श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
बंगला कृत्तिवास रामायण और उसके अल्पज्ञात प्रसंग
नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति मातृसमो गुरु:।
नास्ति विष्णूसमो देवो नास्ति रामायणात्परम्।।
रामायण-माहात्म्य ५.२१
गंगा के समान तीर्थ, माता के तुल्य गुरु, भगवान् विष्णु के सदृश देवता तथा रामायण से बढ़ कर कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है।
वाल्मीकीय रामायण से प्रभावित होकर भारत की अनेक भाषाओं में श्रीरामकथा किसी न किसी रूप में लिखी गई है। वाल्मीकीय रामायण को आधार बनाकर बंगला भाषा में ‘कृत्तिवास रामायणÓ गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित श्रीरामचरितमानस से लगभग १०० वर्ष पूर्व लिखी गई। जिस समय कृत्तिवास रामायण की रचना की गई उस समय संस्कृत भाषा के अनेक आचार्यों-विद्वानों द्वारा उनके इस रचना के कार्य की आलोचना तथा निंदा की। कालान्तर में उसी कृत्तिवास रामायण के महाकाव्य ने बंगाली जनता का हृदय जीत लिया जिसके परिणामस्वरूप आज अमीर-गरीब-साधु-सन्त बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ सर्वत्र पारायण करते हैं। बंगला भाषा सरल मधुर और संस्कृतनिष्ठ है। बंगला भाषा की रचना को एक या दो बार पढ़ने से मूल काव्य को समझने में आसानी हो जाती है।
कृत्तिवासजी ने स्वरचित ‘आत्मपरिचयÓ नामक प्रबन्ध में अपने जन्म-दिवस के संबंध में इस प्रकार लिखा है-
‘आदित्यवार श्रीपंचमी पूर्ण माघ मास।
ताखि मध्ये जन्म लइलाम कृत्तिवास।Ó
उनका जन्म १४३३ ई. ११ फरवरी, रविवार माघ संक्रांति रात्रिकाल में माना गया है। कृत्तिवास का जन्म वर्तमान पश्चिम बंगाल के नदिया जिला स्थित फुलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम वनमाली ओझा एवं दादाजी का नाम मुरारी ओझा था। कृत्तिवास भगवान शिव का एक नाम भी होता है। ऐसा कहा और सुना गया कि जब बालक कृत्तिवास का जन्म हुआ तो उनके दादाजी मुरारीलाल ओझा चंदनेश्वर (उड़ीसा) में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर की यात्रा पर जाने वाले थे। इस पवित्र स्मृति को चिरस्थायी स्मरणीय बनाने हेतु बालक का नाम कृत्तिवास रख दिया गया। कृत्तिवास ने गौडेश्वर की प्रेरणा से भक्तिमय रामकथा का प्रणयन किया। वहीं कृत्तिवास रामायण के रूप में ख्याति प्राप्त है। कृत्तिवास द्वारा रचित अनेक ग्रंथों में रामायण के अतिरिक्त, योगाद्यार बन्दना, शिवरामेर युद्ध, रूक्मांगदेर एकादशी की भी रचना की है। सन् १४६७ ई. से १४७२ ई. के मध्य पाँच वर्षों का समय कृत्तिवास रामायण की रचना का माना गया है। मात्र ४७ वर्ष की अवस्था में १४८० ई. में उनका स्वर्गवास हो गया। इनके संतान होने का उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं है। यह रामायण सात काण्डों में वर्णित है। कृत्तिवास रामायण जनसाधारण के लिए अति सरल एवं सुबोध पयार छन्दों में वर्णित ‘पाञ्चाली (पांचाली)Ó गान है। कृत्तिवासजी अलंकार, छन्द, रस, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के महापण्डित थे। उनकी रामनाम में परम आस्था-श्रद्धा और विष्णु-शिव शक्ति के स्वरूप में समानरूपेण अनन्यभक्ति थी।
