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बदले-बदले से केजरीवाल!

उमेश चतुर्वेदी

 

लोकसभा चुनावों में भारी पराजय के महज आठ महीने बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारी जीत दर्ज कराने के बाद केजरीवाल एक बार फिर अलग तरह की राजनीति करते नजर आ रहे हैं। बेशक उनकी जीत पिछली बार की तुलना में कम रही, 67 सीटों की बजाय 62 सीटों पर ही उनकी पार्टी जीत पाई, लेकिन 70 सदस्यों वाली विधानसभा के हिसाब से यह फिर भी बड़ी जीत है। इस जीत में निस्संदेह बड़ी भूमिका शाहीनबाग आंदोलन ने भी निभाई। नागरिकता संशोधन कानून को वापस लेने के लिए 15 दिसंबर 2019 को शुरू हुआ आंदोलन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है। इसका असर यह हुआ कि मुस्लिम बहुल सभी पांचों सीटों मटिया महल, सीलमपुर, ओखला, बल्लीमारान और मुस्तफाबाद से आम आदमी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार भारी मतों से जीते। जाहिर है कि पांचों जगह आम आदमी पार्टी की भारी जीत मुस्लिम मतदाताओं की एकतरफा वोटिंग की वजह से हुई।

चुनाव नतीजों के बाद माना जा रहा था कि अरविंद केजरीवाल शाहीनबाग जरूर जाएंगे और मतदाताओं का धन्यवाद करेंगे। लेकिन केजरीवाल खुलकर पलटे तो नहीं, अलबत्ता 16 फरवरी को रामलीला मैदान में अपने शपथग्रहण के बाद जिस तरह से उन्होंने वंदेमातरम् और भारत माता की जय के नारे लगाए, उसके संकेत साफ हैं। इतना ही नहीं, उस दिन उन्होंने भगवा रंग का स्वेटर पहन रखा था और माथे पर तिलक भी था। जाहिर है कि उन्होंने एक तरह से बहुसंख्यकवादी राजनीति की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। उन्हें लग रहा है कि दिल्ली की जीत में भले ही अल्पसंख्यकवाद ने बड़ी भूमिका निभाई, लेकिन भविष्य में अगर दूसरी बड़ी जीतें हासिल करनी हैं तो उन्हें बहुसंख्यकवाद की ओर भी जाना होगा। आम आदमी पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि केजरीवाल अब दूसरे छोटे राज्यों मसलन पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गोवा का रूख कर सकते हैं। वैसे लोगों को याद रखना चाहिए कि नवंबर 2012 में जब आम आदमी पार्टी का दिल्ली के जंतर-मंतर पर गठन हुआ था, तब उन दिनों हिमाचल में चुनाव होने वाले थे। आम आदमी पार्टी के सूत्र बताते हैं कि तब अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और योगेंद्र यादव ने तय किया था कि पहले हिमाचल में किस्मत आजमाई जाएगी। लेकिन अन्ना हजारे द्वारा राजनीतिक दल बनाने के विरोध में आने के बाद हिमाचल के चुनावी अभियान में हिस्सा लेने का विचार आम आदमी पार्टी ने टाल दिया था। आम आदमी पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि जिन योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, प्रशांत भूषण को केजरीवाल ने किनारे लगा दिया या फिर आम आदमी पार्टी से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया, वे सारे नेता अपने सारे गिले-शिकवे और अतीत का अपमान भुलाकर केजरीवाल के संपर्क में हैं। आम आदमी पार्टी के सूत्रों का यहां तक दावा है कि आने वाले एक साल के भीतर केजरीवाल अपनी पत्नी सुनीता केजरीवाल को दिल्ली की बागडोर थमाकर देशव्यापी राजनीति की राह पर निकल सकते हैं, जिसकी राह पंजाब, हिमाचल और गोवा से होकर आगे निकलती है।

अब जरा केजरीवाल के राजनीतिक और चुनावी ग्राफ पर भी ध्यान देते हैं। ठीक आठ महीने पहले हुए आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली के मैदान में जहां 56.58 फीसद से ज्यादा वोट मिले थे। वहीं उसे दिल्ली की 70 में से 65 विधानसभा इलाकों में जीत मिली थी। इसी चुनाव में आम आदमी पार्टी को सिर्फ 18 प्रतिशत वोट मिले थे। इतना ही नहीं, दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में से तीन सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई थी। महज आठ महीने पहले हुए चुनाव के ऐसे नतीजों के बाद विधानसभा में भी भारतीय जनता पार्टी को जीत मिलने की उम्मीद होनी स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्मीद टूट चुकी है।

