उत्तर प्रदेश के चुनावों के शुरुआती दो चरणों में मतदाता खामोश दिखा किन्तु जैसे जैसे चरण आगे बढ़ते गये उसका रुझान स्पष्ट दिखने लगा। तीसरा चरण आते आते उत्तर प्रदेश का साइलेंट वोटर भाजपा की तरफ खुल कर वोट करने लगा। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां जातिगत आंकड़ों पर काम करने के बावजूद साइलेंट वोटर ही सरकार बनाता है। वह सोच समझकर के एक रुझान तय करता है। इस रुझान के द्वारा उत्तर प्रदेश में मतदान के बाद त्रिशंकु विधानसभा बनने से बच जाती है। 2007 में मायावती, 2012 में अखिलेश एवं 2014 में मोदी के पक्ष में दिखा यह वर्ग अब 2017 में भाजपा के पक्ष में रुझान रखता दिख चुका है। सपा और कांग्रेस के गठबंधन से सपा को फायदा कम हुआ है किन्तु कांग्रेस को संजीवनी ज़रूर मिल गयी है। बसपा कुछ क्षेत्रों में इतनी खामोशी से चुनाव लड़ी है कि चुनाव परिणाम आने पर उसके नतीजे चौंकाने वाले होने जा रहे हैं। लोकदल ने जाटों के सहारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बड़ा उलटफेर कर दिया है किन्तु पश्चिम में चुनावों तक कोई लहर दिखाई नहीं दी थी। भाजपा की लहर बनते देख भाजपा के दिग्गजों ने भी विकास और सुशासन की बात छोड़ कर रमज़ान और दीवाली के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर दिया है। सपा और बसपा भी मुस्लिम वोटों की गोलबंदी के लिये इन बयानो का प्रति-उत्तर देने से नहीं चूक रही है। अब थक हार कर सपा के अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन को ही मजबूरी का गठबंधन बता दिया है। पहले चरण से लेकर अंतिम चरण के बीच में बदलते चुनावी पैटर्न के साथ ग्राउंड ज़ीरो से अमित त्यागी पिछले कई दशकों से उत्तर प्रदेश के बेहाल हाल एवं संभावित चुनावी नतीजों पर एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं।
अब पूरे भारत में औद्योगिक विकास हो रहा था उस समय उत्तर प्रदेश के कुछ शहर भी काफी उन्नत शहरों में माने जाते थे। कानपुर का चमड़ा उद्योग, मुरादाबाद का पीतल उद्योग, बनारस की साडिय़ां, भदोई का कालीन उद्योग, सहारनपुर का लकड़ी उद्योग उत्तरप्रदेश को उन्नत प्रदेशों में रखता था। 1991-92 में जब देश में उदारीकरण की शुरुआत हुयी उस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में आना शुरू किया। उन्होंने उद्योग लगाने के लिये मुफीद माहौल चुनना शुरू किया। एक तरफ तो देश के अन्य राज्य उपयुक्त माहौल देकर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश क्षेत्रीय दलों के चंगुल में फंस रहा था। कुटीर उद्योग चौपट हो रहे थे। उत्तर प्रदेश को जाति और धर्म की राजनीति में बांटा जा रहा था।