संस्कृत में कालिदास और हिन्दी में गो. तुलसीदासजी के समान बंगला में कृत्तिवास रामायण अजर अमर और उनकी रामायण की रचना सर्वकालानुयायिनी, सर्वतोगामिनी तथा सर्वतोव्यापिनी है। महाकवि कृत्तिवास की रामायण में मुख्यतया वाल्मीकि रामायण, जैमिनिय अश्वमेघ, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण, शिवपुराण और अन्य कई जनश्रुतियों से प्रसंग-उपादान संग्रहीत किए गए हैं।
बंगला कृत्तिवास रामायण में मन्दोदरी को श्रीराम से
अवैघव्य (सुहागिन-सौभाग्यवती) वर की प्राप्ति
भारतीय भाषाओं की अनेक श्रीरामकथाओं में रावण वध उपरान्त मन्दोदरी संबंधी प्रसंग नगण्य सा है। इस कृत्तिवास रामायण में यह प्रसंग अपनी एक विशिष्टता के साथ वर्णित है। रावण के वध उपरान्त विभीषण ने उसे विलाप न करने का कहा तथा मन्दोदरी को अन्त:पुर चली जाने का कहा। मन्दोदरी रावण का मुंड गोद में लिये जोर-जोर से रोने लगी। उसकी दस हजार सोतें भी उसको धीरज देने में असमर्थ रही। मन्दोदरी ने कहा, जिसने राजा का वध किया है, उसको मैं एक बार अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ। राम मनुष्य नहीं है, नारायण देव हैं। मैं उनके चरण अवश्य देखूँगी। ऐसा कहकर अस्त-व्यस्त वस्त्रों में तथा खुले और बिखरे केशों सहित मन्दोदरी राम को देखने चल पड़ी।
कटके वेष्ठित ब से आच्छेन श्रीराम, हेनकाले मन्दोदरी करिल प्रणाम
सीता-शाने भावि राम राणी मन्दोदरी ‘जन्मायतीÓ हुओ बलि आशीब्बादि करि
रामेर चरणे राणी बले ततक्षण, हेन वर दिले के न कमल लोचन
चन्द्र-सूर्य पृथिवी-समुद्र यदि छाड़े तबु रघुनाथ, तव वाक्य नाहिनडे
श्रीरामेरे मन्दोदरी परिचय दिल, कृत्तिवास पण्डित कवित्व बिरचिल
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड ६०७
सेना से घिरे राम बैठे हैं। ऐसे समय मन्दोदरी ने आकर उन्हें प्रणाम किया। रानी मन्दोदरी को सीता समझकर ‘अखण्ड सौभाग्यवतीÓ होओ। यह कहकर राम ने आशीर्वाद दिया। तब तक रानी ने राम के चरणों को पकड़कर कहा हे कमललोचन तुमने ऐसा वर मुझे क्यों दिया? चन्द्र-सूर्य, पृथ्वी, समुद्र सभी अपना-अपना स्थान छोड़ सकते हैं किन्तु हे रघुनाथ आपका वचन नहीं टल सकता है। ऐसा कहकर श्रीराम से मन्दोदरी ने अपना परिचय बताया।