समाज हो या राजनीति, वह विजेताओं का ही सम्मान करता है। जाहिर है कि आम आदमी पार्टी का सम्मान बढ़ गया है। लोकसभा चुनाव में सिर्फ 18 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में 53.57 प्रतिशत वोट हासिल करके 62 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल कर ली। जबकि महज आठ महीने पहले इससे भी ज्यादा वोट हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ 38.51 प्रतिशत वोट और आठ सीटों से संतोष करना पड़ा। दिलचस्प यह है कि लोकसभा चुनावों में 22.46 प्रतिशत मत पाने वाली कांग्रेस सिर्फ 4.26 प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाई और उसके 63 उम्मीदवारों की जमानत तक भी नहीं बची।

आखिर ऐसा क्या हुआ कि केजरीवाल ने आखिर क्या किया कि इन आठ महीनों में पूरा सियासी परिदृश्य ही बदल दिया। इस पर विचार किया जाना जरूरी है। केजरीवाल यह समझ गए थे कि राष्ट्रीय परिदृश्य में नरेंद्र मोदी के खिलाफ बदजुबानी मतदाताओं को स्वीकार्य नहीं है। यही देखते हुए लोकसभा चुनाव में हार के बाद केजरीवाल ने अपनी रणनीति बदल दी। पहले कांग्रेस और बाद में भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के खिलाफ बदजुबानी करने के लिए ख्यात रहे केजरीवाल नए रंग में नजर आने लगे। अक्टूबर में उनसे मिलने गए एक प्रतिनिधिमंडल से केजरीवाल ने दूसरे अंदाज में स्वीकार भी किया था। वह रणनीति थी, मोदी के खिलाफ बदजुबानी पर काबू पाना। जो केजरीवाल लगातार तीन साल तक चिल्लाते रहे कि उन्हें काम नहीं करने दिया गया, जिन्होंने जानबूझकर भाजपा के कब्जे वाले नगर निगमों के लिए फंड जारी करने में टालमटोल की, ताकि कर्मचारी उबाल खाएं और वे प्रतिरोध करें, उन्होंने चुप्पी साध ली।

