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सच्चर रिपोर्ट के दस साल:- क्या खाक मेहरबान होंगें

आजादी के बाद पिछले करीब सात दशकों के दौरान देश का विकास तो काफी हुआ है लेकिन इसमें सभी तबकों, समूहों की समुचित भागीदारी नही हो सकी है. देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुसलिम समुदाय की दोहरी त्रासदी यह रही कि वह एक तरफ तो विकास की प्रक्रिया में हाशिये पर पहुँचता गया तो दूसरी तरफ असुरक्षा, भेदभाव, संदेह और तुष्टीकरण के आरोपों का भी शिकार रहा. आजादी के करीब 60 सालों बाद मुसलिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिणक स्थिति की पड़ताल करने के लिए जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया. सच्चर समिति ने अपनी रिर्पोट के जरिये मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन सम्बंधी उन सच्चाइयों को आकंड़ों के ठोस बुनियाद पर रेखाकिंत करते हुए उन्हें औपचारिक स्वीकृती दिलाई है जिन पर पहले ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था, साथ ही साथ इस रिर्पोट ने बहुत सारे ऐसे मिथकों, भ्रामक दुष्प्रचारों व तुष्टीकरणी के आरोपों को झूठा साबित किया है जिसे एक बड़ा जनसमूह सच माने बैठा था. सच्चर रिपोर्ट को जारी हुए दस साल बीत चुके हैं, इस बीच देश और सूबों के राजनीतिक पटल पर मुसलमानों के कई ऐसे स्वयंभू राजनीतिक मसीहा उभरे हैं जिन्होंने हालात सुधारनें के वायदे और दावे किये लेकिन अभी भी इस समुदाय का सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और अपने जान-माल की हिफाज़त ही बना हुआ है. सवाल यह है कि उम्मीद जगाने वाले इस रिपोर्ट के जारी होने के दस सालों में क्या मुसलमानों के हालत बदले हैं ? अगर नहीं तो इसके क्या कारण है ?

क्या कहता है सच्चर रिपोर्ट

2005 में देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक दशा जानने के लिए जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. 30 नवंबर, 2006 को जब कमेटी द्वारा तैयार इस बहुचर्चित रिपोर्ट ”भारत के मुस्‍लि‍म समुदाय की सामाजि‍क, आर्थि‍क और शैक्षि‍क स्‍थि‍ति‍” को लोकसभा में पेश किया गया तो संभवत आजाद भारत में यह पहला मौक़ा था जब देश के मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक स्थिति को लेकर किसी सरकारी कमेटी द्वारा तैयार रिपोर्ट संसद में पेश की गई थी. अब यह रिपोर्ट भारत में मुसलमान समुदाय की सामाजिक-आर्थिक हालत की सबसे प्रमाणिक दस्तावेज बन चुकी है जिसका जिक्र भारतीय मुसलामानों से सम्बंधित हर दस्तावेज के सन्दर्भ में अनिवार्य रूप से किया जाता है.

समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह से मुसलमान आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं,सरकारी नौकरियों में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है और बैंक लोन लेने में मुश्किलात का सामना करना पड़ता है, कई मामलों में उनकी स्थिति अनुसूचित जाति-जनजातियों से भी खराब है, फिर वो चाहे शिक्षा, रोजगार का मसला हो या अन्य मानव विकास सूचकांक. रिपोर्ट में बताया गया था कि मुस्लिम समुदाय में साक्षरता की दर भी राष्‍ट्रीय औसत से कम है जहाँ 6 से 14 वर्ष की आयु समूह के एक-चौथाई मुस्लिम बच्‍चे या तो स्कूल नहीं जा पाते या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, 17 वर्ष से अधिक आयु के बच्‍चे के लिए मैट्रिक स्‍तर पर मुस्लिमों की शैक्षणिक उपलब्धि 26 प्रतिशत के राष्‍ट्रीय औसत के मुकाबले 17 प्रतिशत है, केवल 50 प्रतिशत मुस्लिम ही मिडिल स्‍कूल पूरा कर पाते हैं जबकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर 62 प्रतिशत बच्चे माध्‍यमिक शिक्षा पूरा करते हैं, शहरी इलाकों और ग्रामीण अंचलों में केवल 0.8 प्रतिशत और शहरों में 3.1 प्रतिशत ही स्नातक हैं. शहरी इलाकों में तो स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों का प्रतिशत दलित और अनुसूचित जनजाति के बच्चों से भी कम है यहाँ 60 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते हैं. आर्थिक कारणों के चलते समुदाय के बच्चों को बचपन में ही काम या हुनर सीखने में लगा दिया जाता है.

