पांच राज़्यों के चुनाव अब अंतिम दौर में हैं। विमुद्रिकरण के मोदी सरकार के निर्णय के बाद सरकार की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा की तरह। रह रह के सरकार के समर्थकों में यह आशंका घर कर रही है कि अगर एनडीए को इन चुनावों में मात मिलती है तो क्या सरकार कालेधन के विरुद्ध अपने सबसे बड़े युद्ध को बीच में ही तो नहीं छोड़ देगी। ऐसे में जबकि कालेधन के सभी अपराधी सबूतों सहित सरकार के रडार पर हैं, अगर एनडीए को कोई झटका लगता है तो सरकार की आर्थिक मोर्चे पर बड़ी नीतिगत पहलों को भी झटका लगना तय है। बड़े कर सुधारों वाले जीएसटी विधेयक को क़ानूनी दर्जा देने की अंतिम लड़ाई संसद में लड़ी जानी है, तो बैंकिंग क्षेत्र में भी बड़े सुधार अपेक्षित हैं और मोदी समर्थकों को सरकार से उम्मीद है कि पांच राज़्यों के चुनावों में बढ़त लेकर वो राज्यसभा में भी बहुमत स्थापित कर लेंगे और फिर राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के चुनावों में अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए एनडीए के पास जरूरी बहुमत हो जाएगा। उससे भी बड़ी बात धारा 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर जैसे मुद्दे या फिर तीन तलाक पर कानून बनाने की बात सब पर सरकार की दिशा विधानसभा चुनावों के नतीज़ों से ही तय होनी है।
ये चुनाव जहां सत्ता पक्ष के लिए बड़ा सिरदर्द बन गए हैं वहीं विपक्ष से कौन नेता उभरकर नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकता है, इसका निर्णय भी करेंगे। राहुल, मायावती, अखिलेश, सुखबिंदर सिंह बादल, हरीश रावत और केजरीवाल सबका राजनीतिक भविष्य दांव पर है वहीं मोदी-शाह के वर्चस्व का भविष्य भी यह चुनाव तय करेगा। वैसे जिस प्रकार उड़ीसा, महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज़्यों के स्थानीय निकायों के चुनावों के नतीजे भाजपा के पक्ष में आ रहे हैं, उससे लगता नहीं कि मोदी को बड़ी चुनौती मिलने जा रही है। अनुमान है कि गोवा और उत्तराखंड में भाजपा की सरकार बन रही है और पंजाब में त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है और उत्तर प्रदेश में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर रही है। बहुत संभावना है कि पूर्ण बहुमत भी प्राप्त कर ले। मणिपुर में भाजपा के पास कुछ भी खोने को नहीं किंतु वहां भी उसको फायदा होना तय है। ऐसे में अगर अधिक सफलता न मिली तो मुश्किल विपक्ष के लिए ज्यादा खड़ी हो सकती। न तो उसके पास विश्वसनीयता बचेगी, न मुद्दे और न ही आत्मविश्वास। ऐसे में मोदी की रॉबिनहुड वाली छवि पर जनता की मुहर लग जाएगी और मोदी बहुत आक्रामक हो जायेंगे, साथ ही सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए लगभग अपराजेय से भी।
दोनों ही स्थितियों में कुल मिलाकर जनता के लिए यह जरूरी है कि निकट भविष्य में सरकार ने जिन एजेंडों यानि कालेधन के विरुद्ध लड़ाई, पारदर्शिता, नौकरशाही पर नियंत्रण, लोकलुभावन बजट और योजनाओं से किनारा, विकेन्द्रित विकास, स्वदेशी, चुनाव सुधार, भारतीय संस्कृति के पोषण व संवर्धन और शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि के क्षेत्र में जो जनहितकारी नीतियां अपनायी हैं, उनकी गति पर कोई फर्क न पड़े। इसके लिए मात्र वोट डालना ही जरूरी नहीं है वरन इन मुद्दों के प्रति हम सभी को अपना समर्थन और रुझान के साथ ही निरंतर सरकार और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाए रखना भी उतना ही आवश्यक है। अन्यथा इस बार के चुनावों में जिस प्रकार घटिया भाषा, भद्दे जुमलों, जाति, धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण और विमुद्रिकरण के बाद भी धन, बल और शराब का प्रयोग किया गया है, उसको रोकना भगवान के वश की बात भी नहीं होगी। लोकतंत्र के इस क्षरण के भुक्तभोगी हम ही होंगे और अपनी अगली पीढ़ी के अंधकारमय भविष्य के भी।
अनुज अग्रवाल
संपादक