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दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

मैं टीवी आमतौर पर नहीं देखता। परसों कई दिनों बाद देखा। दिल्ली के दङ्गों पर सवेरे एनडीटीवी पर रवीश कुमार की एक रिपोर्ट और शाम को जी-न्यूज़ पर सुधीर चौधरी की एक दूसरी रिपोर्ट। ‘आजतक’ भी खोला, पर वहाँ कुछ दूसरी चीज़ चल रही थी, जिसके ज़िक्र का यहाँ सन्दर्भ नहीं बनता। रवीश कुमार की रिपोर्टिङ्ग आमतौर पर मैं पसन्द करता हूँ, उनका समर्थन भी करता रहा हूँ, पर कल निराशा हाथ लगी। मैं सवेरे नौ बजे के बाद वाली रवीश जी की सिर्फ़ एक रिपोर्ट की बात कर रहा हूँ, इसलिए मेरी बात को सिर्फ़ वहीं तक सीमित करके देखें, क्योंकि हो सकता है कि उन्होंने दूसरी और तरह की कुछ बढ़िया रिपोर्टिङ्ग भी की हो। फिलहाल, रवीश की इस रिपोर्ट को शातिराना ढङ्ग की बेहूदा रिपोर्टिङ्ग कहूँगा। बॉडी लैङ्ग्वेज तक ईमानदार नहीं लग रही थी। ठीक इसके उलट, सुधीर चौधरी की रिपोर्टिङ्ग बढ़िया थी और यह सच को सच की तरह दिखा रही थी। इन दोनों को देखने के बाद यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि कैसे एक तरफ़ एक साफ़-सुथरा आदमी धीरे-धीरे किसी विचारधारा या निहित स्वार्थों की दलाली करता नज़र आने लगता है, जबकि दूसरी ओर एक दूसरा दलाल की छवि वाला आदमी सचबयानी करता दिखाई देने लगता है।
रवीश कुमार ने दङ्गे की तीन घटनाओं का ज़िक्र किया। अच्छी बात कि इन तीनों ही घटनाओं में जिन लोगों ने एक-दूसरे की मदद की, उनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों ही क़ौमों के लोग थे, पर अजीब बात कि इस पूरी रिपोर्टिङ्ग से कुछ ऐसे सङ्केत उभर रहे थे, जैसे कि दङ्गा करने वाले सिर्फ़ एक ही क़ौम के लोग रहे हों; जबकि सच्चाई कुछ और है। यह सच को ग़लत दिशा में मोड़ने की मंशा से बनाई गई रिपोर्ट लगती है। पत्रकारिता की यह ग़लीज़ मानसिकता कही जाएगी। पीत पत्रकारिता का यह एक और चेहरा है। ऊपर से सन्तुलन का भ्रम पैदा करना और भीतर से शातिरपना। सोचिए कि यह नेतागीरी है या पत्रकारिता? रवीश जी को कहीं इस बात का गुमान तो नहीं हो गया है कि मैग्सेसे ने उन पर शक करने की गुञ्जाइश ख़त्म कर दी है!
पत्रकारिता के बहाने दूसरे और सन्दर्भों को याद कीजिए और सोचिए कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?
उस दृश्य की कल्पना करके मैं सिहर जाता हूँ, जब दङ्गाई तोड़फोड़ के साथ स्कूली बच्चियों के कपड़े तक फाड़ देते हैं और उनकी देह नोचना चाहते हैं। यह भी सोचिए कि तेरह साल की एक बच्ची के अन्तःवस्त्र दङ्गा प्रायोजित करने के आरोपी एक पार्षद के घर मिलते हैं और नङ्गी लाश बगल के एक नाले से निकाली जाती है। क्या सिर्फ़ इस वजह से यह कम निन्दनीय हो जाता है कि इस शर्मनाक हरकत को अञ्जाम देने वाला आपकी पसन्द वाली धारा का है?
