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मावफलांग के खासी

भारत का पहला रेड पायलट समुदाय
मेघालय राज्य की राजधानी शिलांग से करीब 38 किलोमीटर दूर स्थित है ज़िला-ईस्ट खासी हिल्स। यहां की जयंतिया पहाड़ियों के बीच सिमटी है घाटी – मावफलांग। समुद्र से 5,000 फीट की ऊंचाई पर बसे मावफलांग के पवित्र जंगलों की दास्तानें काफी पुरानी व दिलचस्प है। दैवशक्ति लबासा की निगाह में पवित्र जंगल का बुरा करना अथवा जंगल के भीतर बुरा सोचना-बोलना किसी बड़े अपराध से कम नहीं। इसकी सजा अत्यंत घातक होती है। इसी विश्वास और जंगल पर सामुदायिक हकदारी ने लंबे अरसे तक मावफलांग के जंगल बचाये रखे। जंगलों पर हकदारी और जवाबदारी दोनो ही हिमाओं के हाथ में है। हिमा यानी खासी आदिवासी सामुदायिक सत्ता; संवैधानिक शब्दो में हिमा को कई ग्राम समूहों की अपनी सरकार कह सकते हैं। मावफलांग के जंगलों के बीच खडे़ विशाल पत्थर इस सत्य के मूक गवाह हैं कि हिमाओं ने जंगलों को उस ब्रितानी हुकूमत के दौर में भी बचाया, जब ब्रितानी क़ा़नून जंगल पर सामुदायिक हक़दारी के खिलाफ खड़े थे।
कटे जंगल : चेते हिमा
कहते हैं कि मावफलांग के कई मौजूदा पेड़ों की उम्र उतनी ही पुरानी है, जितनी कि खासी समुदाय की यानी 800 से 1000 वर्ष। किंतु एक दौर ऐसा आया, जब मावफलांग के जंगलों को तरक्की पसंदों की नजर लग गई। बाहरी दखल के चलते वर्ष 2000 से वर्ष 2005 के बीच मावफलांग जंगल में लगातार गिरावट हुई। ज़िला – ईस्ट खासी हिल्स के वन क्षेत्रफल प्रतिशत में 5.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। कोयला, चूना और इमारत निर्माण सामग्री हेतु हुए अत्याधिक खनन तथा बेरोकटोक जंगल कटान ने ईस्ट खासी हिल्स के जंगलों को बड़े पैमाने पर बर्बाद किया। इस बर्बादी को देखते हुए मावफलांग की स्थानीय खासी आदिवासी सामुदायिक सत्ता (हिमा) ने नये प्रयास की जरूरत महसूस की।
हिमाओं को सीएफआई ( कम्युनिटी फाॅरेस्टरी इंटरनेशनल – एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ) द्वारा मेघालय में जंगल संरक्षण के सामुदायिक प्रयासों को संरक्षण देने का काम की जानकारी मिली। तब तक जंगल संरक्षण को वायुमण्डल में नुकसानदेह विकिरणों/गैसों की मात्रा कम करने वाला योगदान मानते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ’कार्बन क्रेडिट’ देने की पहल हो चुकी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से कार्बन के्रडिट हेतु मानक व प्रक्रिया तय किए जा चुके थे।
मावफलांग के जल ढांचे और जैविक विविधता की समृद्धि का आधार स्थानीय खासी आदिवासी समुदायों की आस्था और पारंपरिक जीवन शैली ही है। सीएफआई ने इसी परंपरा ज्ञान और व्यवहार को आधार पर मावफलांग समुदाय को भारत का प्रथम ’रेड पायलट समुदाय’ के रूप में चयनित करने का इरादा जाहिर किया। मेघालय सरकार और खासी हिल्स स्वशासी ज़िला परिषद ने इसका समर्थन किया। बेथानी सोसाइटी ने समन्वयक की भूमिका निभाई। 10 हिमाओं (4250 परिवार) ने इस काम के लिए आपसी एकजुटता सुनिश्चिता की। तम्बोर लिंगदोह ने नेतृत्व किया। परियोजना क्षेत्र के रूप 8,379 हेक्टेयर भूमि तय की गई। इस तरह ’रेड’ प्रक्रिया और जंगल संरक्षण, प्रबंधन और पुनर्जीवन गतिविधियों का अंजाम देने को लेकर सीएफआई और मावफलांग के हिमाओं के फेडरेशन के बीच सहमति बन गई।
’रेड’ – एक चरण हुआ पूरा
’रेड’ (REDD) का मतलब है – ‘रिड्युशिंग एमीशन्स फ्राम डिफोरेस्ट्रेशन एण्ड डिग्रेडेशन’ अर्थात नष्ट होते जंगल तथा क्षरण प्रक्रिया की रोकथाम कर उत्सर्जन को कम करना। जिस परियोजना के लिए मावफलांग को ’भारत का प्रथम रेड पायलट समुदाय’ का दर्जा दिया गया, हालांकि इसमें जंगल में नये सिरे से वृक्षारोपण किया गया, किंतु वास्तव में यह एक जल परियोजना है। बिना धुंए का चूल्हा, मवेशियों के लिए चारे की विशेष व्यवस्था, खनन पर प्रतिबंध, जंगल में नये सिरे से वृक्षारोण तथा जल संचयन जैसे कार्य शुरु हुए। संरक्षण के लिए उमियम झील बेसिन का 75 हेक्टेयर का क्षेत्र मौजूद था ही। कई वर्षों के सतत् प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि यह परियोजना ’प्लान विवो’ मानक के तहत् मई, 2011 में खासी हिल्स कम्युनिटी रेड प्लस प्रोजेक्ट का प्रमाणपत्र हासिल करने में समर्थ रही। जंगल संरक्षण, प्रबंधन और पुनर्जीवन गतिविधियों का एक चरण वर्ष – 2016 में पूरा हुआ। दूसरा चरण 2017-2021 है। पहले चरण की सीख के मुताबिक, दूसरे चरण में कुछ परिवर्तन अपेक्षित हैं।