इस रिपोर्ट में बताया गया था कि सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व केवल 4.9 प्रतिशत है, इसमें भी ज़्यादातर वे निचले पदों पर हैं, उच्च प्रशासनिक सेवाओं यानी आईएएस, आईएफएस और आईपीएस जैसी सेवाओं में उनकी भागीदारी सिर्फ़ 3.2 प्रतिशत थी. पुलिस कान्सटेबल में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 6 प्रतिशत, स्वास्थ्य क्षेत्र में 4.4 प्रतिशत, परिवहन क्षेत्र में 6.5 प्रतिशत तथा भारतीय रेल के नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिशत 4.5 थी. बैकिंग सेवा और शिक्षा क्षेत्र में भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में नगण्य पायी गयी थी. राज्यों की बात करें तो पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम जहाँ मुस्लिम आबादी क्रमश: 25.2 प्रतिशत, 18.5 प्रतिशत और 30.9 प्रतिशत थी  वहाँ सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी क्रमश: सिर्फ़ 4.7 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत और 10.9 प्रतिशत पायी गयी थी.

सम्पति और सेवाओं की पहुँच के मामले में भी स्थिति कमजोर पायी गयी थी. सच्चर कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम आबादी के 62.2 प्रतिशत के पास कोई जमीन नहीं है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 43 प्रतिशत है. इसी तरह से सेवाओं की पहुंच को देखा जाए तो 1.9 प्रतिशत मुस्लिम परिवार ही सरकारी अनुदान वाले खाद्य कार्यक्रमों से लाभान्वित होते थे और केवल 3.2 प्रतिशत को ही सब्सिडी वाला लोन मिल पाता था .

इन हालात को देखते हुए सच्चर समिति द्वारा मुस्लिम समुदाय की स्थिति को सुधारने के लिए कई सुझाव भी दिए थे जिनमें से कुछ प्रमुख सुझाव इस तरह से हैं -मुस्‍लि‍म बहुल क्षेत्रों में स्‍कूल,आईटीआई और पॉलि‍टेक्‍नि‍क संस्‍थान खोलना, छात्रवृति‍यां देना, बैंक शाखाएं खोलना, ऋण सुवि‍धा उपलब्‍ध कराना, वक्‍फ संपत्‍ति‍यों आदि‍ का बेहतर इस्‍तेमाल, सामान अवसर आयोग, नेशनल डाटा बैंक और असेसमेंट एंड मॉनि‍टेरी अथॉरि‍टी का गठन आदि.

 

रिपोर्ट दर रिपोर्ट

सच्चर के बाद तो जैसे मुस्लिम विमर्श का दौर सा चल पड़ा, इसी कड़ी में 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट आयी. आयोग की सिफारिश थी कि केंद्र और राज्य सरकार की नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को 15 फीसदी आरक्षण दिया जिसमें 10 फीसदी हिस्सा अकेले मुसलमानों को दिया जाए. इसके बाद 2013 में सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के क्रियान्वयन की हक़ीक़त को जानने के लिए प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अगुवाई में एक कमेटी बनाई गई थी जिसने 2014 में  अपनी रिपोर्ट अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को सौंप दी थी. इसमें पता चला कि इस दौरान मुसलमानों के हालत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. कुंडू कमेटी ने डाइवर्सिटी आयोग बनाने, अत्यंत पिछड़ी मुसलमान जातियों (अजलाफ) को ओबीसी कोटे में और मुस्लिम दलितों (अरजाल) को ओबीसी से एससी कोटे के दायरे में रखने का सुझाव दिया.

कदम जो उठाये गये

तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अलग से अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का गठन किया गया और ‘अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम’ की शुरुआत की गयी, इसका उद्देश्य मुसलमानों को शिक्षा और नौकरी के लिए बेहतर अवसर मुहैया कराना है, इसी तरह से 90 अल्पसंख्यक बहुसंख्यक आबादी वाले ज़िलों को ‘मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम’ के लिये चुना गया था. जाहिर है सिफारिशें ज्यादा थीं और पहल नाकाफी. जो थोड़े बहुत कदम उठाये भी गये उनका जमीन पर कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिलता है.