इसके पहले की बात करें तो इन्दिरा गांधी की राजनीति का आधार ही अभाव की राजनीति माना जाता था। गांधी परिवार के परंपरागत क्षेत्र अमेठी और रायबरेली के जमीनी हालात की तुलना अगर दूसरे जिलों से करें तो इसकी हक़ीक़त भी सामने आ जाती है। इन कांग्रेसी गढ़ों के उलट मुलायम सिंह ने अपने गृह क्षेत्र सैफई को इतना ज़्यादा उन्नत कर दिया है कि महानगरीय सुविधाएं भी शरमा जाती हैं। पर मुलायम सिंह ने अपने क्षेत्र और अपने परिवार के विकास पर ही ध्यान केन्द्रित किया। यदि गहराई से देखें तो इस दौरान परिवारवाद की परंपरा में मुलायम परिवार और वंशवाद की परंपरा में गांधी परिवार एक बड़े खिलाड़ी बन कर उभरे। कानून व्यवस्था का सपाइयों ने अपराधीकरण करके रख दिया। सत्ता में रहने वाले एक अन्य दल बसपा ने अपराधों पर तो लगाम लगा कर रखी किन्तु सफेदपोश अपराधों, जैसे घोटालों में वह सब पर भारी पड़ीं। यादव सिंह का घोटाला बसपा के कार्यकाल में ही हुआ और सपा के कार्यकाल में उसको भरपूर पोषण मिला। इस तरह अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के पोषण के बीच उत्तर प्रदेश कुपोषित बना रहा। उत्तर प्रदेश का कुपोषण कहीं दूर न हो जाये और जनता जातियों के चंगुल से बाहर आकर कहीं क्षेत्रीय दलों को खत्म न कर दें इसलिए इस विषबेल को एक राजनैतिक हथियार बना कर पूरे मनोयोग से सींचा गया। भाजपा और मोदी का विरोध दिखाकर मुस्लिम वोटों की गोलबंदी का पूरा दुष्चक्र रचा गया। मुस्लिमों की निरक्षरता को अपना हथियार मान बैठे राजनेताओं नें उनकी सुध लेने के बजाय उन्हें वोट बैंक बना कर रख दिया।
सत्ता के इस खेल में विकास नारा देने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जब विकास के नाम पर कुछ अच्छे कार्य किये तो उनकी पार्टी के अंदर ही उन्हें विरोध झेलना पड़ा। जब जब अखिलेश यादव नें विकास कार्यों की बातें की, उनके बड़े बुज़ुर्गों ने उन्हे ताकीद की कि उत्तर प्रदेश का चुनाव विकास के नाम पर नहीं होता है। साढ़े चार साल घुटन में रहे मुख्यमंत्री ने आखिरकार सारे बंधनों को तोड़ दिया और सार्वजनिक नूरा कुश्ती की। अपना चेहरा निखारकर उन्होंने विकास के मुद्दे को छोड़कर अपनी असफलताओं का ठीकरा चाचा एंड कंपनी पर फोड़ दिया। यकायक उनका मन परिवर्तन हुआ और विकास की बात करते करते उन्होंने अचानक वोटों का गणित लगाया और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। जो साइकल अभी विकास के नाम पर लखनऊ मेट्रो की तरह दौड़ रही थी उसका हैंडल राहुल गांधी को थमा दिया। सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर फिर से एक बेमेल गठबंधन उत्तर प्रदेश पर थोप दिया गया।
साइलेंट वोटर अब नहीं है साइलेंट। दिखा रहा है रुझान
