सच में फिर से वही हो रहा है, जिसकी आशंका थी। जैसी ही सीबीएसई के 10 वीं और 12 वीं कक्षा के नतीजे आए, बस उसी समय अनेक ज्ञानी लोग मैदान में कूद गए। ये ही वे प्रकांड ज्ञानी हैं जो हर बार की तरह अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों की उपलब्धियों को कम करके आंक रहे हैं और उन विद्यार्थियों को सांत्वना दे रहे हैं जिनके अपेक्षाकृत खराब अंक आए हैं।
ये अधिक अंक लेने वालों की मेहनत और निष्ठा पर लगभग पानी फेरते हुए यह कह रहे हैं कि यह कैसे हो सकता है कि किसी के 98 या 99 फीसद तक अंक आ जाएं? यह सब कहते- हुए ये इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि इन परीक्षाओं के परिणामों में हजारों बच्चे तो फेल भी हुए हैं। सैकड़ों के 40-50 पर्सेट तक ही अंक आए हैं। क्या आप यकीन करेंगे कि कुछ कथित ज्ञानी तो यहां तक रहे हैं कि जिनके बेहतर अंक आए हैं उनमें से बहुत से आईआईटी, मेडिकल या फिर आईआईएम में जायेंगे, पर कोई भी न तो कोरोना की दवाई बनायेगा और न ही बेरोजगारी मिटाने का अर्थशास्त्र का कोई फार्मूला ढूँढेगा। ये बस या तो कॉरोपोरेट में मोटी तनख्वाह पर चाकरी करेंगे या फिर अपना प्राइवेट क्लिनिक खोलकर डाक्टरी का बिजनेस चमका कर पैसे कमायेंगें ।
समझ नहीं आता कि इनमें इतनी नकारात्मकता कहां से आती है? क्या कॉरोपोरेट में अच्छी नौकरी प्राप्त करना या अपना क्लिनिक खोलना अपराध की श्रेणी में माना जाएगा ? भारत के लाखों युवक-युवतियां कॉरोपोरेट जगत में नौकरियां कर रहे हैं। ये हर साल देश को खरबों रुपया टैक्स भी देते हैं। क्या ये कोई बुरा काम कर रहे हैं?
यह तो कोई नहीं कह रहा है कि कम अंक लेने या परीक्षा में फेल होने का मतलब है जीवन का अंत। यह कतई नहीं। आपको जीवन अपार संभावनाएँ देता है। आपके सामने नए-नए विकल्प खुलते रहते हैं। इसलिए कम अंक लाना भी तो कतई अपराध नहीं है। हाँ, जीवन में सुधार की संभावनाएं तो बनी ही रहती हैं I सुधार कीजिए और आप भी बेहतर प्रदर्शन कीजिए I आपको रोकता कौन है ?
इसलिए परीक्षा में आए कम अँक
किसी परीक्षा में बिना तैयारी या कम तैयारी के जाना भी तो सही नहीं है। इसलिए जिनके कम अंक हैं उन्होंने अपनी परीक्षाओं की जरूरी तैयारी नहीं की। कम तैयारी के लिए प्यार से आगे के लिये सुधार की चेतावनी देना उचित है I पर शाबाशी देना तो उनके जीवन को बर्बाद कर देगा I यह शीशे की तरह साफ है। अब उनकी आंखें खुल जानी चाहिए। उन्हें कम अंक लेने के कारण बेहतर कॉलेजों में मनपसंद कोर्स नहीं मिलेगा या भारी दिक्कत होगी।
पर जो स्वयंभू ज्ञानी यह मानते हैं कि अधिक अंक लेना कोई खास उपलब्धि ही नहीं है उनकी सोच पर ही तरस आता है। क्या ये लोग चाहेंगे कि इनके अपने परिवार के बच्चे भी कम ही अंक लाते रहें और सड़कों पर धक्के खाते रहें? क्या ये नहीं चाहते कि इनके परिवार या मित्रों के बच्चे टॉपर बने? किसी को ज्ञान बांटना तो बहुत आसान है। कई लोग ये ही कहते हैं कि भगत सिंह पैदा नहीं हो रहे I लेकिन, वे मेरे घर में नहीं पड़ोसी के घर में ही पैदा हो?