केजरीवाल राजस्व सेवा के अधिकारी रहे हैं। उन्होंने जितना काम नहीं किया, उसे बखूबी बेचा। सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी एक सूचना के  मुताबिक दिल्ली सरकार ने तीन साल में विज्ञापन, प्रचार-प्रसार पर 207 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, जो इस मद में आवंटित 590 करोड़ रुपये की बजटीय राशि का 35 प्रतिशत है। जाहिर है कि उन्होंने अपने काम का जमकर ढिंढोरा पीटा। वैसे तो पहले ही वे दिल्ली जल बोर्ड के तहत पानी की आपूर्ति में छूट दे रहे थे और हर परिवार को 20 हजार लीटर पानी मुफ्त कर दिया था। इसी तरह उन्होंने अगस्त 2019 से बिजली के बिलों में छूट देनी शुरू की और 200 यूनिट तक बिजली का बिल माफ कर दिया। अक्टूबर में उन्होंने महिलाओं को डीटीसी और क्लस्टर बसों में फ्री यात्रा का तोहफा दिया। दिल्ली के स्कूलों की दशा जितनी सुधारी नहीं, उससे ज्यादा प्रचार किया। झुग्गियों में रहने वाले परिवारों को प्रति महीने करीब दो सौ रूपए में महीनेभर का राशन मुहैया कराया तो झुग्गियों के उन लोगों को दिल्ली सरकार के स्कूलों के पैरेंट टीचर मीटिंग में अहम भूमिका दी। पांच साल तक निजी स्कूलों की फीस में बिना वाजिब बढ़ोत्तरी भी नहीं करने दी। यह बात और है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की सहूलियतें नहीं बढ़ीं। नौंवी कक्षा में विज्ञान पढऩे वाले छात्रों की संख्या लगातार कम होती गई। शिक्षा के अधिकार के लिए काम करने वाले एक कार्यकर्ता अभिषेक रंजन के मुताबिक, केजरीवाल सरकार ने शिक्षा बजट की राशि को बढ़ता हुआ भले दिखाया, लेकिन खर्च करने के मामले में फिसड्डी रही। 2008 से 2013 तक के आंकड़ों के मुताबिक तत्कालीन शीला सरकार ने जहां आवंटित बजट का औसतन 98 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया, वहीं केजरीवाल सरकार ने शिक्षा के लिए आवंटित बजट का 2014-15 में 62 प्रतिशत, 2015-16 में 57 प्रतिशत, 2016-17 में 79 प्रतिशत ही खर्च किया। कुछ यही हाल बीते दो वर्षों में भी देखने को मिला है। अभिषेक के मुताबिक, दिल्ली का शिक्षा बजट भले तीन गुना हो गया हो, लेकिन सच्चाई है कि यह राज्य के कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद का 2 फीसदी भी नहीं है। वर्ष 2018-19 में शिक्षा के लिए आवंटित बजट को ही मानें तो शिक्षा पर जीएसडीपी का मात्र 1.70 फीसदी ही खर्च हो रहा है। अभिषेक के ही मुताबिक, आप सरकार ने 12 वीं की परीक्षा के नतीजों का हवाला देते हुए दावा किया कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने पहली बार निजी स्कूलों को पछाड़ दिया। लेकिन 10वीं के परीक्षा परिणामों पर कोई दावा नहीं है, क्योंकि दसवीं के नतीजों के संदर्भ में दिल्ली के स्कूलों का परिणाम 2006-07 के अपने सबसे निचले स्तर 77.12 प्रतिशत से भी नीचे है।  लेकिन दिल्ली सरकार ने बदलाव लाने का जमकर प्रचार किया और वह जीत पाने में कामयाब रही। केजरीवाल सरकार ने वादा किया था कि वह पांच सौ नए स्कूल और पचास नए कॉलेज खोलेगी, पांच हजार डीटीसी की बसें लाएगी, लेकिन इन मोर्चों पर वह फेल रही। डीटीसी की बसें उलटे और घट ही गईं। इसी तरह मोहल्ला क्लीनिक को भी आम आदमी की सरकार ने जमकर उछाला।

केजरीवाल सरकार ने अत्याचार भी कम नहीं किए। दिल्ली के मुख्य सचिव रहे अंशु प्रकाश को घर बुलाकर अमानतुल्लाह खान के हाथों पिटवाया। लेकिन दिल्ली की जनता सबकुछ भूल गई। बिजली-पानी के बिल के साथ ही शिक्षा-स्वास्थ्य के प्रचार अभियान में डूब गई और एक बार फिर केजरीवाल को दिल्ली सौंप दी।

केजरीवाल के पुराने साथियों प्रशांत भूषण, आनंद कुमार, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास अपमानित होकर आम आदमी पार्टी से बाहर निकले थे। लेकिन इनमें से सिर्फ कुमार विश्वास ने चुनाव के दिन इशारों में हमला किया। केजरीवाल ने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर उठे विवाद का भी फायदा उठाया। शाहीनबाग में शुरू हुए धरने का साथ दिया, हालांकि उससे रणनीतिक दूरी भी बनाए रखी। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए हमले को लेकर भी केंद्र सरकार पर सवाल उठाया। दिलचस्प यह है कि जब उन पर मुस्लिम ध्रुवीकरण का आरोप लगा तो हनुमान चालीसा भी गा दिया और जब जीत मिली तो कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर की यात्रा की। उनका साथ मनीष सिसोदिया ने भी दिया।

केजरीवाल ने एक तरह से हिंदुत्व को भी कब्जा लिया और मुस्लिम ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा दिया। जीत के बाद वंदेमातरम और भारत माता की जीत का ऐलान हो या फिर हनुमान मंदिर की यात्रा हो, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को हिंदुत्व का फायदा भी नहीं लेने दिया और मुसलमानों का साथ भी लिया। उनके ही बाहुबली विधायक अमानतुल्लाह खान ने नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ जामिया इलाके में पहला विरोध प्रदर्शन किया, जो हिंसक हुआ। इसके बाद यह प्रदर्शन जामिया पहुंचा और जामिया के उग्र छात्रों पर जब पुलिस कार्रवाई हुई तो देश को बांटने वाले तबके ने इसे मौके के तौर पर लिया। मोदी सरकार के विरोध में शाहीन बाग का धरना शुरू हुआ। दिलचस्प यह है कि संविधान बचाने के नाम पर हो रहे धरने को अब उठाने की मांग हो रही है। कहा जा रहा है कि महिलाओं को अपने बच्चों की परीक्षा के लिए धरने से उठ जाना चाहिए। हालांकि यह मांग 11 फरवरी को आए चुनाव नतीजों के बाद उठी।