संसार में जिसकी असीम महिमा है, ऐसे मयदानव का नाम आपने अवश्य सुना होगा। जिसके महाशेल के प्रहार से तीनों लोक हिल जाते तथा लक्ष्मण का भी पराभव होता है, मैं उन्हीं की बेटी और रावण की पत्नी हूँ। मेरा नाम मन्दोदरी है। मैं अन्त:पुर त्यागकर आपके चरणों का दर्शन करने आई हूँ। हे नाथ! मैंने निश्चित रूप से जान लिया कि आप तीनों लोकों के नाथ हो। मैं मन्दोदरी लंका की रानी आपसे हाथ जोड़कर कहती हूँ। जो देवताओं के ईश्वर पुरन्दर को बाँध लाता था तथा जिसके भय से देवता भयभीत थे, उस इन्द्रजीत की मैं जननी हूँ। ‘अखण्ड सौभाग्यवती रहोÓ यह कहकर आपने वर दिया है, यह वचन भी व्यर्थ नहीं हो सकता। मेरा पति मृत पड़ा है, तब किस प्रकार से मेरा सौभाग्यवती (सुहागिन) बने रहने का आशीर्वाद दे रहे हो। हे गुणों के सागर आप सत्यवादी हो। आपकी वाणी असत्य (मिथ्या) नहीं हो सकती। प्रचंड प्रहार से मेरे पति को मारकर आप स्वयं यह कैसी बात कर रहे हो।
यह सब सुनकर सूर्यवंश में जन्म लेने वाले रघुनाथ ने लज्जित होकर कहा, मेरा वचन सत्य रहेगा। रावण की चिता सदा के लिये प्रज्ज्वलित (जलती) रहेगी। हे मन्दोदरी सुनो तुम अपने घर जाओ विलाप मत करो। मेरी बात सुनो हे रानी। मेरे हाथों मरकर रावण स्वर्ग गया और उसके सारे पाप धुल गए।
शुन मोर राणी, गृहे जाओ राणि, दु:ख ना भाविओ चिते।
रावणेर चिता, रहिबे, सब्बर्था चिरकाल थाक आयते।
रहिबेक चिता, मिथ्या नहे कथा, शुन मन्दोदरी राणि।
आयत स्वभावे, सर्ब्बकाल खे, मिथ्या ना हइबे वाणी।
रामेर बचने, सुखी ह ये मने, गृह जाय ततक्षण।
लंका काण्ड गीत भाषा सुललित कृत्तिवास बिरचन।
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड ६०८
मेरी बात सुनो, हे रानी, तुम अपने घर जाओ, मन में दु:खी मत हो ओ। रावण की चिता सदा के लिए जलती रहेगी और तुम भी चिरकाल के लिए सधवा (सौभाग्यवती) बनी रहोगी। तुम सौभाग्यवती के रूप में चिरकाल तक जीवित रहोगी। हे रानी, मेरी वाणी मिथ्या नहीं होगी। राम के वचन से रानी मन्दोदरी प्रसन्न होकर घर चली गई। लंकाकाण्ड के गीत सुललित है जिनकी रचना कृत्तिवास ने की है।
इस तरह रानी मन्दोदरी को सौभाग्यवती का आशीर्वाद देकर श्रीराम ने अपने वचन और आशीर्वाद को सत्य किया। कथा के पूर्व प्रसंग में विभीषण को श्रीराम के शरणागत होने पर उन्होंने जो वचन एवं आशीर्वाद विभीषण को दिया था, उसमें मन्दोदरी देने का कहा गया था।
पुनि अभिषेक भयेउताही छन, चहुँ घोषित लंकेस विभीषण।
छत्र दण्ड मन्दोदरि रानी, स्वर्ण लंक करि तिलक प्रदानी।
श्रीरामेर वचन लंछिबे को न जना विभीषण राजा हैल जगते घोषणा।
छत्र दण्ड दिलतारे स्वर्ण लंकापुरी, अभिषेक करि दिल रानी मन्दोदरी।।
बंगला कृत्तिवास रामायण सुन्दरकाण्ड ६०६
श्रीराम ने विभीषण का शरणागत होते ही राज्याभिषेक कर लंका का राजा घोषित कर दिया। राज्य के साथ-साथ छत्र-दण्ड और मन्दोदरी रानी भी देने की घोषणा की थी तथा उसका साकार रूप हमें लंकाकाण्ड में इस प्रकार है-
छत्र दण्ड दिला आर स्वर्ण लंकापुरी अभिषेक करि दिल राणी मन्दोदी।
बंगला कृतिवास रामायण लंकाकाण्ड ६१५
श्रीराम ने रावण वध उपरान्त विभीषण को सोने की लंका का राजा बनाकर उसका राज्याभिषेक तथा दिए गए वचन के अनुसार छत्र-दण्ड सहित मन्दोदरी रानी भी दी। श्रीराम ने अपने दोनों दिए गए वचन, विभीषण एवं मन्दोदरी को देकर सूर्यवंश का गौरव बढ़ाया।
आनन्द रामायण में रावण-मन्दोदरी प्रसंग
इस रामायण के कथा प्रसंग का संकेतात्मक रूप बंगला कृत्तिवास में मिलता है। कृत्तिवास रामायण में आनन्द रामायण के कतिपय प्रसंग की झलक कुछ परिवर्तन के साथ देखी जा सकती है। आनन्द रामायण में मंदोदरी कथा प्रसंग महर्षि वसिष्ठ एवं लव के माध्यम से वर्णित है। एक दिन प्रात:काल में लव ने महर्षि वसिष्ठजी से कहा हे मुनीश्वर! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ आप उसे बताइए। यद्यपि महर्षि वाल्मीकिजी की कृपा से मैं सब कुछ जानता हूँ फिर भी संसार के लोगों को ज्ञान प्रदान कराने के लिए आज आप से पूछ रहा हूँ
यदाऽस्माभिनिशायां हि सर्वेनिद्रा विधीयते।
तदा संश्रूयते कर्णे भस्रवत्कस्य वै ध्वनि:।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्ड उत्तरार्द्ध सर्ग २०-३
जबकि रात्रि में हम लोग सोते हैं, तब कान में धौकनी की तरह किसकी ध्वनि सुनाई देती है? मेरे इस संशय का निराकरण कीजिए। इस बात का मुझे बड़ा कौतुहल है। लव की बात सुनकर महर्षि वसिष्ठजी ने कहा- रावण ने जिस देह (शरीर) से बहुत सी ब्रह्महत्याएँ की थी। हे लव! वह देह आज भी लंका में जल रही है। रामजी के हाथों वध होने, राम का स्मरण करने और उनके साथ बैर बुद्धि (शत्रुता) रखने से रावण क्षण भर में मुक्त हो गया। आत्मा के सारे पापों को पहले ही जला चुका था किन्तु शरीर से उसने कभी देवताओं को नमस्कार तक भी नहीं किया। न कभी देव मंदिर की सफाई की, न उस शरीर से तीर्थ यात्रा की, न अपने शरीर से कोई निष्काम तपश्चर्या की और न शीत-उष्ण ही सहन करके शरीर से परिश्रम किया। ब्राह्मणों की हत्या करने वाली उसकी देह आज भी लंका में जल रही है। उसी का शब्द प्रत्येक मनुष्य को सुनाई देता है। ज्वाला की धक धकाहट का निनाद धौंकनी की तरह सुनाई पड़ता है। दिन के समय मनुष्यों के कोलाहल से वह शब्द नहीं सुनाई पड़ता है। आज भी हनुमान जी को रोज सौ भार लड़की उस चिता में डालनी पड़ती है। जब रावण के पाप नष्ट होंगे तब कहीं उसका शरीर जलेगा। हे बालक लव! मैं तुम्हें एक दूसरा कारण भी बताता हूँ वह सुनो-
देहान्ते रावणेनापि रामाय याचितोवर:।
वरेण येन लोकानां स्मरणं मे भविष्यति।।
स त्वया मे वरो देयस्तच्छ्रुत्वा राधवोऽब्रवीत।
त्वेद्दहज्वलिनि ज्वालाशब्द: सर्वे जना भुवि।।
श्रोष्यन्ति सप्तद्वीपेषु तेन ते स्मरणं सदा।
भविष्यति हि सर्वेषां बह्मांडांतर्निवासिनाम्।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्ड, उत्तरार्द्ध सर्ग २०-१४-१५-१६