 

दस साल हाल बेहाल

दस साल का फर्क – आंकड़ों की नजर में

जनसंख्या
  मुस्लिम देश की कुल आबादी मुस्लिम आबादी प्रतिशत
2001 13.81 करोड़ 102.8 करोड़ 13.43%
2011 17.22 करोड़ 121.08 करोड़ 14.2%
साक्षरता
  मुस्लिम साक्षरता देश की कुल साक्षरता
2001 59.1% 64.8%
2011 68.5% 73.0%
6-14 वर्ष की आयु वाले ऐसे बच्चे जो कभी स्कूल नहीं गए
  मुस्लिम बच्चे देश के कुल बच्चे
2004-05 15.3% 10.2%
2011-12 8.7% 4.4%
मदरसों में नामांकित बच्चे
2001 10.3%
2011 17.1%

 

स्नातकों की संख्या
  मुस्लिम औसत वृद्धि कुल औसत वृद्धि
2001 23.9. लाख 98.8% 3.76 करोड़ 64%
2011 47.52 लाख   6.2 करोड़  
भारतीय पुलिस बलों में मुस्लिमों की भागीदारी
  मुस्लिम भागीदारी कुल
पुलिस बल
औसत भागीदारी
2005 1,00,634 13,18,295 7.63%
2013 1,08,602 17,31,537 6.27%

स्रोत – इंडियन एक्सप्रेस

सच्चर समिति की रिपोर्ट आने के दस साल बाद भी आज मुसलमानों के हालात में कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिलता है, शिक्षा, नौकरियों और मानव विकास के अन्य सूचकांकों में हालत कमोबेश वैसे ही बने हुए हैं. आँकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि कुछ मामलों में तो  उनकी स्थिति पहले के मुकाबले और भी बदतर हो गई है. 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में मुस्लिमों की आबादी 13.43 प्रतिशत थी, जो 2011 की जनगणना में मामूली बढ़ोतरी के साथ 14.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई है. आज भी मुस्लिम समुदाय की आमदनी दूसरे समुदायों से कम है. बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों की मदद भी उन तक कम पहुँचती है, उनके बच्चे स्कूलों में कम साल गुजारते हैं और उनमें साक्षरता दर भी कम है. अपनी आबादी के बरक्स वे बेहद थोड़ी मात्रा में सेना या पुलिस बलों में पहुंच पाते हैं.

रोजगार की बात करें तो 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक केवल 33 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के पास रोजगार है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 40 फीसदी है. प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में भी मुस्लिम समुदाय अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों के मुकाबले अभी भी बहुत पिछड़ा है. जून 2013 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा “भारत के बड़े धार्मिक समूहों में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति” नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न धार्मिक समुदायों में मुसलमानों का जीवन स्तर सबसे नीचे है और वे रोज औसतन महज 32.66 रुपये (प्रति व्यक्ति) में जीवन गुजारते हैं. शहरी इलाकों में सबसे बड़ी संख्या में करीब 46 फीसदी मुसलमान स्व-रोजगार पर निर्भर हैं और यहाँ केवल 30.4  फीसदी मुसलमान ही वेतनभोगी नौकरियों में हैं, जो दूसरे समूहों के मुकाबले सबसे कम तादाद है. एन.एस.एस.ओ. के मुताबिक 2004-05 और 2011-12 के बीच मुसलमानों की प्रति माह प्रति व्यक्ति खर्च क्षमता 60 फीसदी बढ़ी है जबकि यह हिंदू आदिवासियों में 69 फीसदी, हिंदू दलितों में 73 फीसदी, हिंदू पिछड़ों में 89 फीसदी और ”ऊंची जाति के हिंदुओं”  में 122 फीसदी बढ़ी. यह फर्क खासकर शहरी इलाकों में बढ़ता जा रहा है, जहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों में मुस्लिम पिछड़ों का अनुपात हिंदू दलितों से बढ़ता जा रहा है.

मुस्लिम बच्चों के स्वास्थ और पोषण की बात करें तो स्थिति यहाँ भी ठीक नहीं है. नेशनल फैमली हैल्थ सर्वे -3 के अनुसार भारत में अन्य धार्मिक समुदायों की तुलना में मुस्लिम समुदाय में टीकाकरण की दर कम है. 12 से 23 माह आयु समूह के कुल मुस्लिम बच्चों में टीकाकरण 49.6 प्रतिशत है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 58.8 प्रतिशत है. इसी प्रकार शिशु मृत्यु दर (IMR) की स्थिति देखें तो मुस्लिम समुदाय में शिशु मृत्यु दर 52.4 प्रतिशत है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 57 प्रतिशत है.