केजरीवाल ने जिस तरह बहुसंख्यकवाद की राह चुनी है, हनुमान चालीसा गाना शुरू किया है, उससे फरवरी 2011 की रामलीला मैदान की वह बैठक याद आ जाती है, जिसे भ्रष्टाचार विरोध के बहाने आयोजित किया गया था। उस मंच पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन राव भागवत, भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य, मशहूर पत्रकार वेदप्रताप वैदिक, प्रधानमंत्री के मौजूदा प्रमुख राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे थे। उस मंच पर अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को पिछली पंक्ति में जगह मिली थी। यानी कह सकते हैं कि केजरीवाल अपने शुरूआती दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाया भी हासिल कर चुके हैं। तो क्या तब के हासिल गुरू मंत्र से वे भारतीय जनता पार्टी के आधार वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में हैं? इसका जवाब तो वक्त के साथ मिलेगा, लेकिन एक बात तय है कि दिल्ली विधानसभा के 2020 के चुनाव में जिस तरह मुस्लिम वर्ग ने उनका साथ दिया है, उनके बदले रूप में उनके साथ शायद ही नजर आए।

 

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दिल्ली में मेरी नजरों में बीजेपी की हार के कारण

बगैर दूल्हे की बारात

बीजेपी पिछले 5 सालों में मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं बना सकी ना ही किसी स्थानीय नेतृत्व को उभरने दिया। याद रखिए हर चुनाव सिर्फ मोदी और अमित शाह के चेहरे के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता।

कार्यकर्ताओं की भारी अनदेखी

आम आदमी पार्टी का हर कार्यकर्ता उनकी सिस्टम का एक हिस्सा है। केजरीवाल ने लगभग सभी कार्यकर्ताओं को उनकी क्षमता के आधार पर पूरे इकोसिस्टम में कहीं ना कहीं सेट कर दिया है।  और जो कार्यकर्ता कहीं नहीं सेट हो पाते तब केजरीवाल बीच-बीच में ऑड इवन लागू करके उन्हें वालंटियर बनाकर उन्हें सरकारी खजाने से भुगतान कर देते हैं।

आम आदमी पार्टी के कई सौ कार्यकर्ताओं ने अपने घरों में मोहल्ला क्लीनिक खोलकर भाड़े की खूब कमाई की है। जिस मकान का भाड़ा 10000 रू है, वही मकान का दिल्ली सरकार 25000 रू भाड़ा दे रही है।

वहीं बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं को सूफियाना, आदर्शवादी और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें बोलकर कहती है कि तुम हवा पानी पीकर हमारे लिए काम करते रहो।

इतना ही नहीं दिल्ली डायलॉग कमीशन में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को 40000 से लेकर डेढ़ लाख रुपए तक की सैलरी दी जाती है। मत भूलिए कि कार्यकर्ता खुद भी सिस्टम का एक हिस्सा बनना चाहता है। अफसोस बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं को कभी सिस्टम का हिस्सा नहीं मानती।

बीजेपी के नेताओं का  दिल्ली की जनता से दूर रहना

दिल्ली के सभी बीजेपी नेता दिल्ली की आम जनता से बहुत दूर जा चुके हैं। कोई भी अब जमीन पर उतर कर जनता के बीच में जाकर काम नहीं करना चाहता। बल्कि सब सत्ता की मलाई चाटना चाहते हैं।

केजरीवाल द्वारा हर एक कार्यकर्ता को उचित सम्मान दिया जाना

अरविंद केजरीवाल कि एक अच्छी बात यह है कि वह अपने हर कार्यकर्ता के सुख दुख में शामिल होते हैं। वह कई कार्यकर्ताओं के घर शादियों में भी जाते हैं यदि किसी कार्यकर्ताओं के घर निधन होता है तब वहां भी जाते हैं। इस वजह से उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की एक ऐसी निष्ठावान फौज तैयार कर ली है जिसे तोड़ पाना अब बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल है। क्योंकि बीजेपी के नेता पिछले कुछ सालों में सत्ता का स्वाद मिलने के बाद बहुत घमंडी हो चुके हैं।