‘रेड’ की जगह ‘रेड प्लस’
विशेषज्ञों के मुताबिक, ‘रेड’ नामक इस प्रक्रिया में कुछ ऐसी कमियां हैं, जिनके कारण यह प्रक्रिया पारिस्थितिकीय तंत्र के कई जरूरी पहलुओं के बारे में ध्यान देने में सक्षम नहीं है। ‘रेड’ का जोर हरियाली पर है, अधिकतम प्रजातियों का संरक्षण इसकी प्राथमिकता नहीं है। ‘रेड’ परियोजना में शामिल समुदाय के जंगल पर हक को लेकर कई देशों में स्पष्टता न होने से उन्हे जंगल के लाभ में परियोजना के दूसरे साझेदारों को भी शामिल करना पड़ा। यह एक तरह से जंगल पर समुदाय के हक में अंतर्राष्ट्रीय संगठन की सेंधमारी हुई। इसे स्थानीय सबलीकरण के खिलाफ मानते हुए विवाद के एक विषय के रूप में रेेखांकित किया गया। इसी के चलते भारत ने ‘रेड’ की जगह, ‘रेड प्लस’ की वकालत की है। एक बातचीत में कम्युनिटी फाॅरेस्ट इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक मार्क पोफेनबर्गर ने कहा कि रेड पायलट एक प्रयोग है। इसके कायदे अंतिम नहीं है। हम अभी देख रहे हैं।
कार्बन क्रेडिट
कार्बन के्रडिट को आप जंगल द्वारा संजोये कार्बन की बिक्री से प्राप्त कीमत कह सकते हैं। कार्बन क्रेडिट हासिल करने की प्रक्रिया के पांच कदम हैं – हरियाली लगाना / संजोना, हरित वृक्षों द्वारा संजोये कार्बन की मात्रा का आकलन करना, उसकी कीमत लगाना, मान्यता देनी वाली एजेंसी द्वारा मान्यता हासिल करना और उसे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेचना। वर्ष 2011 के आंकडे़ के मुताबिक, मावफलांग समुदाय के हिस्से में 13,761 कार्बन क्रेडिट आये, जिन्हे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 42 हजार से 80 हजार अमेरिकी डाॅलर में  बेचने की उम्मीद थी। हालांकि यह कोई बड़ी धनराशि नहीं थी। मान्यता देने वाली एजेंसी तथा सलाहकार का शुल्क का भुगतान भी इसी में से किया जाना था। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्रकृति को समृद्ध रखते हुए भी पैसा कमाया जा सकता है; आर्थिक स्वावलंबन संभव है। यदि समुदाय की हक़दारी पर डाका और जैव विविधता की लूट की संभावना शून्य हो, तो यह एक तरह से अतिरिक्त आय ही है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सिर्फ हानिकारक गैस उत्सर्जित करने वाले उपकरण, ईंधन तथा प्रक्रियाओं  को नियंत्रित करके ही
‘रेड’- सीखें भी, जांचे भी
रेड पायलट समुदाय आधारित मावफलांग की इस परियोजना में सलाह और मार्किटिंग की भूमिका एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की है। दूसरे के संसाधन की लूट और वैश्विक व्यापार का वर्तमान दुष्चक्र कुछ ऐसा चला है कि साझेदार के अंतर्राष्ट्रीय होने पर प्राकृतिक संसाधन संरक्षण की जुंबिश में लगे लोग अक्सर शंका से घिर जाते हैं। कई बार हमारी शंका उचित होती है। कई बार हमारी शंका का कारण जानकारी का अभाव होता है। रेड, रेड प्लस, विवो प्लान, कार्बन क्रेडिट आदि के क्या मायने हैं ? समझौता शर्तें क्या हैं ? वे कितनी न्यायसंगत हैं ? इससे आमदनी कैसे होती है ? इस परियोजना से समुदाय, जंगल और प्रकृति को क्या हासिल हुआ ? इन सभी पहलुओं की विस्तार से जांच निस्संदेह ज़रूरी है। ‘रेड’ समुदाय परियोजनाओं के मामले में भी समुदाय और मार्केटिंग व सलाहकार एजेंसी के बीच हुए समझौते को पूरी तरह समझे बगैर इसके पक्ष-विपक्ष में कुछ कहना भी ठीक नहीं।
मावफलांग के आदिवासी समुदाय के बीच जाकर यह सब समझना-सीखना-जांचना भारत की प्राकृतिक समृद्धि ही नहीं वित्तीय सुरक्षा के लिहाज से भी ज़रूरी है, खासकर राष्ट्र संचालकों के लिए। सीखने की ज़रूरत मावफलांग के खासी समुदाय से भी है। हो सकता कि तब हमारे नीति नियंता आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने की बजाय, आदिवासी समुदायों से स्वस्थ, स्वावलंबी, सदभावपूर्ण और प्रकृति प्रेमी समाज निर्माण का ककहरा सीखने की सिफारिश करने लगें; उन्हे लगे कि तरक्की का एक पैमाना प्राकृतिक समृद्धि भी हो सकती हो; हो सकता तब कुछ तरक्की पसंद लोग अपना रोड माॅडल बदल डालें; मावफलांग का हिमा लोकतंत्र कुछ का रोल माॅडल हो जाये, जो अपने पानी-जंगल की चिंता खुद करता है।

अरुण तिवारी    

 

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