मुस्लिम बसाहटों में स्वच्छता/साफ सफाई की स्थिति तो जगजाहिर है, “आक्सफेम” द्वारा जारी रिर्पोट –“सहस्राब्द्वी विकास लक्ष्य और मुस्लिमस आफॅ इंडिया 2013” के अनुसार देश में लगभग 50 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों में अलग से शौचालय की व्यवस्था नही है. इसी तरह से केवल 36 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों में ही नल के पानी की व्यवस्था है जो कि राष्ट्रीय औसत से 4 प्रतिशत कम है.

शिक्षा की बात करें तो वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत के धार्मिक समुदायों में निरक्षरता की दर सबसे ज्यादा मुस्लिमों में (43 प्रतिशत) हैं, सात साल से ज्यादा उम्र की श्रेणी में भी निरक्षरता की दर सबसे ज्यादा मुसलामानों में (42.72 प्रतिशता) ही है . इसी तरह से 2011 जनगणना ही बताते हैं कि मुसलमानों में ग्रेजुएट्स सबसे कम हैं. जहाँ हिंदुओं में 6 फीसदी ग्रेजुएट हैं, तो मुसलमानों में यह दर केवल 2.8 फीसदी का है. 2014-15 में उच्च शिक्षा पर किये गये अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नामांकित छात्रों में मुसलामानों की हिस्सेदारी केवल 4.4 फीसदी ही है.

लेकिन इन सबके बीच अच्छी खबर यह है कि मस्लिम समुदाय में पढ़ने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है, 2001 से मुकाबले 2011 के बीच मुस्लिमों में 60 फीसदी की तेजी से ग्रैजुएट बढ़े हैं जबकि देश में ग्रैजुएट होने की दर 54 फीसदी है इसी तरह से तकनीकी शिक्षा के मामले में देश की पढ़ाई की दर 68 फीसदी है जबकि  मुसलामानों में यह दर 81 फीसदी का है.

मुसलमानों का केन्द्र व राज्य के सरकारी नौकरीयों में प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है. दस साल पहले 2006 में जारी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के कुल 3209 आईपीएस अधिकारियों में से केवल 4 प्रतिशत यानी 128 ही मुस्लिम थे. लेकिन दस साल बाद भी हालात देखिए,कुछ भी नहीं बदला है। 2016 में यह आंकडा कुल 3754 आईपीस अधिकारियों में 120 मुस्लिम अधिकारियों का यानी महज 3.19 प्रतिशत ही है. 2006 में 3 प्रतिशत ही मुस्लिम आईएएस थे, 2016 में इसमें .32 की मामूली बढ़त हुई और यह आंकड़ा 3.32 प्रतिशत हो गया, इसी तरह से उस समय पुलिस सेवा में 7.63 प्रतिशत मुस्लिम थे जो साल 2013 में घटकर 6.27 प्रतिशत रह गए हैं.

मेहरबानों की मेहरबानियाँ

भाजपा को छोड़ कर इस देश की ज्यादातर सियासी पार्टियां मुसलामानों का हितेषी होने का दावा करती है. सच्चर समिति का गठन करने वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह ने एक बार बयान दिया था कि “समाज के सभी पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों विशेषकर मुसलमानों को विकास के लाभ में बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए उनका सशक्तिकरण किए जाने की ज़रूरत है. देश के संसाधनों पर पहला हक़ उन्हीं का है” उनके इस बयां पर काफी हंगामा हुआ था खासकर बयान के आखिरी हिस्से पर. लेकिन बुनियादी सवाल यह उठता है कि मुसलमानों की बदतर स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट तो खुद कांग्रेस पार्टी के लिए एक आईने की तरह होनी चाहिए थी. इस मुल्क में कांग्रेस पार्टी ही सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रही है. मुसलामानों की इस हालत में सबसे ज्यादा जवाबदेही उनकी बनती है लेकिन कांग्रेस पार्टी द्वारा मुसलमानों को एक वोट-बैंक की तरह ही देखा गया और उनके लिए कोई ठोस नीतिगत कदम नहीं उठाये गये. यह जनता पार्टी सरकार थी, जिसने इस देश में 1977 में अल्पसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की थी. 1994 में जाकर नरसिम्हा राव की कांग्रेस  सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम (एनएमडीएफसी) का गठन किया गया. इसके बाद 2005 में तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा सच्चर कमेटी का गठन किया गया. इसी दौरान अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग (एनसीएमसीआईज़) भी बनाया गया. 2006 में अल्पसंख्यक मामलों के विशेष मंत्रालय का गठन किया गया और प्रधानमंत्री के अल्पसंख्यक कल्याण के लिए 15 सूत्रीय कार्यक्रम की भी घोषणा हुई.