यह है उत्तर प्रदेश के जमीनी हालात, जो घुटन में जी रहे उत्तर प्रदेश के मतदाता को एक नयी ताज़ी हवा की तरफ ले जाने को विवश कर रहे हैं। इन सबके बीच में उत्तर प्रदेश में एक मतदाता वर्ग ऐसा भी है जो साइलेंट वोटर है। यह किसी दल का परंपरागत वोट बैंक नहीं है। यह किसी जाति से जुड़ा हुआ नहीं है। किसी धर्म से इसका ताल्लुक नहीं है। यह सिर्फ घटनाओं पर निगाह रखता है। उनका आंकलन करता है। उसके आधार पर चुपचाप वोट करता है। यह वोटबैंक लगभग 5 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं है। देखने में यह आंकड़ा मामूली लग रहा है किन्तु एक दूसरे आंकड़े को समझने के बाद इसका महत्व समझ में आ जाता है। उत्तर प्रदेश में ढाई से तीन प्रतिशत का स्विंग चुनाव परिणाम को प्रभावित कर देता है। 29 प्रतिशत वोट पाने वाला विजयी हो जाता है। जब यह पांच प्रतिशत मतदाता किसी एक दल की तरफ खुल कर अपना रुझान दिखा देता है तो उसे ही राजनैतिक विश्लेषक हवा कह देते हैं। कुछ लोग इसे अंडर करेंट का नाम भी देते हैं। 2007 में यह अंडर करेंट बसपा के लिये थी तो 2012 में सपा के लिये। जब बड़े बड़े राजनैतिक जानकार अल्पमत की सरकार की बात कर रहे थे तब यह साइलेंट वोटर अपना मन बना चुका था किन्तु खामोश था।
अब 2017 में प्रथम दो चरण में यह मतदाता खामोश ही दिखा इसलिए जातिगत आंकड़े के आधार पर ही आंकलन होते रहे। कहीं सपा-बसपा मजबूत दिखी तो कहीं पर भाजपा। कहीं मुस्लिम वोटर गठबंधन की तरफ जाते दिखा तो कहीं बसपा की तरफ। रालोद का जाट वोटबैंक निर्णायक बनता भी नजऱ आया। जैसे जैसे चुनाव आगे बढ़े तो साइलेंट वोटर खुल कर भाजपा के समर्थन में दिखने लगा। तीसरे चरण में (जिसमें 69 सीटों पर मतदान हुआ और इनमे से 55 सीटें सपा के पास थीं) में तो एक हवा भाजपा के पक्ष में दिखने लगी। यहां सपा को ज़बरदस्त नुकसान हुआ। अपना नुकसान होते देखकर विकास की बात कर रहे ‘पहलवान पुत्र टीपू’ को अपनी ‘सुल्तानी’ छिनने का आभास हो गया। मौके की नज़ाकत को भांपते हुये उन्होंने गठबंधन को मजबूरी वाला गठबंधन भी बता दिया। आरामदायक सड़क पर साइकल का हैंडल थामे कांग्रेसी युवराज को समाजवादी गड्ढे का एहसास हुआ। ख्वाब से बाहर आने पर उन्हे हैंडल से अपनी पकड़ कमजोर होने का एहसास हुआ। उनकी आंखें खुल गयीं और अब उन्हें इस बात का मुगालता भी नहीं रहा कि क्यों उनके अपने गृह जनपदों में समाजवादी उम्मीदवार उनके उम्मीदवारों के खिलाफ खड़े हैं?
अब अखिलेश यादव द्वारा मुस्लिम वोटर को एकजुट करने की कोशिश शुरू हुयी। उसके लिये गुजरात का जि़क्र बहुत ज़रूरी था। उन्होंने गुजराती गधों के प्रचार के बहाने प्रधानमंत्री पर करारा हमला बोला। उनके वोटर को खूब मज़ा आया। उसने खूब तालियां बजाईं। अखिलेश को विकास पुरुष मानकर उनके पीछे चल रहा दूसरे वर्ग का युवा अखिलेश के पीछे छिपे चेहरे को पहचान गया। अब उसे समझ आया कि समाजवादी ड्रामे में सिर्फ चेहरा ही तो बदला है। चाल और चरित्र तो वही है। प्रत्याशी भी वहीं हैं। नीतियों का ढिंढोरा पीटने वालों की नीयत भी वही है। लोग भी वहीं हैं। टोपी भी वही है। हां, टोपी पहनाने वाला अब कोई बुजुर्ग नहीं युवा टीपू है। उसका साफ सुथरा चेहरा है।
अपराधी प्रवृत्ति के नेताओं से किसी ने नहीं किया परहेज
