जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष राजधानी के शाहीन बाग में जाकर कहती हैं कि कश्मीर को अलग करते हुए हम आंदोलन नहीं जीतसकते। शाहीन बाग में तथाकथित स्थानीय लोग नागरिकता संशोधन कानून 2019 के खिलाफ धरना दे रहे हैं। बताया तो यह भी जाता है कि दिहाडी मजदूरों को दुगना–तिगुना पैसा देकर उन्हे बैठाया जा रहा है। फूड पैकेट अलग से।खैर, किसी को भी धरना देने का तो अधिकार है। पर कोई धरना देने वालों को गुमराह करे तो क्याकिया जाए। शाहीन बाग में घोष आकर कहती हैं कि जो लड़ाई चल रही है उसमें हम कश्मीर को पीछे नहीं छोड़ सकते। कश्मीर से ही संविधान में छेड़छाड़ शुरू हुई है।साफ है कि उनका इशारा जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 हटाने की ओर था। कश्मीर के लिए बने इस अनुच्छेद के तहत जम्मू और कश्मीर को विशेषदर्जा का लाभ मिलता था, जिसे केंद्र ने 5 अगस्त 2019 को समाप्त कर दिया था। सरकार के उस कदम का सारे देश ने तहे दिल से स्वागत किया था। हां, उनमें कुछमुट्ठीभर आईशी घोष जैसे कुछ वामपॅंथी और छद्म धर्मनिरपेक्षता वादी तत्व भी भी थे। इस कदम से केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को भीखत्म कर दिया था और जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया था। केंद्र ने जम्मू–कश्मीर और लद्दाख को अलग–अलग केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर विभाजितभी कर दिया था क्या आइशी घोष को इस तथ्य की जानकारी नहीं कि जम्मू–कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 और 35- ए को संसद के दोनों सदनों में अभूतपूर्व बहुमत से हटाया गया था। इस मसले पर राज्य सभा और लोकसभा में लंबी बहस भी हुई थी।
जब जम्मू–कश्मीर में हालात सामान्य होते जा रहे हैं, तब आइशी घोष का इस तरह का बेहद आपत्तिजनक बयान का आना घोर निंदनीय है। गौर करें कि वो कश्मीर केमसले को मुस्लिम बहुल शाहीन बाग में उठा रही हैं। यह सब करते हुए वो साबित क्या करना चाहती हैं? क्या वह मुस्लिम समाज को भडका नहीं रही हैं? इस बात काभी खुलासा हो ही जाना चाहिए।
आइशी घोष 5 जनवरी को जेएनयू कैंपस में हमले के बाद से ही चर्चा में हैं। उन पर भी पुलिस ने विभिन्न धाराओं के अंतर्गत केस दर्ज किए हैं। आइशी और इनकेआका नागरिकता संशोधन कानून 2019 से लेकर जम्मू–कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने के मसले पर देश को भ्रम की हालत में रखकर साम्प्रदायिकउन्माद पैदा करना चाहते हैं। ये मुसलमानों को भड़का रहे हैं। जबकि यह कानून नागरिकता छीनने के लिए है ही नहीं! यह तो पाकिस्तान और बाॅंग्लादेश के प्रताडितअल्पसॅंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने के लिये है। नरेन्द्र मोदी भी स्पष्ट कह चुके हैं कि देश के मुसलमानों का नागरिकता संशोधन कानून से कोई लेना–देना ही नहींहै। इसके बावजूद आइशी घोष जैसे तत्व शाहीन बाग में जाकर माहौल को विषाक्त कर रहे हैं। क्या इन्होंने वहां जाकर यह भी पूछा कि शाहीन बाग में चल रहे धरने काभारी भरकम खर्चा कौन उठा रहा है? घोष और उससे पहले जेएनयू के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार तो एक तरफ जे. एन. यू. में फीस को कम करने के लिये आन्दोलनकर रहे हैं, दूसरी तरफ वे कश्मीर से लेकर नागरिकता संशोधन कानूम पर भी अनाप– शनाप बोलते हैं। इस कानून के बहाने देश में अस्थिरता पैदा करने की चेष्टा होरही है। सरकार के फैसलों की मीनमेख निकालने वाले कन्हैया और आइशी घोष ने तब एक शब्द भी नहीं बोला था जब उपद्रवी इन कानूनों के खिलाफ अपना विरोधजताने के लिए सरकारी संपत्तियों को तोड़ रहे थे।
रोहिंगियाओं पर रोने वाले लोगों को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों पर रोना क्यों नहीं आता? पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान केअल्पसंख्यकों पर पिछले सात दशकों से हो रहे बर्बर अत्याचार के खिलाफ मुसलमानों की तरफ से एक आवाज नहीं उठी। आज जब उन देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकोंको भारत की नागरिकता देने की बात उठी तो रोने लगे। इन्होंने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों के बारे आंसू नहीं बहाए।
प्रधानमंत्री मोदी के साथ–साथ गृह मंत्री अमित शाह भी बार–बार कह रहे हैं कि नागरिकता संशोधन कानून से मुसलमानों पर कोई असर नही होगा। पर फिर उन्हेंभड़काया जा रहा है। यह देश में अशांति पैदा करने का षडयंत्र है। ऐसा ही षडयंत्र 1947 में हुआ था, जब धर्म के नाम पर देश तोड़ डाला गया था। देश में एक बार फिरसे धर्मनिरपेक्षता, मानवतावाद, रोहिंगियावाद और सहिष्णुतावाद जैसे शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। जो संगठन और नेता जहां–जहां खुद को थोड़ा मजबूत समझते हैं, वहां–वहांहिंसा भड़का रहे हैं। वागरिकता संशोधन कानून के मसले पर राजधानी दिल्ली में कांग्रेस के नेता मतीन अहमद और आम आदमी पार्टी के ओखला से विधान सभाउम्मीदवार अमानतउल्ला खान आमने–सामने हैं। बीते दिनों जब खान अचानक से मतीन अहमद के पूर्वी दिल्ली स्थित क्ष्त्र में पहुंचकर मुसलमान औरतों को नागरिकतासंशोधन कानून के संबंध में ज्ञान दे रहे थे, तब उनकी मतीन समर्थकों से उनकी झड़प भी हुई।
पर आजकल आंदोलन करने वालों को कश्मीरी पंडितों के लिए संविधान की धारा–14 का औचित्य कभी नहीं समझ में आया था। कश्मीरी पंडितों को सरेआम काटते,पीटते और कश्मीरी महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार करते समय बेशर्म–जमातों को यह ख्याल नहीं रहा था कि कश्मीरी पंडितों, सिखों, बौद्धों और वहां के अन्यअल्पसंख्यकों के भी समानता के अधिकार हैं। उनकी सम्पत्तियों पर कब्जा करके और उन्हें अपनी ही जमीन से भगाने वाली जमातें संविधानवादी थीं, धर्म–निरपेक्ष थीं,मानवतावादी थीं, सहिष्णुतावादी थीं और प्रगतिशील थीं?
देश यह भी देख रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी की बातें करने वालों को अलग राय रखने वालों से परहेज है। दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम– 2019 के समर्थन में अलग राय क्या रख दी कि सब उनके पीछे हो लिए। यह तो इस देश में नहीं चलेगा। अभिव्यक्ति की आजादीपर प्रवचन देने वाले बोलें कि वे शाही इमाम के पक्ष में क्यों नहीं खड़े हे रहे है? क्या उन्हें अपना पक्ष रखने का अधिकार नहीं है?
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)