केजरीवाल द्वारा सभी स्कीम में कोई भी जातिभेद ना लागू करना

बीजेपी की केंद्र सरकार हो या बीजेपी की कोई भी राज्य सरकार हो जब भी कोई स्कीम लागू करती है तब वह उसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग इत्यादि का कोटा लगा देती है। जबकि सबको पता है कि बीजेपी के कोर वोटर वह लोग हैं जिन्हें बीजेपी कभी कोई स्कीम का फायदा नहीं देती।

केजरीवाल ने इसी कमजोरी का फायदा उठाया और दिल्ली में उन्होंने जितनी भी स्कीमें लांच की उन्हें आरक्षण से दूर रखा।

मेट्रो और डीटीसी में महिलाओं के लिए फ्री यात्रा की तो सभी वर्ग की महिलाओं के लिए फ्री हुई।  मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी में भी उन्होंने कोई आरक्षण सिस्टम नहीं लागू किया।

अपने वोटर का पूरा ख्याल रखना

केजरीवाल को यह पता है कि दिल्ली के मुस्लिम वोटर अब आम आदमी पार्टी के कोर वोटर बन चुके हैं, इसलिए उन्होंने मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए बहुत सी योजनाएं लागू की जैसे हर मस्जिद के मुयज्जिम  यानी जो अजान पढ़ता है, उन्हें सरकारी खजाने से 18000 रू सैलरी देना। मुस्लिम लड़कियों के लिए कई योजनाएं लागू करना और हर मस्जिद में सरकारी खजाने से साफ-सफाई और रंग रोशन करने के लिए पैसा देना।

इतना ही नहीं दिल्ली वक्फ बोर्ड  पूरे भारत में मुस्लिमों के साथ खड़ा रहा चाहे वह बाइक चोर तबरेज अंसारी को दिल्ली वक्फ बोर्ड के खजाने से 20 लाख  देना हो या फिर राजस्थान के पहलू खान को दिल्ली के सरकारी खजाने से 20 लाख देना हो, केजरीवाल ने अपने मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

जबकि बीजेपी को यह पता है कि उसके कोर वोटर कौन हैं  लेकिन वह उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है।

जनता के लोभ का दोहन करने के लिए उसे दुर्बल बनाए रखना चाहते हैं राजनीतिक दल

भारतीय उपमहाद्वीप के लोग मूलत: भय और लोभ से ग्रस्त लोग होते हैं। पिछले 1000 साल के इतिहास से स्पष्ट है कि यहां के लोगों ने एक तरफ जहां अपने भय के कारण बड़ी संख्या में इस्लाम को अपना लिया, वहीं दूसरी तरफ अपने लोभ के कारण बड़ी संख्या में ईसाइयत को अपना लिया। अपने लोभी और डरपोक लोगों की वजह से ही इसे 1000 साल तक आक्रमणकारियों और साम्राज्यवादियों की गुलामी सहनी पड़ी।

राजनीतिक दल इस सच्चाई को बखूबी जानते हैं, इसलिए अमूमन हर चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा जनता को  लालची मानकर पैसे और शराब बांटे जाने की घटनाएं बड़े पैमाने पर होती हैं। जो दल सत्ता में होते हैं, उनके पास सुविधा होती है कि वे लोगों को पैसे और शराब के अलावा भी अनेक चीज़ें और सुविधाएं मुफ़्त में बांट सकते हैं।

मौलिक तौर पर लोभी जनता को और मुफ्तखोर बनाने के इस खेल में सभी नंगे हैं। कोई लैपटॉप बांटता है, कोई टीवी बांटता है, कोई कपड़े बांटता है, कोई साइकिल बांटता है, कोई ऐसी व्यवस्था दे देता है कि खटिया पर लेटे-लेटे दारू और ताड़ी के नशे में चूर आदमी को 100 दिन की मजदूरी और कमीशनखोर को कमीशन मिल जाए, कोई मुफ़्त बिजली पानी का वादा करता है, तो कोई स्वच्छता के नाम पर लोगों को शौचालय बनवाने के भी पैसे देता है। इन सारी योजनाओं के अपने-अपने फायदे भी होंगे, मैं इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं करता, लेकिन राजनीतिक दलों की मंशा लोगों के लालच को वोटों में तब्दील करने भर की होती है। लोगों को सुदृढ़ बनाना किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के एजेंडे पर नहीं है।

