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किसके हाथ लगेगी दिल्ली की बाजी?

जिस समय ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, उस वक्त दिल्ली का दंगल धीरे-धीरे परवान चढ़ रहा है। मुकाबले में दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी आगे दिख रही है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि माहौल धीरे-धीरे बदलेगा। इस पूरी लड़ाई में निश्चित रूप से आम आदमी पार्टी आगे दिख रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि पिछले विधानसभा में उसने 67 सीटें हासिल की थीं। बेशक उसमें से कपिल मिश्र जैसे कुछ एक लोग बागी हुए। लेकिन आम आदमी पार्टी को भरोसा रहा कि इतना प्रचंड बहुमत कितना भी कम होगा तो वह दिल्ली के बहुमत से आगे ही होगा। इसी आत्मविश्वास के साथ आम आदमी पार्टी ने तैयारियां की और इस खेल में वह आगे रही। उसने अपने पंद्रह विधायकों के टिकट काटे और सबसे पहले उसने अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की। जबकि दिल्ली में लोकसभा की लगातार दो बार सभी सीटें और लगातार दो बार नगर निगम जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी इस मामले में पीछे ही रही। कांग्रेस के पास चूंकि खोने को कुछ नहीं रहा, इसलिए वह तैयारियों में भी पीछे रही और सोच में भी। उसे तो सभी विधानसभा सीटों के लिए मजबूत उम्मीदवार तक नहीं मिल रहे थे। आम आदमी पार्टी उसके कुछ मजबूत उम्मीदवारों को ले उड़ी। वह बदरपुर से कांग्रेस के मजबूत प्रत्याशी समझे जाते रहे पूर्व विधायक राम सिंह उर्फ नेताजी और मटियामहल से जनता दल के बाद कांग्रेस आए शोएब इकबाल को ले उड़ी।

भारतीय जनता पार्टी ने शुरू में तो अपने 53 उम्मीदवारों की सूची जारी की। जब सत्रह सीटों पर उसने अपने उम्मीदवारों को उतारने में देर लगाई तो उम्मीद जताई जाने लगी कि उसका जनता दल यू से समझौता होने जा रहा है। समझौता हुआ और ना सिर्फ जनता दल यू से हुआ, बल्कि बिहार की आधारभूमि वाली लोकजनशक्ति पार्टी से भी हुआ। जनता दल यू के लिए भाजपा ने जहां संगम विहार और बुराड़ी की सीटें छोड़ी हैं, वहीं लोकजनशक्ति पार्टी के लिए सीमापुरी की। हालांकि इससे पूर्वांचली मूल के भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता बेहद नाराज हैं। खासकर संगम विहार सीट पर भारतीय जनता पार्टी को जीत की पूरी उम्मीद थी। पूनम झा आजाद को यहां से कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार बनाए जाने के बाद तो यह उम्मीद और बढ़ गई थी। दिलचस्प यह है कि यहां से जिन एससीएल गुप्ता को जनता दल यू ने अपना उम्मीदवार बनाया है, वे भारतीय जनता पार्टी के विधायक रहे हैं और इस बार भी अमर नाथ झा के साथ भारतीय जनता पार्टी के प्रबल दावेदार थे। सूत्रों का कहना है कि जनता दल यू ने दिल्ली की दो सीटें ले तो लीं, लेकिन उसके पास उम्मीदवार तक नहीं थे। इसलिए उसके दिल्ली के अध्यक्ष दयानंद राय ने गुप्ता और अमरनाथ झा को फोन करके बुलाया और जनता दल का टिकट देने का प्रस्ताव किया। जिसमें से अमरनाथ झा ने मना कर दिया, जबकि गुप्ता ने शायद भारतीय जनता पार्टी की सहमति से टिकट ले लिया और ताल ठोकने के लिए मैदान में उतर गए। वैसे बिहार से आने वाली खबरों में माना जा रहा है कि नीतीश कुमार की स्थिति राजनीतिक और जनाधार को लेकर डांवाडोल हो रही है, इसलिए भारतीय जनता पार्टी का कैडर उनसे मुक्ति की राह तलाश रहा है। इसी बीच दिल्ली में समझौता हो गया तो उससे भाजपा का पूर्वांचली मूल का कैडर नाराज हो गया है।