अपनी मृत्यु के समय रावण ने श्रीराम से यह वरदान माँगा था कि आप हमें कोई ऐसा वर दीजिए, जिससे संसार के लोग मेरा भी सदा स्मरण किया करें। श्रीराम ने कहा कि तुम्हारी (रावण की) देह जलाने वाली आग का धक्-धक् शब्द सातों द्वीपों के प्रत्येक व्यक्ति को सुनाई पड़ता रहेगा। इसी से सबको तुम्हारी याद आती रहेगी। इस प्रकार का वरदान पाकर रावण श्रीराम के शरीर में लीन हो गया। वसिष्ठजी ने लव से कहा तुमने मुझसे जो प्रश्न किया वह सब कह सुनाया। महर्षि गुरु वसिष्ठजी की बात सुनकर लव का संदेह निवृत्त (समाप्त) हो गया और वे पालकी में बैठकर अपने निवास स्थान चले गए।
हम आज भी देखते हैं कि दशहरे के दिन बुराईयों एवं दुराचरण के प्रतीक रावण का पुतला नष्ट नहीं करते हैं बल्कि रावण दहन करते आ रहे हैं।
रावण का मान्धाता के साथ युद्ध और मैत्री प्रसंग
अगस्त्य ऋषि श्रीराम को एक अपूर्व कथा सुना रहे थे कि- एक समय की बात है कि रावण रथ पर आकाश मार्ग से जा रहा था। उसी समय एक नर श्रेष्ठ भी दिव्य रथ पर सवार होकर जा रहा था। उस राजा के स्वर्ण रथ को राजहंस ढो रहे थे। उस पुरुष के पास सात सौ देवकन्याएँ थीं। वह राजा इन देव कन्याओं के बीच में बैठा था, कोई हँस रही थी, कोई नाच-गान के साथ बाँसुरी बजा रही थी। रावण ने उस राजा के रथ को देखा। रावण कहने लगा- ओ पुरुष तुम कहाँ भाग रहे हो? मैं लंका का रावण हूँ। तुम मुझसे आज युद्ध करो। तुम्हारी इन सुन्दरियों को देखकर। मेरे प्राण व्याकुल हो रहे हैं। मुझे कुछ नारियाँ देते जाओ। उस पुरुष (राजा) ने उसे पुकार कर कहा- लंकेश्वर सुनो, मैंने अनेक वर्ष प्रचंड तपस्या की है। मैं संसार में प्रधान राजा था। तुम जैसे अनेकों के प्राण ले लिये थे। मुझे युद्ध में कोई पराजित नहीं कर सकता था। यह तो निश्चित था कि मैं स्वर्ग में निवास हेतु जाऊँगा। मैं पहले पूर्व-मुनि नाम से परिचित था। अब स्त्रियों से परिवेष्ठित होकर मैं स्वर्ग-वास हेतु प्रस्थान कर रहा हूँ। इस समय तुमसे युद्ध करने की कोई युक्ति नहीं है। रावण बोला- तुम मेरे धर्म पिता हो। पहले मेरे पिता के साथ तुम्हारी बातचीत थी। दिग्विजय करते हुए मैंने तीनों लोक जीत लिये हैं। अब मन में सोच रहा हूँ कि किससे युद्ध करूँ?
दिनेक रहिते नारि आमि बिना-रणे। तुम युक्ति बल आमि युझिकार सनै
पूर्ब्ब मुनिबले काछे मान्धाता नृपति। तार सने युझह से सप्तद्वीप पति
बंगला कृत्तिवास रामायण उत्तरकाण्ड, मान्धाता के साथ रावण का युद्ध मैत्री ७
रावण ने मुनि से कहा कि मैं बिना युद्ध के तो एक दिन भी नहीं हर सकता। तुम युक्ति बताओ कि मैं किसके साथ युद्ध करूँ। पूर्व मुनि ने कहा- मान्धाता, नाम का राजा है, तुम उसके साथ युद्ध करो। वह सप्त-द्वीपों का राजा है। वह देश भ्रमण के लिए उत्तर दिशा में गया है। आज तुम इसी रमणीय-पर्वत पर रहो। इसी पर्वत पर उससे तुम्हारी उसकी भेंट होगी। मान्धाता के आने पर उससे तुम युद्ध करना। ऐसा कहकर पूर्व मुनि स्वर्ग निवास हेतु चले गए। उसी समय सेना सहित मान्धाता वहाँ से आ गए। मान्धाता को देखकर रावण रुष्ट हो गया। मान्धाता और रावण दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। दोनों ही राजाओं ने अनेक अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध किया। मान्धाता ने हीरे की कुल्हाड़ी रावण पर घुमाकर फेंकी। कुल्हाड़ी की चोट से रावण रथ से गिर पड़ा। रावण को रथ से गिरा देखकर उसके सेनापतियों ने उसे घेर लिया। यह देखकर मान्धाता ने हर्ष के साथ सिंहनाद किया। उधर पलक मारते ही राजा रावण सचेत होकर धनुष उठाकर तैयार हो गया। यह देखकर मान्धाता चिन्तित हो गए। राक्षस रावण ने अग्रिबाण छोड़ा, यह देखकर देवताओं को आश्चर्य हुआ। मान्धाता गिर पड़े तथा उसकी सेना में हाहाकार हो गया। कुछ क्षण बाद मान्धाता सचेत हो गए। दोनों में असंख्य बाणों को छोड़ते हुए निर्णायक युद्ध हुआ।
दोनों के मध्य यह युद्ध दस माह तक चला। मान्धाता ने रावण पर पाशुपत नाम का बाण छोड़ा, जिससे सारा संसार काँप उठा। बाणों की ध्वनि सुनकर स्वर्ग में भय का वातावरण हो गया। तब ब्रह्माजी ने महर्षि भार्गव को भेजा, भार्गव ऋषि शीघ्रता से वहाँ आकर कहने लगे-
समर संबर क्रोध ना कर मान्धाता। ब्रह्मा पाठाइया दिला शुन ताँर कथा
आच्छे ये ब्रह्मार वर रावण ना मरे। तब बाणे राबणेर कि करिते पारे
तव वंशे ये पुरुष जन्मि बेन शेषे। ताँर ठाँइ दशानन मरिके संवशे
तब बाणे ना मारिबे लंकार रावण। अस्त्र संवरिया प्रीति कर दुइ जन।
बंगला कृत्तिवास रामायण उत्तरकाण्ड मान्धाता-रावण युद्ध और मैत्री १८-१९
मान्धाता युद्ध रोको। क्रोध मत करो। ब्रह्मा ने मुझे भेजा है उनकी बात सुनो। ब्रह्मा का तो यह वरदान रहा कि रावण मरेगा नहीं। अत: तुम्हारे बाण भला उसका क्या कर सकते हैं? मान्धाता तुम्हारे वंश में अंत में जो पुरुष जन्म लेंगे, उनके द्वारा दशानन वंश सहित मारा जाएगा। तुम्हारे बाणों से लंका का राजा रावण नहीं मरेगा। इसलिए अस्त्र-शस्त्र समेटकर दोनों परस्पर प्रीति (मैत्री) कर लो। राजा मान्धाता ने मुनि के वचन की अवज्ञा नहीं की। रावण और मान्धाता दोनों ने परस्पर मैत्री कर अपने-अपने स्थान को चले गए। मान्धाता और रावण दोनों ही युद्ध में बराबर थे। इस कारण उस समय किसी की हार-जीत नहीं हुई। मुनि अगस्त्य की बात सुनकर श्रीराम उल्लसित हो उठे।
रावण एवं श्रीराम के वंशजों में से राजा अनरण्य ने भी उसे युद्ध में मृत्यु के पूर्व शाप दिया था और उसे बताया कि मेरी मृत्यु के पश्चात् कि-
राजा हये करिलाम प्रजार पालन। तिन लक्ष द्विजे नित्य कराइ भोजन
ए सब आमार पुण्य जाने भाले। तोर ये बधिवे, से जन्मिवे मोर कुले।
बंगला कृत्तिवास रामायण उत्तरकाण्ड ८८
राजा के रूप में मैंने प्रजा का पालन किया है। नित्य दस लाख द्विजों को भोजन करवाता हूँ। मेरे इन पुण्यकर्मों के बारे में सब लोग भलिभाँति जानते हैं। हे रावण! तुझे वध करने वाला मेरे ही कुल में उत्पन्न होगा। सूर्यवंशी राजा अनरण्य का शाप अंत में सत्य हुआ तथा श्रीराम के द्वारा उसका वध किया गया। सृष्टि में ऋषि मुनि देवता और प्रजा सुखी सम्पन्न हो गई।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता