारे पुरखों ने दी है आज हम उन सभी का अंधाधुंध दोहन और दुरपयोग कर आने वाली पीढ़ियों के जीने का हक छीन रहे है। उनके लिए हम कितना खराब संसार देकर जाएंगे। सोचकर देखिये तो काॅंप उठेंगें। विश्व भर में पेयजल की कमी अब एक गम्भीर संकट बन चुकी है। इसका कारण पृथ्वी के जलस्तर का लगातार नीचे होते जाना भी है। वर्षा जल संचयन का एक बहुत प्रचलित पारम्परिक माध्यम है ट्रेंच। इसके तहत छोटी-छोटी नालियां, पइन और आहर बनाकर वर्षा जल रीचार्ज किया जाता है। तालाब तो है ही। जल ही हमारे जीवन का आधार है। जल के बिना धरती पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।हम रोटी, कपडा और मकान के बिना भी जीवित रह सकते हैं। लेकिन, शुद्ध हवा और शुद्ध पानी के बिना बिलकुल भी नहीं। इसीलिये तो सुप्रसिद्ध कवि रहीम खानखाना ने कहा है- ‘‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून। पानी गये न उबरै मोती मानुष चून।’’ कहना न होगा कि यदि जल न होता तो सृष्टि का निर्माण ही सम्भव न हो पाता।आज भी जब हम चाॅंद और मॅंगल पर बसने की बात करते हैं तो सबसे पहले ढूॅंढते क्या हैं? पानी ही न? यही कारण है कि जल एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसका कोई मोल ही नहीं है। जीवन के लिये जल की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि तमाम बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ नदियों के तटों पर ही विकसित हुई और अधिकांश प्राचीन नगर भी नदियों के तट पर ही बसे। जल के महत्व को ध्यान में रखकर यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम न सिर्फ जल का संरक्षण करें बल्कि उसे प्रदूषित होने से भी बचायें। इस सम्बन्ध में भारत के जल संरक्षण की एक समृद्ध परम्परा रही है। ऋग्वेद में जल को अमृत के समतुल्य बताते हुए कहा गया है- “अप्सु अन्तः अमतं अप्सु भेषनं।”
एक वैज्ञानिक रिसर्च के मुताबिक 2030 तक देश के लगभग 40 फीसदी लोगों तक पीने के पानी की पहुंच खत्म हो जाएगी। भारत में चेन्नई में आगामी कुछ वर्षो में ही तीन नदियां, चार जल स्रोत, पांच झील और छह जंगल पूरी तरह से सूख जाएंगे। जबकि देश में कई अन्य जगहों पर भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि यह रिपोर्ट पहली बार आई है। तीन साल पहले भी नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि देश में जल संरक्षण को लेकर अधिकांश राज्यों का काम संतुष्टिजनक नहीं है। एक अहम बात यह भी है कि हाल के वर्षों मे ग्रामीण अंचलों में भी जल संकट बढ़ा है। वर्तमान में ही करोड़ों भारतीयों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। वर्तमान में देश की आबादी हर साल 1.5 करोड़ प्रतिशत बढ़ रही है। ऐसे में वर्ष 2050 तक भारत की जनसंख्या 150 से 180 करोड़ के बीच पहुँचने की आशंका जतायी जा रही है । ऐसे में सभी नागरिकों के लिये देश के हर क्षेत्र में जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना आसान नहीं होगा। जल के स्रोत तो सीमित हैं और रहेंगें भी। नये स्रोत पैदा होंगें भी नहीं ! ऐसे में उपलब्ध जलस्रोतों को संरक्षित रखकर एवं वर्षा के जल का पूरी तरह संचय करके ही हम जल संकट का मुकाबला कर सकते हैं। जल के उपयोग में मितव्ययी भी तो बनना ही पड़ेगा। जलीय कुप्रबंधन को दूर कर ही तो हम इस समस्या से निपट सकते हैं। यदि वर्षाजल का समुचित संग्रह हो सके और जल के प्रत्येक बूँद को अनमोल मानकर उसका संरक्षण किया जाये तो कोई कारण नहीं है कि जल संकट का समाधान न प्राप्त किया जा सके। जल के संकट से निपटने के लिये तत्काल कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। जैसे कि विभिन्न फसलों के लिये पानी की कम खपत वाले तथा अधिक पैदावार वाले बीजों के लिये अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक जिनके उपयोग से ज्यादा जल की आवश्यकता होती है उसके स्थान पर देसी गौवॅंश के गोबर और गौमूत्र पर आधारित उर्वरकों और कीटनाशकों को बढावा देना होगा जिससे विषमुक्त आहार की पैदावार बढे और धरती पर मित्र जीवाणु और केंचुंए बढें जिससे जल की खपत कम हो। फ्लड सिंचाई पद्धति से स्प्रिंकलर सिंचाई या ड्रिप सिंचाई अपनानी हेगी।
एक महत्वपूर्ण बात और कि जहां तक सम्भव हो सके ऐसे खाद्य उत्पादों का प्रयोग करना चाहिए जिसमें पानी का कम प्रयोग होता है। मल्टी लेयर फार्मिंग करके एक ही भू भाग पर एक ही समय पांच या छह फसलें ली जा सकती हैं जिसमें पानी की खपत तो उतनी ही होगी जितनी एक फसल को जरूरत होती है , लेकिन, उत्पादों की सॅंख्या पांच या छह हो जायेगी। उत्पादन पांच गुना और जल का प्रयोग बीस प्रतिशत। किसानों की मिहनत तो उतनी है और लाभ पांच गुना।किसान भाइयों को यह जानना भी जरूरी है कि फसल के अच्छे उत्पादन के लिए जल की जरूरत नहीं होती है, बल्कि फसलों को अपनी जडों के आसपास नमी मात्र की जरूरत होती है जिसके सहारे वे अपना, भोजन भूमि में ही उपलब्ध उर्वरकों और लवणों के रूप में खींच सकें, बस इतनी भर ही होती है सिंचाई की भूमिका।सिंचाई के नाम पर जल की बर्बादी में कमी लाना इसीलिए भी आवश्यक है।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व में उत्पादित होने वाला लगभग 30 प्रतिशत अन्न खाया ही नहीं जाता है और यह बेकार हो जाता है। इस प्रकार इसके उत्पादन में प्रयुक्त हुआ पानी भी व्यर्थ चला जाता है। जानकार यह भी कहते हैं कि वर्षाजल प्रबंधन और मानसून प्रबंधन को समुचित बढ़ावा दिया जाय और इससे जुड़े शोध कार्यों को प्रोत्साहित किया जाय और जल सॅंरक्षण की शिक्षा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में जगह दिया जाना आज की एक महत्वपूर्ण जरूरत है। बहरहाल, बिहार ने देश को जो ‘जल जीवन हरियाली’ के माध्यम से दिशा दिखाई है, उससे देश को जागरूक करने की दिशा में भारी लाभ होगा।
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)