दिल्ली की जनसांख्यिकी पहले वाली नहीं रही, जिसमें पश्चिमी पाकिस्तान से आए पंजाबी, बनिया, स्थानीय जाट और गूजर आबादी का वर्चस्व था। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में जहां पंजाबी और बनिया समुदाय की चलती थी, वहीं कांग्रेस की राजनीति में जाट-गूजर और मुस्लिम वोटरों का ध्यान रखा जाता था। जनता दल के उभार के दिनों में भी उसका भी आधार वोट बैंक यही होता था। कांग्रेस के हाल के दिनों के बड़े नेता परवेज हाशमी, हारून युसूफ और शोएब इकबाल एक दौर में जनता दल के नेता होते थे। बहरहाल अब दिल्ली की 70 में से 25 सीटों पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मूल के वोटरों का सीधा असर है। यही वजह है कि अपने शासन काल में शीला दीक्षित ने छठ पूजा के आयोजन पर ध्यान देना शुरू किया। चूंकि केजरीवाल के उभार में भी पूर्वांचली मतदाताओं के समर्थन का बड़ा योगदान था। लिहाजा उन्होंने भी छठ पूजा पर बहुत ध्यान दिया। यही वजह है कि अब पूर्वांचली मूल के कार्यकर्ताओं ने भी अपनी हिस्सेदारी मांगनी शुरू की है। लेकिन इस बार भी सभी प्रमुख पार्टियों ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। आम आदमी पार्टी ने जहां बंदना, दिलीप पांडेय, संजीव झा और गोपाल राय समेत 12 पूर्वांचली उम्मीदवारों पर दांव लगाया है, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने मनीष सिंह समेत आठ उम्मीदवारों पर दांव लगाया है। वैसे कपिल मिश्रा को भी पूर्वांचली माना जाता है। बेशक वे दिल्ली के बाहर के मूल के हैं, लेकिन उनका मूल निवास मध्य प्रदेश का रीवा है। इसी तरह कांग्रेस ने तीन उम्मीदवारों को उतारा है। कांग्रेस ने राष्ट्रीय जनता दल को चार सीटें देकर एक तरह से पूर्वांचली उम्मीदवारों पर ही दांव आजमाया है।

दिल्ली के मौजूदा चुनाव का करवट किसकी ओर बैठेगा, किन मुद्दों पर चुनाव होंगे, उस पर विचार के पहले जरा दिल्ली की जनसांख्यिकी पर ध्यान देते हैं। दिल्ली में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों के आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में 25 फीसदी से कुछ ज्यादा ही मतदाता पूर्वांचली हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार मूल वाले मतदाता किराड़ी, बुराड़ी, उत्तम नगर, संगम विहार, बादली, गोकलपुर, मटियाला, द्वारका और नांगलोई विधानसभा में सबसे ज्यादा प्रभावी भूमिका में हैं। इसी तरह करावल नगर, विकासपुरी, सीमापुरी जैसे इलाकों में भी पूर्वांचलियों की बड़ी आबादी है। इसके अलावा पूरी दिल्ली में हर विधानसभा सीटों पर अच्छी-खासी संख्या प्रवासी बिहारी-उत्तर प्रदेश के लोगों की है। इसी तरह दिल्ली की करीब 35 फीसदी आबादी पंजाबी समाज की है। इनमें 10 फीसदी से ज्यादा पंजाबी खत्री शामिल हैं। करीब 8-8 फीसदी आबादी जाट व वैश्य की है। दिल्ली के 364 में से 225 गांव जाट बहुल हैं और विधानसभा चुनावों में करीब 20 फीसदी हिस्सेदारी जाट मतदाताओं की रहती है। दिल्ली में दलित बहुल सीटें हैं, करोल बाग, पटेल नगर, मोती नगर, दिल्ली कैंट, राजेंद्र नगर, कस्तूरबा नगर, मालवीय नगर, आरके पुरम और ग्रेटर कैलाश। वैसे दिल्ली की 70 में से 12 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। इसी तरह दिल्ली की पंजाबी बहुल सीटें हैं विकासपुरी, राजौरी गार्डन, हरी नगर, तिलक नगर, जनकपुरी, मोती नगर, राजेंद्र नगर, ग्रेटर कैलाश, जंगपुरा, गांधी नगर, मॉडल टाऊन, लक्ष्मी नगर, रोहिणी। दिल्ली के कुछ इलाकों में उत्तराखंड से आए लोगों की भी मजबूत हिस्सेदारी है। दिल्ली में करीब 8 फीसदी मतदाता वैश्य समाज से आते हैं। जबकि 7 फीसदी गुर्जर, 5 फीसदी सिख और 12 फीसदी मतदाता मुस्लिम समाज से हैं। दिल्ली में महिला मतदाताओं पर सबकी नजरें टिकी हैं। करीब 49 फीसदी आबादी महिलाओं की है। इनके अलावा करीब 1.25 लाख ऑटो रिक्शा, झुग्गी, अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले मतदाता भी हैं। दिल्ली की 49 फीसदी आबादी इन्हीं इलाकों में रहती है।

पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली की अनधिकृत कही जाने वाली कालोनियों, ऑटोवालों और दूसरे निम्न आयवर्ग वाले लोगों को आम आदमी पार्टी का मजबूत वोटर माना जाता रहा। एक दौर में ये वर्ग कांग्रेस का वोटर था। शायद यही वजह है कि इन वर्गों के लोगों को लुभाने के लिए जहां केजरीवाल ने दो सौ यूनिट तक बिजली और पानी का बिल माफ कर दिया, वहीं 49 फीसद महिलाओं को लुभाने के लिए दिल्ली की बसों में यात्रा मुफ्त कर दी। इसी तरह हर महीने बीस हजार लीटर तक पानी का बिल शून्य कर दिया। इस वर्ग में सेंध लगाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने अनधिकृत कालोनियों को मान्यता देने और उनकी रजिस्ट्री आदि की सहूलियत देने का फैसला किया।

आम आदमी पार्टी जहां मोहल्ला क्लीनिक और शिक्षा व्यवस्था सुधारने के दावे के साथ ही महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्रा कराने, बिजली और पानी मुफ्त करने के नाम पर वोट मांग रहे हैं, वहीं भारतीय जनता पार्टी अब तक समझ नहीं पाई है कि वह केजरीवाल को किस मुद्दे पर ठीक से घेरे। हालांकि केजरीवाल ने पिछले चुनाव में जो वादे किए थे, उन 70 में से सिर्फ 67 वादे ही पूरे कर पाए हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी इसे ठीक से भुना नहीं पा रही है। राजधानी का पढ़ा-लिखा तबका मुफ्त बस यात्रा के विरोध में है। उनका मानना है कि बेहतर होता कि राजधानी की सड़कों पर हर साल एक हजार डीटीसी की बसें लाने का वादा करने वाले केजरीवाल अगर इसे पूरा करते तो बेहतर होता। हकीकत यह है कि क्लस्टर सेवा की बसें बदहाल हो चुकी हैं और करीब बारह सौ बसें अब तक सड़क पर नहीं लाई जा सकीं। इसी तरह डीटीसी की पुरानी पड़ चुकी करीब 1700 बसों की खेप नहीं आई। केजरीवाल पर पिछली बार लोगों ने भरोसा किया था कि वे आते ही सड़ी हुई व्यवस्था को बदलकर रख देंगे। लेकिन ऐसा करने की बजाय शुरू में वे मोदी सरकार पर काम ना करने के लिए रूकावट डालने का आरोप लगाते हुए काम करने से बचते रहे। उन्होंने कुछ इलाकों में वाईफाई लगाने और महिलाओं की मुफ्त यात्रा का काम चुनाव के कुछ महीनों पहले लागू किया तो वाईफाई का इंतजाम कुछ ही हफ्तों पहले। यानी उन्होंने चुनाव के मौके पर फायदा उठाने के लिए ये योजनाएं लागू कीं। इन अर्थों में देखें तो केजरीवाल भी दूसरे राजनीतिक दलों और नेताओं की तरह उनसे भी ज्यादा शातिर राजनेता बनकर उभरे हैं।

केजरीवाल का दावा शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने का है। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अभिषेक रंजन आंकड़ों से साबित करते हैं कि केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के दावे झूठे हैं। अभिषेक का कहना है कि 500 नए स्कूल का वादा करके आई केजरीवाल सरकार झूठे दावे कर रही है। अभिषेक आकंड़ों का हवाला देकर कहते हैं कि जब बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाने लगे तो कम फीस लेकर चलने वाले सात सौ निजी स्कूलों को बंद करने का दबाव बनाया। अभिषेक केजरीवाल सरकार के उस दावे की भी बखिया उधेड़ते हैं कि निजी स्कूलों से बच्चे सरकारी स्कूलों में आ रहे है। अभिषेक के मुताबिक, दिल्ली के सरकारी स्कूलों से बच्चे निजी स्कूलों की तरफ भाग रहे हैं। अभिषेक के मुताबिक सरकारी स्कूलों की संख्या में 27 का इजाफा तो हुआ, लेकिन एक लाख 29 हजार बच्चे घट गए। 2013-14 में जहां दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 16.10 लाख बच्चे थे, वे घटकर अगले साल 14.72 लाख रह गए। इसके साथ ही 558 प्राइवेट स्कूल बंद हो गए। हालांकि इसके बावजूद भी निजी स्कूलों में 2013-14 के मुकाबले 2017-18 में 2.64 लाख छात्रों की संख्या बढ़ गई। अभिषेक एएसईआर यानी असर की हालिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि देश में जहां बच्चियों को सरकारी और लड़कों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने का चलन बढ़ा है वहीं दिल्ली के मामले में मामला उल्टा है। दिल्ली के गरीब मां-बाप अब अपनी बेटियों को भी सरकारी की बजाय निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। असर की रिपोर्ट क मुताबिक, दिल्ली में जहां 4 साल में सरकारी स्कूलों से एक लाख बच्चियां कम हो गईं, वहीं स्कूलों में पढऩे वाली बच्चियों की संख्या में लगभग डेढ़ लाख का इजाफा हुआ।