2013 में मशहूर अर्थशास्त्री अबू सालेह शरीफ ने ‘सिक्स इयर आफ्टर सच्चर-अ रिव्यू ऑफ इनक्लूसिव पॉलिसीज इन इंडिया’ नाम से एक रिपोर्ट तैयार किया था. इस रिपोर्ट में बताया गया था कि सच्चर रिपोर्ट आने के छह साल बाद भी मुसलमानों की हालत में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया था हालांकि  इस दौरान केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ही थी.

 

पश्चिम बंगाल में लगभग 29 फीसदी मुस्लिम आबादी है. यहाँ लम्बे समय तक वामपंथियों की हुकूमत रही है और वर्तमान में सत्तारूढ़ ममता बनर्जी भी अपने आप को अल्पसंख्यक हितैषी साबित करने का कोई मौका नहीं चूकती हैं. पिछले साल मशहूर अर्थशास्त्री व नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन द्वारा ‘पश्चिम बंगाल में रहने वाले मुस्लिमों की हकीकत’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी जिससे वहां के मुसलामानों की बदहाली का पता चलता है. रिपोर्ट के मुताबिक, महज 3.8 फीसदी मुस्लिम परिवार ही हर महीने पंद्रह हजार रुपये कमा पाते हैं, महज 1.54 फीसदी मुस्लिम परिवारों के पास ही सरकारी बैकों में अकाउंट हैं और राज्य के 6 से 14 वर्ष की उम्र के बीच के 14.5 फीसदी मुस्लिम बच्चे स्कूल तक जा ही नहीं पाते है.

 

उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसीदी मुस्लिम आबादी है, और वहां की राजनीति के केंद्र में मुसलमान जरूर शामिल रहते हैं, वहां सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियाँ मुसलामानों का हितैषी होने का दंभ जरूर भरती हैं लेकिन वहां मुद्दा अभी भी तरक्की का नहीं बल्कि सुरक्षा और जान-माल की हिफाज़त का ही हैं. हालांकि यूपी में सांप्रदायिक दंगें फिर भी नहीं रुके हैं. अखिलेश सरकार के दौर में सूबे में करीब 400 छोटे-बड़े दंगे हो हुए हैं. 2012 में समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में 18% आरक्षण,रंगनाथ मिश्रा और सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार पर दबाब डालने जैसे वायदे किये थे और जैसा की हमेशा से होता आया है यह महज कोरे वायदे ही रह गये.
वोट बैंक के कैदी

देश में चुनावी नगाड़ा बजते ही मुस्लिम समुदाय चर्चा के केंद्र में आ जाता है. राजनीतिक पार्टियाँ भारत के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के असली हितैषी होने का दम भरने लगती हैं. मुसलमानों के सामने एक तरफ तो वो सियासी जमातें होती है जो उनके हक़ में काम करने की कसमें खाती नहीं थकतीं तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी जमातें होती हैं जो उनके तुष्टिकरण का आरोप लगाती हैं, जिसका सीधा अर्थ है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछडे दूसरे समुदायों की तरह मुस्लिम समुदाय की  दशा सुधरने के लिए अलग से प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है.

दरअसल खुद को मुसलमानों की हितैषी बताने का दावा करने वाली सियासी पार्टियों ने मुसलमानों को “वोट बैक” से ज्यादा कभी कुछ समझा नहीं हैं इसलिए उनकी तरफ से इस समुदाय के उत्थान और विकास के लिए गम्भीर प्रयास नहीं दिखाई देता है. मुस्लिम समुदाय के वास्तविक मुद्दे / समस्याएँ कभी उनके एजेंडे में ही नहीं रहे हैं, उनकी सारी कवायद दक्षिणपंथी ताकतों का डर दिखाकर कर मुस्लिम वोट हासिल करने तक ही सीमित रहती है. गौर करने की बात यह है कि साम्प्रदायिकता को लेकर तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की लड़ाई ना केवल नकली साबित हो रही है बल्कि कभी–कभी इनका “दक्षिणपंथी ताकतों” के साथ का अघोषित रिश्ता भी नज़र आता है, यहाँ तक कि ये एक दूसरे को बनाये रखने में मदद करती भी नज़र आती हैं ताकि देश के दोनों प्रमुख समुदायों को एक दूसरे का भय दिखा कर अपनी रोटी सेंकी जाती रहे. इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि सियासी  पार्टियों का जोर या तो इनकी असुरक्षा को भुना कर उन्हें महज एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की है या फिर उनके नागरिक अधिकारों को स्थगित करके उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना देने की है .

एक तथ्य जिसे नजरअंदाज किया जाता है

आमतौर पर  इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि मुसलमान समुदाय एकरूप नहीं है. भाषाई क्षेत्रीय और जाति-बिरादरियों के आधार पर उनमें  बहुत विविधता है.बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने 1940  में लिखित अपनी किताब “पाकिस्तान एन्ड  पार्टीशन ऑफ इंडिया” में भारतीय मुसलामानों  में व्याप्त जातिगत व्यवस्था के बारे में लिखते हुए अशराफ, अजलाफ और अरजाल की चर्चा की है. अशराफ मुस्लिमों की अगड़ी जातियां हैं जबकि अजलाफ श्रेणी में पिछड़े  वर्ग की जातियां आती हैं, वही अरजाल मुस्लिमों के अंदर के दलित तबके हैं. चूंकि मुस्लिम  दलित समुदायों  को संविधान द्वारा  मान्यता नहीं है, इसलिए आमतौर पर अजलाफ और अरजाल को मिलाकर एक श्रेणी के अंदर रखते हुए इन्हें  पसमांदा यानी पीछे रह गए समुदाय कहा जाता है.1983 में  केंद्र सरकार द्वारा  ‘गोपाल सिंह कमेटी’ बनाई गई थी जिसने मुसलमानों को भारत में पिछडे वर्ग का दर्जा दिए जाने की वकालत की थी.  भारतीय मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण के प्रोजेक्ट पीपुल्स आफ सीरिज के तहत के.एस सिंह के सम्पादन में प्रकाशित ‘इंडियाज कम्युनिटीज” के अनुसार भारत में कुल  584 मुस्लिम  जातियाँ और पेशागत समुदाय हैं. मंडल कमीशन द्वारा पेशे के आधार पर पिछड़े मुस्लमानों का वर्गीकरण किया गया और 80 पेशागत समूहों को पिछड़ा घोषित किया गया है जिसमें जुलाहे,तेली,बढ़ाई और धोबी जैसी जातियां शामिल हैं इनमें से ज्यादातर अपना जातिगत पेशे के कार्यों को करते हैं इनमें से ज्यादातर समुदायों की सामाजिक आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति हिन्दू दलितों एवं आदिवासियों से भी बदतर है. पसमांदा मुसलामानों  की कुल जनसंख्या मुसलमानों के आधी आबादी से भी अधिक है लेकिन जब मुस्लिम समुदाय की बात होती है तो आमतौर पर इस विविधता को नजरअंदाज कर दिया जाता है .

दोहरी मार

भेदभाव की एक दूसरी तस्वीर भी है जो बहुसंख्यकवादी राजनीति से निकली है. इसने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीखा किया गया है. धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित अल्पसंख्यक ही होते हैं. ‘वे और हम’ की ये भावना ने समाज को इस कदर विभाजित किया है कि आज स्थिति यह हो गयी है कि शहरों और अब तो कस्बों में भी मुसलमानों के लिए मुस्लिम आबादी के बाहर प्रापर्टी खरीदना या किराये पर लेना बहुत मुश्किल हो गया है, उन्हें बैकों से उधार मिलने में दिक्कत आती है तथा सरकारी तन्त्र एवं कर्मचारी मुसलमानों को सन्देह की नजर से देखते है. वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ तथाकथित युद्ध के बाद से तो मुसलमानों पर सन्देह और बढ़ा है.