उत्तर प्रदेश की खराब कानून व्यवस्था का रोना सब रोते हैं। सपा सरकार पर इसका ठीकरा भी खूब फोड़ा गया है। भाजपा और बसपा नें समाजवादी सरकार की छीछालेथर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु इन दोनों दलों ने अपराधी, दागी और बाहुबलियों से परहेज नहीं किया। जिस मुख्तार अंसारी को लेने से अखिलेश यादव ने मना कर दिया था उसे मायावती ने हाथों हाथ अपने दल में शामिल कर लिया। भाजपा ने तो प्रदेश अध्यक्ष के रूप में केशव मौर्या को कमान सौंपी थी और उनके दाग भी भाजपा को अच्छे लगे। 27 साल यूपी बेहाल से दीवारें रंगवा देने वाले राहुल गांधी की दीवारों का रंग भी नहीं सूखा था कि उन्हें अखिलेश यादव के कार्यकाल के पांच साल कम करने पड़ गये। इसके बाद राहुल गांधी को यूपी बेहाल नहीं दिखा बल्कि 2019 के परिप्रेक्ष्य में अपने लिए भरपूर माल दिखा।
अब राजनेताओं पर उंगली उठाने से भी कुछ नहीं होने वाला है। यह तो जनता के हाथ में होता है कि वह बाहुबलियों और दागियों को अपने वोट की ताकत से खारिज करें। जब हम बात करते हैं सुधार की और वोट दे आते हैं किसी दागी को, तो कैसे हो पाएगा सुधार? इस तरह घाघ हमेशा बाघ की भूमिका में रहते हैं। वह बाद में उसी जनता का शिकार करते हैं जो उन्हें जिताती है। यदि आय से अधिक संपत्ति के मामलों को ही लें। तो उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह दोनों पर इस तरह के मामले चल रहे हैं। दोनों में जांच चल रही है। पर हो क्या रहा है? क्या इन दोनों के राजनैतिक भविष्य पर कोई फर्क पड़ा? लालू यादव तो चारा घोटाले में जेल भी हो आये। तो उन्होंने अपनी पत्नी को सत्ता सौंप दी। जेल से राज़ किया। अभी ताज़ा उदाहरण तमिलनाडु में शशिकला का है। उनको उच्चतम न्यायालय ने जेल भेज दिया है। इस पर भी उनकी सक्रियता कम नहीं हुयी। उन्होंने अपने करीबी पलनीसामी को मुख्यमंत्री बना दिया है। अब क्या जनता को अपने नेताओं की यह कारगुजारियां दिखती नहीं है। लगता है वह सिर्फ मुफ्त प्राप्त होने वाली चीजों के चंगुल में इस कदर फंस चुकी है कि उसे मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त मोबाइल, मुफ्त वाईफ़ाई, अम्मा कैंटीन जैसी मुफ्तखोरी ज़्यादा रास आती है।
यदि जनता की दृष्टि से देखें तो उसको लगता है कि जब हमारे नेता इतना कुछ लूट खसोट रहे हैं तो क्यों न हम लोग भी कुछ हासिल कर लें। भागते भूत की लंगोटी ही सही। उसे अपने नेताओं से जो भी मुफ्त मिलता है उसे वह अधिकार पूर्वक अपना हिस्सा मानकर चुपचाप रख लेते हैं। इस तरह जनता और नेता दोनों का एक दूसरे से काम चलता रहता है। जो ज़्यादा अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं वह पागल की तरह किनारे कर दिये जाते हैं। राजनीति में सुधार और भ्रष्टाचार उन्मूलन की बातें कहीं धुंध में खो जाती हैं। ठीक वैसे ही जैसे वसीम बरेलवी ने कहा है कि झूठ वाले कहीं के कहीं बढ़ गये। और मैं था कि सच बोलता रह गया।
पूर्वान्चल तय करेगा, किसकी बनेंगी सरकार ?
