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सड़कों पे दौड़ते बदहवास लोग

1894 में स्पैनिश फ्लू से भारत में लगभग 2 करोड़ लोग मारे थे जबकि उस वक्त भारत की आबादी 20 करोड़ थी। कोरोना का असर कब तक, कितना घातक और किस किस इलाके में होगा उसका अभी कोई आँकलन नहीं है। कारण यह है कि जब से चीन में कोरोना फैला है तब से दुनिया भर से लगभग 15 लाख लोग भारत आ चुके हैं और ये पूरे भारत में फैल गए हैं। इनमें से कितने लोग कोरोना के पॉजिटिव हैं कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता। क्योंकि कोरोना के परीक्षण करने की बहुत सीमित सुविधाएँ देश में उपलब्ध हैं। ऐसे में विभिन्न देशों के अलग अलग विशेषज्ञों द्वारा भारत में कोरोना के सम्भावित असर पर अनेकों तरह की भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। जो झकझोरने और आतंकित करने वाली हैं।

इन सब विशेषज्ञों का मानना है कि भारत बहुसंख्यक गरीब आबादी जिसके लिए सामाजिक दूरी बना कर रहना असम्भव है, अगर वो इस बीमारी की चपेट में आ गई तो इस भयावक स्तिथि पर काबू पाना दुष्कर हो जाएगा। जब मेडिकल सुविधाओं में दुनिया का अग्रणी देश इटली कोरोना के कहर के आगे लाचार हो गया तो भारत जैसे देश की क्या बिसात है?

वहीं ज्योतिषों का नक्षत्रों के अध्ययन के आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि 14 अप्रेल के बाद कोरोना के कहर से स्वतः ही मुक्ति मिल जाएगी। यहाँ यह दर्ज करना उल्लेखनीय है कि ऐसा कोई दावा वैज्ञानिकों द्वारा नहीं किया जा रहा, जब तक कि कोरोना को भगाने का वैक्सिन सहजता से सब के लिए उपलब्ध न हो।

ऐसे में ‘लाक्डाउन’ ही सबसे कारगर तरीका हो सकता था और वही प्रधान मंत्री मोदी जी ने देश भर में लागू किया। जहां ‘लाक्डाउन’ के फायदे हैं वहाँ इसका जो दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है उससे उबरने में लम्बा समय लगेगा। इस ‘लाक्डाउन’ में उन लोगों को पर तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव है जिनके पास घर बैठ कर परिवार के पालन पोषण के लिए समुचित संसाधन हैं। उनकी समस्या तो फिलहाल केवल समय काटने की है या फिर उन्हें भविष्य की चिंता है।

पर ‘लाक्डाउन’ का सबसे ज्यादा असर आम आदमी पर पड़ा है। जो रोजगार की तलाश में अपने गाँव और जंगल छोड़ कर करोड़ों की तादाद में शहरों की गंदी बस्तियों में दिहाड़ी मजदूर की तरह रह रहा है। इनके पास न तो पेट भरने को पैसे हैं और न तो घर लौटने को साधन। मजबूरी में ऐसे हजारों लोग कई दिन भूखे रह कर, अपनी पोटली सिर पर लाद कर, अपने गाँवों के लिए सपरिवार पैदल ही निकल पड़े हैं।

पर महानगरों से कई सौ मील दूर बसे अपने गाँव पहुँचने के लिए इनके पास न तो शरीर में ताकत है न ऊर्जा। इस भीड़ में बदहवास महिलाएँ और बच्चे भी हैं। इस महापलायन के हृदयविदारक चित्रों को देख कर कलेजा मुँह को आ जाता है। ज्यादा सम्भावना इस बात की है कि ये बेचारे कहीं रास्ते में ही दम न तोड़ दें। इनके लिए सरकार को व्यापक प्रबंध करने चाहिए। फौज के ट्रक इन्हें इनके गंतव्य तक पहुँचा सकते हैं।

केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे लोगों की मदद के लिए अनेक कदम उठा रही हैं। पर हम जानते हैं जब कहीं प्राकृतिक विपदा जैसे बाढ़ या भूचाल आती है, तो राहत का ज्यादातर पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। गरीब तक तो पहुँचता ही नहीं।

दरअसल इन लोगों की ये समस्या आज नई पैदा नहीं हुई है। इसकी जड़ में है भारत के आर्थिक विकास का वो मॉडल जिसे आजादी के बाद लागू किया गया। यह सही है कि इस मॉडल ने भारत में आधारभूत ढाँचा खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई। परंतु इस दौड़ में गांधी जी का ग्राम स्वराज का मॉडल बहुत पीछे छूट गया।

जबकि उस मॉडल के अनुसार भारत के 5.5 लाख गाँवों को हर मामले में आत्मनिर्भर बनाना था। जैसे वे 200 साल की अंग्रेजी हुकूमत के पहले हुआ करते थे। पर यह नहीं हुआ। सारा जोर उद्योगिकरण पर और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर दिया गया। जिसके कारण गाँवों में बेरोजगारी की समस्या तेजी से बढ़ती गई। रोजगार की तलाश में मजबूरन करोड़ों लोगों को अपने गाँवों से निकल कर शहर की गंदी बस्तियों में आ कर बसना पड़ा। जहां का जीवन तब भी नारकीय था और आज भी है।

अगर गाँवो में रोजगार मिल जाते तो बहुत कम संसाधनों में लोग बिना सरकार पर बोझ बने रहते। गाँवों में शुद्ध हवा पानी व भोजन पा कर ये स्वस्थ और सुखी होते। तब न तो इन्हें नोटबंदी की मार पड़ती, न नारकीय बस्तियों में रहने की मजबूरी होती और न ही कोरोना के कहर में बदहवास होकर पैदल गाँवों की ओर लौटना पड़ता।

चिंता और दुःख की बात तो यह है कि हमारे नीति निर्माता आज भी चमक दमक वाले उसी विकास की ओर दौड़ रहे हैं जो आज बहुसंख्यक भारतीयों की बदहाली का कारण है।

हर देश का समझदार आदमी अपने घर में बंद बैठ कर आज ये महसूस कर रहा है कि हमारी जीवनशैली पृथ्वी के लिए खतरा बन चुकी है। इसमें अब पूरे बदलाव की जरूरत है। ऐसे में भारत के नीति निर्माताओं को गांधी जी की पुस्तक ‘ग्राम स्वराज्य’ को ध्यान से पढ़ कर, मनन करके, उस मॉडल की ओर सक्रिय हो जाना चाहिए। अन्यथा भविष्य में प्रकृति की मार फिर से बहुत भयावह हो सकती है। क्या हमारे हुक्मरान इस विषय पर गम्भीरता से चिंतन करेंगे?

-विनीत नारायण

 

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