झूठे मुकदमों में फंसाने और मुठभेड़ में मार गिराने की घटनायें भी आम हैं. पिछले दिनों बीबीसी की एक रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि ‘भारत की 1387 जेलों में 82 हजार से ज़्यादा क़ैदी मुसलमान हैं जिनमें से लगभग 60 हज़ार विचाराधीन क़ैदी हैं.’ सरकार ने हाल ही में संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि भारत की 1387 जेलों में 82 हजार से ज़्यादा क़ैदी मुसलमान हैं जिनमें से लगभग 60 हज़ार विचाराधीन क़ैदी हैं.

मौजूदा सरकार का रुख

मौजूदा समय में जो पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ है उसकी विचारधारा इस बात को बार-बार दोहराती रही है कि इस देश में मुसलमानों का तुष्टीकरण होता है और हिंदू उपेक्षा के शिकार हैं. भाजपा द्वारा शुरू से ही सच्चर रिपोर्ट का विरोध किया गया है. मध्यप्रेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो बाकायदा विधानसभा में इस रिपोर्ट को “साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली” करार देते हुए इसकी सिफारिशों को लागू कर्न्ने से एलान कर दिया था. आज मोदी सरकार के मंत्री गिरिराज सिंह खुलेआम एलान करते हैं कि मुसलमानों का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त कर देना चाहिए. संघ मुखिया मोहन भागवत थोड़े अंतराल पर            दोहराना नहीं भूलते हैं कि देश में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. अगर मौजूदा सरकार के रुख को समझना हो तो पिछले साल सितम्बर माह में केरल के कोझिकोड में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुआ कहा था कि “दीनदयाल जी मानते थे कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करो न ही तिरस्कृत करो बल्कि उनका परिष्कार किया जाए”. यहाँ “परिष्कार” शब्द पर ध्यान देने की जरूरत है जिसका मतलब होता है “ प्यूरीफाई ” यानी शुद्ध करना. हिंदुत्ववादी खेमे में “परिष्कार” शब्द का विशेष अर्थ है, दरअसल हिंदुत्व के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर मानते थे कि ‘चूकिं इस्लाम और ईसाईयत का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था इसलिए मुसलमान और ईसाइयों की भारत पितृभूमि नहीं हैं, उनके धर्म, संस्कृति और पुराणशास्त्र भी विदेशी हैं इसलिए इनका राष्ट्रीयकरण (शुद्धिकरण) करना जरुरी है.पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने “परिष्कार” शब्द का विचार सावरकर से लिया था जिसका नरेंद्र मोदी उल्लेख कर रहे थे. मुसलामानों के प्रति मौजूदा सरकार के नजरिये को संघ प्रमुख , प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री के बयानों के सन्दर्भ में आसानी से समझा जा सकता है.

वोट बैंक से पोलिटिकल फोर्स बनने की जरूरत

किसी भी लोकतान्त्रिक देश के विकास का पैमाना है कि वह अपने अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह का सलूक करता है, जिस देश का एक बड़ा तबका पिछड़ेपन और असुरक्षा के भावना के साथ जी रहा हो वह इस पैमाने पर खरा नहीं उतर सकता है,हिंदुस्तान की जम्हूरियत की मजबूती के लिए जरूरी हैं कि अकलियतों में असुरक्षा की भावना को बढ़ाने / भुनाने और “तुष्टिकरण” के आरोपों की राजनीति बंद हो और उनकी समस्याओं को राजनीति के एजेंडे पर लाया जाए,सच्चर और रंगनाथ मिश्र कमेटी जैसी रिपोर्टो की अनुसंशाओं पर खुले दिल से अमल हो, समुदाय में बैठी असुरक्षा की भावना को खत्म करने के लिए मजबूत कानून बने जो सांप्रदायिक घटनाओं पर काबू पाने और दोषियों के विरूद्ध कार्रवाई करने में सक्षम हो.  दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय को भी भावनात्मक मुद्दों के बहकावे में आना बंद करना होगा और अपनी वास्तविक समस्यायों को हल करने के लिए राजनीति को एक औजार के तौर पर इस्तेमाल करना सीखना होगा। यह काम मज़हबी लीडरान से पिंड छुड़ाकर उनकी जगह नये सामाजिक- राजनीतिक नेतृत्व पैदा किये बिना नहीं किया जा सकता है. उन्हें वोट बैंक नहीं बल्कि पोलिटिकल फोर्स बनना होगा.

 

जावेद अनीस

 

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