जिस तरह से उत्तर प्रदेश का चुनाव एक रुझान पर आकर टिक गया है उसके बाद पूर्वान्चल की सीटें महत्वपूर्ण बन गयी हैं। इसके साथ ही पूरब का द्वार कहे जाने वाले चार जिलों (इलाहाबाद, कौशांबी, प्रतापगढ़ एवं फ़तेहपुर) भी रुझान तय करेंगे। कुल मिलाकर यह सब 100 सीटों के आसपास का आंकड़ा है। बनारस के आस पास के जिलों में मोदी का प्रभाव काम करेगा तो गोरखपुर मण्डल में योगी आदित्यनाथ की गोलबंदी महत्वपूर्ण होगी। योगी आदित्यनाथ के संदर्भ में यदि कहा जाये तो जिस तरह से उनको लो प्रोफ़ाइल रखा गया किन्तु पूरे उत्तर प्रदेश में भाजपा प्रत्याशियों नें उनकी सभाएं मांगी उससे स्पष्ट हो गया कि इस बार जाने अनजाने हिन्दुत्व का मुद्दा तो काम कर रहा है। योगी ने एक दिन में चार पांच सभाएं अमूमन की है। यह एक बड़ी संख्या है। सुनने में तो यहां तक आया है कि योगी को दो हेलीकाप्टर दिये गये थे। एक सभा से दूसरी में जाने के लिए अगर ईंधन की कमी हो जाये तो दूसरा तैयार रहता था। योगी आदित्यनाथ का समय इन चुनावों में इतना ज़्यादा कीमती रहा है।
पूर्वान्चल के साथ लगे अगर बुंदेलखंड की बात करें तो यहां भाजपा और बसपा में मुख्य मुकाबला दिखा है। बसपा का मजबूत होना सपा के लिए नुकसानदेह है। जहां जहां बसपा मुख्य मुक़ाबले में रही है उसका मुकाबला भाजपा से हुआ है और उसने सपा के वोट बैंक में ही सेंध लगाई है। इसकी भरपाई के लिए अखिलेश यादव बार बार कह रहे हैं कि चुनाव के बाद बसपा और भाजपा मिल जायेंगी। उनके बयान से वह मुस्लिम वोटर को बसपा की तरफ जाने से रोकना चाहते हैं। डैमेज कंट्रोल के लिए मायावती तुरंत इस बयान के बाद इस तरह की अफवाहों का खंडन करती रहीं हैं।
त्रिशंकु विधानसभा बनने पर क्या होंगी संभावनाएं ?
यदि किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो यदि बसपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तो कांग्रेस और लोकदल उसको समर्थन कर सकते हैं। बसपा के पुराने कद्दावर स्वामी प्रसाद मौर्या खेमे के अगर एक तिहाई विधायक जीत जाते हैं तो वह भी अपनी बहन जी का रुख करने में परहेज नहीं करेंगे। शिवपाल यादव भी बहन जी का साथ दे सकते हैं। अखिलेश तो कह ही चुके हैं कि चाचा और बुआ में कुछ तो हो रहा है। अंदर की बातें कैसे बुआ तक पहुंच रहीं हैं? ऐसे में मायावती के पास आवश्यक गणित उपलब्ध भी हो सकता है। यदि सपा गठबंधन के पास कुछ सीटें कम हुयी और उसे बहुमत के लिए कुछ विधायकों की आवश्यकता हुयी तो उनके साथ भी लोकदल जा सकता है। सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर बहन जी के कुछ विधायक सपा खेमे में जा सकते हैं।
इसके अलावा अगर भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो उसके लिए समीकरण जुटाना थोड़ा मुश्किल होगा। उसके साथ जाने पर कई क्षेत्रीय दलों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। ये जो आंकड़े मैंने बताएं हैं यह उत्तर प्रदेश की जनता की निगाह में भी हैं और भाजपा के दिग्गजों की निगाह में भी। इसलिए सभी किसी न किसी तरह गोलबंदी के जरिये रुझान और अंडर करेंट के द्वारा पूर्ण बहुमत चाह रहे हैं।
राजनीति के बवंडर से बाहर निकलेगा उत्तर प्रदेश ?