दिल्ली में केजरीवाल ने मोहल्ला क्लीनिक योजना को लागू किया, लेकिन देखने की बात यह है कि यह योजना सिर्फ उन इलाकों में ज्यादा ढंग से चलाई जा रही है, जहां उनका आधारवोट बैंक है। जिन इलाकों में उनका आधार वोट बैंक नहीं है, वहां यह योजना नहीं चलाई जा रही। इसके साथ ही उन्होंने केंद्र की आयुष्मान भारत योजना को लागू ही नहीं किया है। केजरीवाल ने इस बीच अल्पसंख्यक समुदाय पर ज्यादा भरोसा किया है। वे मानकर चल रहे हैं कि दिल्ली के मुसलमान उनके ही साथ हैं। वैसे यह छुपी हुई बात नहीं है कि नागरिकता कानून में संशोधन के मामले को जानबूझकर उनके ही विधायक अमानतुल्लाह खान ने उछाला, उसके बाद ही हिंसा बढ़ी और फिर पूरे देश में छा गई। केजरीवाल की टीम को पता था कि इसका फायदा दिल्ली में उन्हें मिलेगा।

दिल्ली में मुस्लिम मतदाताओं का एकतरफा रूझान केजरीवाल की तरफ लग रहा है। लोगों को लगता है कि इसका फायदा गैर मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के रूप में नजर आएगा। लेकिन दुर्भाग्यवश दिल्ली में कम से कम विधानसभा चुनाव के लिए ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। दिल्ली में केजरीवाल ने जिन पंद्रह विधायकों के टिकट काटे हैं, उनसे भी लोगों को बगावत की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ है। इनमें आदर्श शास्त्री और कमांडो सुरेंद्र ने ही बागी रूख अपनाया। एक को जहां कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया तो दूसरे को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने। वैसे आम आदमी के वरिष्ठ नेता दिलीप पांडे को तिमारपुर से जिस पंकज पुष्कर का टिकट काटकर चुनाव मैदान में उतारा गया है, वे बेहद ईमानदार माने जाते रहे। लेकिन उन्होंने बगावती रूख अख्तियार नहीं किया। बगावत के सुर बदरपुर के विधायक ने जरूर दिखाया। वैसे आदर्श शास्त्री और पंकज पुष्कर को लेकर उनके इलाके की जनता में सहानुभूति देखी जा रही है। लेकिन आम आदमी को इसका कितना नुकसान होगा, यह चुनाव नतीजे ही बताएंगे।

दिल्ली में एक बात मानी जा रही है कि कांग्रेस जितना मजबूत होगी, आम आदमी पार्टी उतनी ही कमजोर होगी। लेकिन कांग्रेस की ताकत में इजाफा होता नजर नहीं आ रहा। दिल्ली की राजनीति बदलने का वादा करके सत्ता पर काबिज होने वाले केजरीवाल का बदलाव सिर्फ मीडिया और बौद्धिकों के एक वर्ग को ही नजर आ रहा है। केजरीवाल की बदनीयती की जितनी पोल कुमार विश्वास, प्रोफेसर आनंद कुमार, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव खोल सकते थे, कोई और नहीं। लेकिन सिर्फ कुमार विश्वास ही कभी-कभी इशारों में बोल रहे हैं। जबकि बाकियों को लगता है कि नरेंद्र मोदी से दुश्मनी केजरीवाल के हाथों हुए अपमान से ज्यादा प्यारी है। इसीलिए वे भी चुप हैं। इसलिए केजरीवाल ताकतवर नजर आ रहे हैं। लेकिन एक बात सबसे ज्यादा मार्के की यह है कि उनके विधायकों को लेकर कुछ वैसी ही नाराजगी है, जैसे 2004 के वक्त भाजपा के सांसदों को लेकर थी। लोग चाहते थे कि अटलबिहारी वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बनें, लेकिन उनका अपना भाजपाई सांसद हार जाए। इसका असर यह हुआ कि जरूरी संख्या में वाजपेयी के सांसद चुनकर संसद पहुंच ही नहीं पाए। इस बार दिल्ली में भी कुछ वैसा ही माहौल है। लोग केजरीवाल को भले ही चाह रहे हों, उनके बनाये छद्म में लोग डूब रहे हों, लेकिन लोग यह भी चाहते हैं कि उनका विधायक हारे। यही केजरीवाल की चुनौती और भाजपा के लिए ताकत है। देखना यह है कि भाजपा इसका फायदा उठा पाती है या केजरीवाल इस चुनौती पर काबू पा लेते हैं!

 

उमेश चतुर्वेदी

 

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