ध्यान दें कि आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं वेश्यावृत्ति और पुरूष उनकी दलाली कर रहे हैं और धीरे धीरे यह कारोबार और फैलता ही जा रहा है। सामाजिक तौर पर इसे गलत मानते हुए भी अनेक लोग इसे धन और रोजगार प्राप्त करने का एक मज़बूत मॉडल समझ रहे हैं! इसी तरह, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या स्त्री, क्या पुरूष आज भी बड़ी संख्या में इस देश में भीख मांग रहे हैं। बड़े बड़े गिरोह इस धंधे का संचालन करते हैं, लेकिन कभी कोई गिरोह पकड़ा नहीं जाता, किसी को सज़ा होना तो दूर की बात है। ये दोनों उदाहरण मैंने इसलिए दिए कि अगर आपको किसी भी समाज की दुर्बलता नापनी हो तो सबसे पहले यह देखिए कि कितने लोग देह बेचकर और कितने लोग भीख मांगकर जी रहे हैं।

साफ है कि राजनीतिक दल और सरकारें भी चाहती हैं कि चाहे वेश्यावृत्ति या दलाली करके कमाओ या भीख मांगकर खाओ, हमें कोई मतलब नहीं। जब ज़रूरत महसूस होगी तो वोटों के बदले कोई भीख हम भी तुम्हें दे देंगे। और आम जनता ही क्यों, सांसद, विधायक, मंत्री भी मुफ्त में ढेर सारी सुविधाएं लेते हैं, फिजूलखर्ची करते हैं, सुविधाओं का दुरुपयोग करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की कभी आत्मग्लानि तक नहीं होती कि जिस पैसे पर वो अय्याशी कर रहे हैं, वह किसी और के खून पसीने की कमाई है।

मुफ़्त के लिए भारत के लोग किस तरह रातों रात बदल जाते हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण मैंने अपने बिहार में देखा। किसी के घर की कोई लड़की साइकिल चलाती हुई दिख जाती थी, तो लड़के फब्तियां कसते थे, समाज चिंतित हो जाता था कि कैसा कलियुग आ गया है, मां-बाप को शर्मिंदा किया जाता था। लेकिन जैसे ही नीतीश कुमार ने 11वीं और 12वीं की लड़कियों को फ्री में साइकिल देने का ऐलान किया, रातों रात सबकी सोच बदल गई। उस दिन से आज तक किसी ने लड़कियों के साइकिल चलाने को घोर कलियुग नहीं माना। निश्चित रूप से यह नीतीश सरकार का एक क्रांतिकारी कदम था, लेकिन समाज किस तरह मुफ़्त लेकर पलटी मारता है और रातों-रात किस तरह से उसकी सोच भी बदल जाती है, यह इस बात का जीता जागता प्रमाण है।

इसे ठीक से समझना होगा। सभी तरह के मुफ्त पर मेरी टिप्पणी नहीं है। किसी भूखे को एक दिन रोटी दे देना मानवता है, लेकिन हर दिन रोटी देते रहना उसे भिखमंगा और कामचोर बनाना है। स्कूल में मुफ्त शिक्षा देना किसी लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार का दायित्व होना चाहिए, लेकिन स्कूल में खाना खिलाने लगना बच्चों के हाथों में कटोरा थमा देना है। सरकार की इस गलत नीति के कारण देश भर के सरकारी स्कूलों का स्तर दयनीय रूप से गिर चुका है और मजदूरों और बेरोजग़ारों को छोड़कर ज़्यादातर लोगों ने अपने बच्चे सरकारी स्कूलों से निकाल लिए हैं। जिस देश में कृष्ण और सुदामा के साथ पढऩे की कहानियां हैं, वहां शिक्षा के इतने सारे लेयर्स बन गए हैं कि समाज में भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाने का खतरा पैदा हो गया है।