उत्तर प्रदेश के चुनावों के बाद यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब उत्तर प्रदेश को खोजना है। इसको समझने के लिए प्रो. आशीष बोस के तीन दशक पहले दिये गए ‘बीमारू’ राज्य के कॉन्सेप्ट को समझते हैं। आशीष बोस इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक रिसर्च से जुड़े रहे थे और उन्होंने बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के प्रारम्भिक अक्षरों को मिलाकर इन प्रदेशों को बीमारू का दर्जा दिया था। तीन दशक बीतने के बाद बाकी तीन राज्यों से तुलना में उत्तर प्रदेश का विकास पिछड़ा दिखता है। उत्तर प्रदेश में न तो कुटीर उद्योग पटरी पर है न ही कृषि क्षेत्र। रोजगार की हालत तो यह हो चुकी है कि पीएचडी धारक भी चतुर्थ श्रेणी के लिए आवेदन कर रहे हैं। आवेदन के बाद इतने घपले होते हैं कि चयनित होने के बाद भी न्यायालय द्वारा रोक लगा दी जाती है। जाति और धर्म विशेष को बढ़ावा देने के कारण उत्तर प्रदेश का युवा पहचान के बवंडर में फंस जाता है। पाकिस्तान से ज़्यादा आबादी रखने वाला प्रदेश अगर विकास के मापदण्डों पर पिछड़ा है तो इसके पीछे जनता की सोच भी जिम्मेदार है। एक साल पहले प्रारम्भ में भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार की शुरुआत मोदी शैली के विकास से की थी किन्तु बाद में भाजपा ने भी जातिगत आंकड़ों पर काम किया।
पिछड़े और दलितों को संगठन और सरकार में जगह दी। सुधार की बात करते करते भाजपा को भी उस बवंडर में आखिरकार फंसना ही पड़ गया। शायद यही है उत्तर प्रदेश की नियति कि यहां जाति का बंधन टूट नहीं पा रहा है। धर्म के नाम पर विभाजन तो राजीव गांधी ने ताला खोलकर कर ही दिया था। ढांचा गिराकर उसको पल्लवित भाजपा ने कर दिया। अब जिस तरह 2014 में युवाओं ने जाति के बंधनों से हटकर एक तरफा मतदान किया था उससे जाति और धर्म पर आधारित क्षेत्रीय दलों की हवा निकल गयी थी। जहां तक बात कांग्रेस की है तो वह पहले क्षेत्रीय दलों को मजबूत करके केंद्र को कमजोर करती है इसके बाद कमजोर केंद्र में मुख्य केंद्र बिन्दु स्वयं रहती है। उत्तर प्रदेश का युवा अब इस बात को भी समझ चुका है। वह अब न तो भाजपा के उकसाने पर वोट करता है, न ही समाजवादी सरकार द्वारा दिखाये आंकड़ों पर। उसे राजनैतिक दलों से ज़्यादा विकास की बात करने वाले अखिलेश और मोदी अच्छे लगते हैं। चूंकि, अखिलेश की लाचारगी और बेचारगी उसे कम रास आई है इसलिए साइलेंट वोटर के साथ युवाओं का रुझान 2017 में भाजपा की सरकार बनाने दिशा तय कर चुका है। ठ्ठ
कौन होगा उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री?