जो लोग दनाक से कह दे रहे हैं कि कपिल मिश्रा के ग़ैरज़िम्मेदाराना बयान की वजह से दङ्गा शुरू हुआ, वे समस्या का सरलीकरण कर रहे हैं। विचारधारा के बीमारों को तो ख़ैर बहाना चाहिए कि कैसे दूसरी विचारधारा वालों को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाए। अगर ऐसा है कि कपिल मिश्रा के बयान के चलते दङ्गे शुरू हुए, तो और पहले आए कहीं और ज़्यादा गए-गुज़रे बयानों पर दङ्गे क्यों नहीं शुरू हुए? क्या किसी ख़ास पक्ष के बयान ही दङ्गे के लिए ज़िम्मेदार होते हैं और दूसरे पक्ष के भड़काऊ बयानों से गुलाब के फूल झड़ते हैं? ये जनाब ओवैसी अपने सीने पर गोली खाने की हिम्मत दिखाकर काग़ज़ न दिखाने की कौन-सी धमकियाँ दे रहे थे? सोनिया गान्धी को सुना आपने? बुढ़ा गईं, पर राजनीति करनी नहीं आई। अब, इनका लूगा धोने में ही जिनको अपनी क़ाबिलियत नज़र आती है, उनसे भला क्या उम्मीद कर सकते हैं? राहुल गान्धी, प्रियङ्का गान्धी और काँग्रेस के दूसरे नेताओं के पहले भड़काऊ और बाद के नपुंसक बयान भी क्या आपने नहीं सुने? ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन के पूर्व विधायक वारिस पठान का वह बयान क्या आपने नहीं सुना, जिसमें उसने कहा था कि हम पन्द्रह करोड़ सौ करोड़ पर भारी पड़ेंगे? दिल्ली के मुख्यमन्त्री को महात्मा गान्धी की समाधि पर माथा रगड़ कर शान्ति फैलाते हुए क्या आपने नहीं देखा? अरे भाई, गान्धी की समाधि पर जाते हुए एक बार यह भी तो सोच लेते कि ऐसे समय पर ख़ुद गान्धी होते तो क्या करते! यह ठीक है कि आपके पार्षद के घर में दङ्गे-फ़साद के समान मिले तो आपने उसे पार्टी से निकाल दिया, पर अपने विधायक अमानतुल्लाह ख़ान को क्या कहेंगे जो ताहिर हुसैन को क्लीन चिट देता फिर रहा है? यह भी सोचिए कि आनन-फानन में ताहिर हुसैन को फ़रार होने की ज़रूरत क्यों पड़ी? हालाँकि जो लोग इस एक पार्षद की वजह से आम आदमी पार्टी पर दङ्गे भड़काने का आरोप लगा रहे हैं, मैं उन्हें भी सही नहीं मानता। ऐसा कहने वालों को समझना चाहिए कि ऐसे अराजक तत्त्वों और अपराधियों की सङ्ख्या दूसरी पार्टियों में और ज़्यादा है। एक-दो नेताओं की वजह से पूरी पार्टी को अपराधी मान लेना ठीक नहीं।
कुछ घरों में मिले फ़साद के सामानों से अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि तैयारी आनन-फानन में नहीं हो गई थी। यह बहुत दिनों से की जा रही थी। इसे भी महज़ संयोग मानना मुश्किल है कि अमरीकी राष्ट्रपति के आते ही दिल्ली दङ्गों की भेंट चढ़ गई। पहले भी कह चुका हूँ, फिर कह रहा हूँ कि इस शाहीन बाग के अहिंसक प्रदर्शन में ईमानदारी बस बीस फ़ीसद है और शातिराना बेईमानी अस्सी फ़ीसद। शाहीन बाग के जिन भी समर्थकों से मैंने एनआरसी और सीएए के ख़तरे पूछे, एक ने भी सही ढङ्ग से सन्तुष्टिदायक जवाब नहीं दिया। भविष्य के उन काल्पनिक ख़तरों की बात करते लोग दिखे, जिनका कोई सिर-पैर नहीं है। इनमें से ज़्यादातर बेचारे मोदी-विरोध की बीमारी से ग्रस्त हैं। अलबत्ता, शङ्काएँ सही या ग़लत जैसी भी रही हों, जो महिलाएँ सचमुच ईमानदारी के साथ वहाँ डटी हुई थीं और तकलीफ़ उठा रही थीं, उनको मैं नमन करता हूँ।
मेरे मस्तिष्क में फिर गूँज रहा है कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

दङ्गा भड़कने के तीसरे दिन मैं दफ़्तर में था तो पत्नी का फ़ोन आया—‘‘शाम को सँभल कर आना, पड़ोस के चौराहे पर अफ़रा-तफ़री मची है। कट्टे, पिस्तौल निकले हैं और लोग दुकानें बन्द करके घरों में क़ैद हो गए हैं।’’ समर्थन-विरोध, पुलिस-कचहरी के बीच से ज़िन्दगी गुज़री है, तो ख़ुद के लिए भले कभी डरने की नौबत न आई हो, पर घर में बीवी-बच्चे हैं ही, तो मन भी आशङ्काओं-कुशङ्काओं से घिरता ही है। रात क़रीब साढ़े नौ बजे, घर से डेढ़ किलोमीटर पहले चौराहे पर जब दफ़्तर की बस से उतरा तो मन में यही था कि ई-रिक्शा करके आज किसी दूसरे रास्ते से घर जाऊँगा। नज़दीक आते ई-रिक्शे को हाथ देने की सोच ही रहा था कि मन अचानक बदल गया। पच्चीस-तीस बरस पहले के इलाहाबाद के दिनों के कुछ दृश्%