सरकार कहती है कि 81 करोड़ लोगों को जनवितरण प्रणाली से सस्ता अनाज दे रही है। लेकिन गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या इसकी महज एक तिहाई बताती है। मेरा कहना है कि या तो मान लीजिए कि देश में 81 करोड़ लोग गरीब हैं या फिर जब इतने लोग गरीब हैं ही नहीं, तो गरीबी रेखा की परिभाषा ठीक कीजिए और गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को सब्सिडी देना बंद कीजिए। और अगर इन दोनों में से कोई एक काम नहीं कर सकते तो साफ साफ बता दीजिए कि जनवितरण के नाम पर एक निरंतर घोटाला चल रहा है, जिसमें सबकी मिलीभगत है।

मैं मानता हूं कि केवल दो चीजें- शिक्षा और स्वास्थ्य- हमेशा-हमेशा के लिए मुफ़्त होनी चाहिए। अन्य सभी चीजें आवश्यकतानुसार सब्सिडाइज्ड हो सकती हैं, और नागरिकों को इनके लिए सरकार पर निर्भर नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन आप देखिए कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र आज काफी हद तक माफिया के चंगुल में हैं और ये माफिया या तो विभिन्न राजनीतिक दलों से ही जुड़े हैं या उनके ही संरक्षण में पल-बढ़ रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज को सबल बनाए जाने की ज़रूरत है, लेकिन जब इरादा ही सबलीकरण का नहीं, दुर्बलीकरण का हो, ताकि नागरिक राजनीतिक दलों और सरकारों के रहमोकरम पर रहें, तो क्या किया जाए?

माफ कीजिए, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि बच्चे हम और आप पैदा करें, लेकिन उन्हें खिलाने-पिलाने, कपड़ा-लत्ता, साइकिल-लैपटॉप, टीवी-मोबाइल, घर-शौचालय देने की जि़म्मेदारी सरकार की हो।

  1. अनाज फ्री में नहीं होना चाहिए। सब्सिडाइज्ड अनाज केवल गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को मिलना चाहिए, इस योजना के साथ कि एक निश्चित टाइम फ्रेम में गरीबी खत्म कर दी जाएगी। स्कूल में सरकार को खाना नहीं देना चाहिए।
  2. केवल पीने का पानी सबके लिए मुफ़्त होना चाहिए, अन्य पानी नहीं।
  3. बिजली किसी के लिए मुफ़्त नहीं होनी चाहिए, बल्कि उचित मूल्य पर मिलनी चाहिए।
  4. सड़क पर चलने के पैसे किसी को नहीं लगने चाहिए।
  5. सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में पढऩे और अस्पतालों में इलाज कराने के पैसे किसी को नहीं लगने चाहिए।
  6. टीवी, लैपटॉप, मोबाइल किसी को मुफ्त नहीं मिलना चाहिए।
  7. लोगों को घर और शौचालय बनाने के लिए पैसे देने के बजाय जनसंख्या नियंत्रण पर ज़ोर देना चाहिए और नियंत्रित जनसंख्या के लिए रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए।

मेरा कहना है कि सरकारें राम से टैक्स लेकर श्याम के बच्चे नहीं पाल सकतीं। न ही राम से मिले टैक्स के भरोसे श्याम को बच्चे पैदा करने चाहिए। इसलिए, मुफ्त और सब्सिडी की सूची विशुद्ध रूप से तार्किक और मानवीय आधार पर, बनाई जानी चाहिए, वह भी केवल उतने समय के लिए, जितने समय के लिए वास्तव में उसकी ज़रूरत है। अगर यह वोट बैंक की राजनीति द्वारा वोटरों को ललचाने के हथियार के तौर पर निर्मित और संचालित होगी, तो देश सही दिशा में नहीं बढ़ पाएगा।

अंत में, मुफ़्त की इस सियासत पर लगाम लगाने के लिए वोट बैंक की राजनीति छोड़ते हुए इन चार चीजों पर फोकस किया जाना बेहद जरूरी है-

  1. जनसंख्या नियंत्रण
  2. महंगाई पर नियंत्रण
  3. बेरोजगारी पर नियंत्रण
  4. कम्युनिटी संचालित बुनियादी सुविधा ढांचे का विकास

लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के पास इन 4 प्राथमिकताओं पर काम करने का कोई ठोस मॉडल है।

डिस्क्लेमर- मेरा यह लेख देश की पूरी राजनीतिक संस्कृति पर टिप्पणी है। इसे किसी एक पार्टी की चुनावी जीत से जोड़कर न देखा जाए।

-अभिरंजन कुमार

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