सपा और बसपा को बहुमत मिलने की स्थिति में किसी को कोई संदेह नहीं है कि यह नाम अखिलेश यादव और मायावती होंगे। कांग्रेस तो रेस में भी नहीं है। अब बात करते हैं भाजपा की। तो इसमे पूर्ण बहुमत की सरकार आने की स्थिति में राजनाथ सिंह का नाम सबसे ऊपर दिख रहा है। पूर्ण बहुमत न होने की स्थिति में कुछ अन्य नाम भी चर्चा में चल रहे हैं। डॉ महेश शर्मा एक दावेदार हैं किन्तु गाजिय़ाबाद से राजनाथ सिंह के बेटे के टिकट का अंदरखाने विरोध करके उनके नाम पर चर्चा कम होगी। वर्तमान में भाजपा के नेता विधानमंडल सुरेश खन्ना सात बार से विधायक है, उनके नाम पर भी सहमति बन सकती है किन्तु वह उत्तर प्रदेश में कोई चर्चित नाम नहीं हैं। योगी आदित्यनाथ एक बड़ा नाम है किन्तु उनका आभामंडल इतना विराट है कि उनके आगे भाजपा के बड़े दिग्गज जैसे अमित शाह और मोदी का आभामंडल भी फीका पड़ जायेगा। उनके नाम को बहुत ज़्यादा आगे बढ़ाये जाने की संभावना कम ही दिखती है। केशव मौर्या इस रेस में बने तो हुये हैं किन्तु उन पर सहमति बनना थोड़ा मुश्किल दिख रहा है। यदि भाजपा की महिला नेत्रियों की बात करें तो पिछड़े वर्ग से आने वाली उमा भारती एक बड़ा नाम है। वह तेज़ तर्रार हैं और उन्हे मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने का अनुभव भी है। इसके साथ ही एक दलित नेता के रूप में तेज़ी से उभरी एवं केन्द्रीय राज्यमंत्री कृष्णाराज़ का नाम भी महिला और दलित होने के कारण फिज़ाओं में तैर सकता है। इसके अतिरिक्त भी कई नाम हैं किन्तु उत्तर प्रदेश जैसे संवेदनशील प्रदेश को चलाने के लिये किसी प्रशासनिक जानकार की आवश्यकता है। इन सबके बीच फिलहाल राजनाथ सिंह का नाम सब पर भारी पड़ता दिख रहा है।
पीएम मोदी जी ने अखिलेश यादव के गधे वाले बयान का बेहतरीन जवाब दिया
गधा बहुत ही स्वामी भक्त, मेहनती, और अपने मालिक के आदेश को भूखा-प्यासा-थका होने के बाद भी मानते हुए बिना किसी नाराजगी जताये दिन रात मालिक के लिए काम करता रहता है। गधा ये नहीं देखता कि पीठ पर शक्कर है या नमक की बोरी, वो तो ईमानदारी से बोरी को मंजिल तक पहुंचाता है। मुझे गधे से प्रेरणा मिलती है, अखिलेश जी मैं मेरे 120 करोड़ मालिक के लिए दिन रात बिना छुट्टी लिए काम करता हूं, करता रहूंगा।
मतदान का बढ़ा प्रतिशत भी है एक बदलाव का संकेत
उत्तर प्रदेश में इस बार पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है। यह मतदाता का किसी एक दल की तरफ झुकाव भी हो सकता है या मतदाता जागरूक अभियान का असर भी। पिछली बार से बढ़े वोटों की संख्या भी इसका एक कारण हो सकती है। युवाओं का मतदान के प्रति बढ़ा हुआ रुझान लोकतंत्र के लिये एक बड़ा सकारात्मक संकेत है। जब जब मतदान का प्रतिशत बढ़ता है तब तब इसका फायदा भाजपा को मिलता है। ऐसा आंकलन पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों के आंकलन से पता चलता है।
अब ऐसा भी नहीं है कि बढ़ा प्रतिशत सिर्फ भाजपा की तरफ झुका है। यह किसी भी तरफ गया हो सकता है। वोटर इस बार शांत नहीं है। उसके अंदर अपनी सरकारों के लिये गुस्सा दिख रहा है। उसे केंद्र सरकार से भी गुस्सा है और राज्य सरकार से भी। नोटबंदी की दिक्कतें वह भूला नहीं है। नोटबंदी एक मुद्दे के रूप में तो दिखा है किन्तु भाजपा के वोट बैंक पर उसका कोई प्रभाव नहीं दिखा है। सपा से नाराज़ उसका कोर वोटर भी उसको बुरा भला कहकर उससे ज़्यादा दूर नहीं हटा है। अब यह बढ़ा हुआ मत प्रतिशत किस ओर गया है यह पहेली सुलझाना कोई आसान खेल नहीं है।