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बसंतोत्सव बनाम वेलेंटाइन डे

हम भारत के सभी जीवन दर्शनों में आत्मसात रहा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूपी चार तत्वों को साधना हिन्दू जीवन शैली का अंतरंग हिस्सा है। अर्थ हो या काम, दोनों के प्रति भारतीय सकारात्मक रहे हैं। मगर दोनों की पूर्ति को धर्म यानी नियमों से बांधा गया है। जिस प्रकार लोकतंत्र में स्वतंत्रता तो सबको है किंतु उसकी सीमा भी निर्धारित है, यानि स्वतंत्रता उतनी जो दूसरे की स्वतंत्रता को बाधित न कर सके। इसी प्रकार धन भी और काम यानि विषय वासनाओं की पूर्ति भी समाजोन्मुख। शिव-पार्वती की पूजा यानि लिंग-योनि की पूजा का भी यही भाव है कि काम तुष्टि संतानोत्पत्ति यानि वंश और मानव जाति को आगे बढ़ाने के लिए नितान्त आवश्यक है इसलिये स्तुतनीय है किंतु शिवलिंग और योनि पर किया जाने वाला जलाभिषेक कामाग्नि को नियंत्रण में रखने का संदेश भी देता है और काम की अति पर शिव संहारक हो सृष्टि का विनाश भी कर सकते हैं, यह चेतावनी भी। यहां तक कि पशु भी संतानोत्पत्ति के लिए ही ऋतु विशेष में सहवास करते हैं यद्यपि मानव हर ऋतु में यह कार्य कर सकता है। भारत में खजुराहो के मंदिर भी एक बड़ा संदेश देते हैं, जिनकी बाहरी दीवारों पर विभिन्न काम क्रीड़ाओं और कलाओं के चित्र अंकित हैं और मंदिर के अंदर कोई मूर्ति नहीं। अर्थात काम निमित्त मात्र है और मोक्ष की प्राप्ति हेतु जब मानव को साधना करनी होगी तो काम मन मस्तिष्क से त्याग कर अंदर आना होगा। जब तक मन शांत और मस्तिष्क निर्वात नहीं होगा तब तक योग और साधना संभव नहीं और न मुक्ति।

विपरीत योनियों के संबंध हिन्दू धर्म में दार्शनिक स्वरुप लिए हैं और अर्धनारीश्वरवाद के रूप में व्याख्यायित किये गए हैं यानि स्त्री और पुरुष दोनों आधे और अधूरे हैं और दोनों का संसर्ग यानि शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक मिलन और सामंजस्य ही एक दूसरे को समग्रता, संपूर्णता और सृजन देता है। भारतीय चिंतन में स्त्री-पुरुष संबंधों के परिपक्व होने यानि प्यार होने, उनमें परस्पर भाव, मनोभाव, संकेत, संवाद, समन्वय, प्रेम, संप्रेषण, संवेदन, भाव प्रणयता, समझ, सहकारिता, विवाह, यौन संबंधों की प्रवणता, कार्य विभाजन, वंश वृद्धि, पारिवारिक-सामाजिक व्यवहार, बौद्धिक सामंजस्य, परस्पर सम्मान, संतान, परिजनों, समाज और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व, कर्मयोगी होते हुए वानप्रस्थी बनने से लेकर मोक्ष प्राप्ति के लिए उद्दत होने सबके लिए धर्म यानि नियम और उपाय हैं। धर्म ग्रंथ, आयुर्वेद, उपनिषदों, कामशास्त्र, पुराण, कामदेव और रति के पात्रों के माध्यम से नयी पीढ़ी को यौन शिक्षा सबका प्रबंध है। साथ ही काम के विविध रूपों यानि संगीत, रस-छंद, काव्य, लेखन, कला, नृत्य या कुछ भी अन्य सृजनशील तत्व जिसके प्रति मानव या मानवी उद्धत हो सकती है, सबको साधने की कलाएं विस्तार से वर्णित हैं। श्रृंगार, सुंदरता, बलिष्ठता, छत्तीस कलाओं, यौन आसनों, अभिसार, उत्ताद भावनाओं के आयामों और उतार चढ़ावों तथा उनके अच्छे बुरे आयामों सब पर विस्तार से साहित्य और ज्ञान उपलब्ध है। यह भारतीय संस्कृति ही है जो प्रकृतिप्रदत्त प्रेम और काम के उदगार यानि प्यार को सामाजिक जीवन का अंतरंग भाग बना उत्सव के रूप में प्रस्तुत करता है और बसंतपंचमी से होली तक चालीस दिन इसके रस और रास में मग्न रहता है।

सच तो यही है कि जंगली पुरुष जो कामोन्मादी था या फिर जब अपने सामाजिक जीवन के प्रारंभिक दौर में स्त्रियों के लिए संघर्ष करता था तभी पूर्ण रूप से स्थिर और समग्र हो पाया, जब उसने स्त्री से अपने संबंधों को पारिभाषित कर व्यवस्थित रूप दे दिया। यानि एक पुरुष के लिए एक स्त्री।

वो यह भूल जाते हैं कि हिन्दू धर्म में जब उत्तरवैदिक काल में पुन: काम अनियंत्रित हुआ तो बड़ा बिखराव आ गया और इसी के बीच जैन और बौद्ध धर्म अस्तित्व में आये जो काम के विरुद्ध आत्मसंयम के मूल सिद्धान्त और मुक्ति के लक्ष्य के कारण अपना प्रसार कर पाए। इस्लाम में स्त्री आज भी अधिकार विहीन, निम्न स्तर प्राप्त और अधूरी है और ईसाई धर्म में बाजार की कॉकटेल के कारण अनियंत्रित।

अधूरे संस्कार और अनियंत्रित यौन उत्कंठा के बीच मजबूर आजकल के युवक युवती वेलेंटाइन डे के बहाने संवाद और सहकार के जो अवसर खोजते हैं, वो अक्सर क्षणिक आकर्षण लिए, उथले, मात्र शारीरिक, भोंडे, विकृत और दिशाहीन होते हैं, या कभी कभी सच्चे भी। किंतु इसमें उनका क्या दोष? काश उन्हें कोई काम का वास्तविक अर्थ और भारतीय आयाम बताने की गंभीर कोशिश करता, जिसका सार 40 दिनों के बसंतोत्सव में छुपा है, तो न केवल उनकी सारी जिज्ञासाएं मिट जाती वरन उन्हें प्रेम और सहवास के सच्चे अर्थों का ज्ञान भी होता, समग्रता भी और संतुष्टि भी। स्त्री-पुरुष के संबंधों की गूढ़ता, आयाम, उलझनें और समझ उन्हें खासा परिपक्व कर देते और उनके बीच पनपी आपसी समझ और विश्वास उन दो को एक में बदल अर्धनारीश्वर की कल्पना को साकार कर देते।

भारत में इस्लाम, अंग्रेजी व्यवस्थाएं और इसाइयत के साथ ही बाज़ार ने पिछली पांच-छ: सदियों में खासे रंग दिखाये हैं। एक शत प्रतिशत शिक्षित और सांस्कृतिक रूप से दीक्षित समग्र समाज और व्यवस्था को तोड़ एक अनपढ़, विपन्न और परजीवी संस्कृति वाले समाज के रूप में भारतीयों को पनपने पर मजबूर किया गया। देखते ही देखते देश में स्त्री पुरुष की समानता और सामंजस्यता बिखर गई और पुरुष अधिनायकवादी समाज पनपता गया और स्त्री पर्दे और बुर्के में सिमट गयी। इस बीच पनपी सामन्तवादी, रैय्यतबाड़ी और जमींदारी प्रथा के बीच देश में कब स्त्री भोग्या, चेरी, दासी, देवदासी और वेश्या में बदल गयी पता ही न चला। पाश्चात्य जीवन शैली जो अस्तित्ववाद और बाज़ारवाद पर टिकी है और सर्वोत्कृष्ट की उत्तरजीविता के मूल मंत्र के साथ मानव को स्वार्थी एवं पशु मानकर ही चलती हो, तो उसके भारत की हज़ारों सालों से चली आ रही समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं और जीवन शैली से टकराव होंगे ही। हमारे देश में जो अपनी जड़ों से जुड़ा रहा या मतलब भर पाश्चात्यता अपनाता गया उसने तो फिर भी संतुलन साध लिया और दो सभ्यताओं के संघर्ष को सामंजस्य में बदल दिया, किंतु त्रिशंकु वो लोग और नयी पीढ़ी बनती जा रही है जो भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा और काम के दर्शन से पूरी तरह कटी या अंजान है औऱ पाश्चत्य जीवन शैली को आधे अधूरे में समझ उसमें बाज़ारू ताकतों के तड़के को मिला खुलेपन, भोंडे और पशुवत आचरण को ही आदर्श समझ बैठी है। दोष उनको दी जाने वाली अधूरी या नही दी गयी शिक्षा का भी है और आजादी के बाद की अंग्रेज परस्त सरकारों का भी। बाज़ार और बाज़ारू उत्पादों यथा भोंडे भड़कीले विज्ञापन, पोर्न, कामोत्तेजक दवाएं, विभिन्न प्रकार के नशे, आत्मकेंद्रित और अस्तित्ववादी जीवन दर्शन और विदेशी शक्तियों और विदेशी धर्मों के षड्यंत्र की भी और अनियंत्रित सूचना क्रांति की भी, जिसने नयी पीढ़ी को चौराहे पर ला पटका है और अधिकांश को लंपट, कामी, योनउन्मुखी और यांत्रिक बना दिया। एक अधूरी, अर्धपशु पीढ़ी से उस गहरे बौद्धिक व्यवहार और संयमित आचरण की उम्मीद रखना भी बईमानी है, जो उसे दी ही न गयी हो। जो अधूरा समाज हम सबने मिलकर खड़ा किया है और जिस प्रकार बढ़ती जनसंख्या, ज्यादा होती जीवन प्रत्याशा, बढ़ते विकिरण के कारण कम उम्र में यौन परिपक्वता और आर्थिक स्थिरता में ज्यादा समय लगने के कारण देर से विवाह या विवाह न करना अथवा अलग अलग तरीके की शिक्षा के कारण पति पत्नि के बीच सामंजस्यता और समझ की कमी, गर्भ निरोधकों और तकनीकी विकास के कारण परस्पर घटती निर्भरता के कारण टूटते परिवार और कुनबे, इन सबने विवाह पूर्व और विवाहेत्तर संबंधों के लिए खासे अवसर उपलब्ध करा दिए हैं। ऐसे में बाज़ार द्वारा थोपे गये वेलेंटाइन डे जैसे दिन मनाये जाएं या न मनाए जाएं, देशवासियों में विपरीत योनि के प्रति यौन आकर्षण, यौन आक्रामकता, खुलापन, सांस्कृतिक क्षरण और प्रदूषण बढऩा तय है क्योंकि यौन उद्वेग अपने रास्ते ढूंढने को तत्पर रहता ही है और सही शिक्षा और साथी के अभाव में स्त्री हो या पुरुष किसी को भी इस पर नियंत्रण करना असंभव सा हो जाता है। इसलिए वेलेंटाइन डे का विरोध करने से ज्यादा जरुरी भारतीय संस्कृति के अनुसार देश में एक सी शिक्षा पद्धति लागू करने की है और नए परिप्रेक्ष्य में विवाह और यौन संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की भी। सवाल यह है कि बाज़ार की चाशनी में डूबे और विकास की मरीचिका में उलझे आधे अधूरे भारतीय जनमानस को कैसे तैयार करें उसे स्वीकार करने के लिए और कैसे और क्यों तैयार होगी सत्ता और समाज उसे लागू करने को? और उस पर भी यक्ष प्रश्न कौन तैयार है इसे लागू करने के लिए संघर्ष करने को?

अनुज अग्रवाल

 

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