यह बात तो सही है कि हर बच्चा विलक्षण होता है। लेकिन, उसकी विलक्षणता को उभारना चाहिये और कमजोरियों को कम करने का प्रयास जारी रहनी चाहियेI इस प्रक्रिया को उलटकर तो मात्र असफलता ही तो हाथ लगेगी I समाज और परिवार को उसकी विलक्षणता को सही ढंग से पहचाना और विकसित करने में मदद करनी होगी । इसलिए जो इस परीक्षा में कम अंक से उत्तीर्ण हुए या उत्तीर्ण नहीं हो सके उन्हें खुद को कमतर मानने की जरूरत तो नहीं है। लेकिन, उन बच्चों को भी अपनी विलक्षणता को पहचान कर उसे निखारने में उनके अभिभावकों को मदद करनी चाहिए।
अहम रोल अध्यापकों और अभिभावकों का
एक बात याद रखने की जरूरत है कि अच्छे अंक या किसी परीक्षा में सफल होने के लिए तनाव रहित कड़ी मेहनत की दरकार होती है। हवा-हवाई बातों से आप आगे नहीं बढ़ सकते। हालांकि मुझे यह भी कहने दें कि जो बच्चे बुलंदियों को छूते हैं, उनमें उनके अध्यापकों और अभिभावकों का भी बड़ा रोल होता है। यह कैसे होता कि एक स्कूल में अधिकतर बच्चें विज्ञान, आर्ट्स और कॉमर्स में 90 फीसद से अधिक अंक लेकर सफल होते हैं। दूसरी तरफ बहुत से स्कूलों में नतीजे इसके ठीक विपरीत आते हैं। दिल्ली, पटना, लखनऊ, रांची, देहरादून समेत कुछ शहरों के स्कूलों के बारे में दावे के साथ कह सकता हूं कि वहां के नतीजे श्रेष्ठ आएँगे। यह दावा इसलिए करता हूं क्योंकि उनमें श्रेष्ठ प्रधानाचार्य और समर्पित अध्यापकों की भऱमार है। मैं भी देहरादून के एक ऐसे ही विद्यालय का अध्यक्ष हूँ I हमारी एक बच्ची ने कॉमर्स जैसे विषय में 500 में से 497 अंक प्राप्त किये यानि साढ़े निन्यानबे प्रतिशत से भी ज्यादा I वहीँ लगभग दर्जन भर विद्यार्थियों ने 90 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त किये I फिर भी, कम अंक लाने वाले विद्यार्थियों की वजह से पूरे विद्यालय का औसत 83 प्रतिशत ही रहा I पढाई तो एक जैसी ही हुई I फिर फरक कैसे आ गया I विचार करके देखिये तो उत्तर स्वयं मिल जायेगा I
जहां पर विद्यार्थियों के खराब अंक या नतीजें आए हैं, वहां के अध्यापकों को भी अपनी गिरेबान में झांकना होगा। क्या वे अपने विद्यार्थियों को बेहतर तरीके से पढ़ा पा रहे हैं। सरकार उन अध्यापकों को अलग से पुरस्कृत और सम्मानित करे जिनके विद्यार्थियों ने श्रेष्ठ प्रदर्शन किया। इसी तरह से उन अध्यापकों की क्लास भी ली जाए जिनके बच्चे कायदे के नतीजे नहीं दे सके।
इस बीच, यूपी बोर्ड में हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के परिणाम भी आ गए। इनका एक पक्ष सच में बेहद गंभीर हैं। यूपी बोर्ड की परीक्षा में इस वर्ष आठ लाख परीक्षार्थी हिन्दी विषय में ही फेल हो गए। मुख्य हिन्दी भाषी प्रदेश की नई पीढ़ी क्यों हिन्दी से इतना दूर होती जा रही है? उन काऱणों पर विस्तार से गौर करना होगा जिनके चलते उत्तर प्रदेश में लाखों बच्चे हिन्दी में ही फेल हो रहे हैं। इतने खराब नतीजों के लिए अब यह कहा जा रहा है कि यूपी का हिन्दी पाठ्यक्रम काफी कठिन है। इसके पाठ्यक्रम में अवधी व ब्रज भाषाओं के कवि, लेखक व उनकी कृतियां हैं। इन्हें समझने में बच्चों को लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। तो फिर इस बारे में वक्त रहते क्यों नहीं सोचा गया। पिछले साल भी उत्तर प्रदेश की 10वीं की हाई स्कूल और 12वीं की इंटर की परीक्षाओं के परिणामों में विद्यार्थियों का हिन्दी का परिणाम निराशाजनक रहा था। तब भी खराब प्रदर्शन के लिए बहुत से कारण गिनाए गए थे। हिन्दी की काशी उत्तर प्रदेश में हिन्दी को लेकर बच्चों का रुझान क्यों घट रहा है ? क्या हिन्दी के शिक्षक अपना काम सही से नहीं कर पा रहे हैं? इन सवालों के उत्तर तलाश करने ही होंगे। यह कहना गलत होगा कि अवधी औ ब्रजभाषा से हिंदी दुरूह हो रही है I यह खड़ी बोली के उन घटिया लेखकों का षड्यंत्र है जो तुलसी और सूरदास की जगह अपनी किताबें लगवाने की लाम्बिंग में लगे रहते हैं I क्या अवधि, ब्रजभाषा समृद्ध करने वाली सहायक भाषायें नहीं हैं ?
बुरा मत मानिए, पर इतना तो कहने दें कि भारत में शिक्षा व्यवस्था के प्रति समाज और सरकारों को और अधिक जागरूक होना होगा। अपने स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में वक्त के साथ बदलाव करने होंगे। विद्यार्थियों में यह जज्बा पैदा करते रहना होगा कि उन्हें सबसे आगे रहना है। आगे ही बढ़ते जाना हैI
आर.के. सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं )