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स्त्रियों को मनचाहा लिखने की स्वतंत्रता नहीं मिल सकी है – गीताश्री

हिंदी कहानी और पत्रकारिता में गीताश्री का नाम किसी के लिए भी नया नहीं हैं। गीताश्री की कहानियां आज हिंदी कहानी क्षेत्र के आकाश पर छाई हुई हैं। उनकी कहानियों में स्त्री विमर्श अपने हर रूप में है। कभी वह ‘गोरिल्ला प्यार’ के रूप में है तो हालिया प्रकाशित ‘डाउनलोड होते हैं सपने’ में सपनों की नई परिभाषा के रूप में। गीताश्री के पास पत्रकारिता के अनुभवों के साथ स्त्री अनुभवों का भी अथाह संसार है। गीताश्री के विचार कभी आराम नहीं करते, वे विराम नहीं लेते हैं। गीताश्री चलते रहने में भरोसा करती हैं। गीताश्री की कविता ‘जितना हक’, ‘औरत की बोली’, ‘स्त्री आकांक्षा के मानचित्र’, ‘नागपाश में स्त्री’, ‘सपनों की मंडी’ (आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित), ’23 लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव’ (सम्पादन), ‘प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां’, ‘स्वप्न साजि़श और स्त्री’ तथा ‘डाउनलोड होते हैं सपने’ पुस्तकें बाज़ार में आ चुकी हैं। इसी अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला में शिल्पायन प्रकाशन से ‘डाउनलोड होते हैं सपने’ कहानी संग्रह आया है। गीताश्री को तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं जिनमें मुख्य हैं रामनाथ गोयनका पुरस्कार, मातृश्री अवार्ड, राष्ट्रीय कला समीक्षा सम्मान (अभिनव रंगमंडल), ग्रासरूट बेस्ट फीचर अवार्ड, यूएनएफपीए-लाडली मीडिया अवार्ड, नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2008), इनफोचेंज मीडिया फेलोशिप (2008), नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2010), आधी आबादी वीमेन अचीवर्स अवार्ड, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार आदि सम्मान। उनका रचना संसार विविधताओं से भरा हुआ है। पत्रकारिता से कहानीकार का यह सफर उनका कैसा रहा और वे अपने इस सफर के बारे में क्या सोचती हैं, इस विषय में उन्होंने खुलकर अपने विचारों को डायलॉग इंडिया की संवाददाता सोनाली मिश्रा के साथ साझा किया। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश :

 

सबसे पहले तो गीताश्री जी आपको आपके तीसरे कहानी संग्रह के लिए बधाई! अब आपसे यह सवाल कि आपने पत्रकारिता में आने का निर्णय कैसे लिया?

बहुत बहुत धन्यवाद! दरअसल हम लोग जिस माहौल और समाज से आते हैं, वहां पर लड़की की पढ़ाई का लक्ष्य केवल स्कूल टीचर ही बनना होता था। उन दिनों कार्पोरेट का उदय हुआ नहीं था, हमें केवल टीचर बनने के नजरिये से ही पढ़ाया जाता था। मगर धीरे धीरे समय की आहटों को हम देख और सुन रहे थे। नब्बे का दशक तो एक संक्रमण काल था। उन दिनों बाज़ार के खुलने के साथ ही रोजग़ार के नए क्षेत्रों का उदय हो रहा था। हिंदी से एमए करने के बाद मुझे लगा कि पत्रकारिता में भाग्य आजमाना चाहिए। मुझे कभी भी रूटीन नौ से पांच की नौकरी पसंद नहीं थी। पत्रकारिता में आकर लगा कि यहीं आना था मुझे, मुझे अपने चयन पर भी दोबारा सोचना नहीं पड़ा।

 

चलिए, साहित्य पर आते हैं। कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बड़ी कोई स्वतंत्रता नहीं है। आपको क्या लगता है कि साहित्य में स्त्रियों के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? क्या वे खुलकर लिख पा रही हैं? और स्त्री की कहानियों को सीमित कर देने के विषय में आप क्या सोचती हैं?

देखिये, मौजूदा समय में स्त्रियों के पास तमाम अवसर हैं। वे खुलकर लिख रही हैं। मगर इस बात में थोड़ा सा झोल है कि क्या वे मनचाहा लिख पा रही हैं? उन्हें मनचाहा लिखने की स्वतंत्रता नहीं मिल सकी है। उन पर तमाम तरह के घोषित और अघोषित प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं, वे क्या लिखें और क्या न लिखें! वे शुचिता लिखें, वे स्त्री मन को न लिखें। आप देखिये, एक कहानी में पुरुष एकदम से भ्रमित होकर संबंधमुक्त समाज की बात कर सकता है, वह खुलकर स्त्री पुरुष के उन्मुक्त संबंधों की वकालत करते हुए शुचिता की बात कर सकता है, मगर जैसे ही स्त्री अपनी इच्छाओं के विषय में बोलना आरम्भ करेगी वैसे ही ऐसी लेखिकाओं के विरोध में नए नए खेमे उग आएंगे। कोई उन्हें सेक्स लेखिका कहेगा तो कोई उन्हें दिल्ली में बैठी हुई लेखिकाएं। जैसे मान लीजिए दिल्ली में इंसान ही नहीं, संवेदना ही नहीं। अपने मन की बात लिखने वाली स्त्रियों को हर तरह से दबाने की कोशिश हो रही है, कभी उन्हें खारिज करने के द्वारा तो कभी किसी और तरीके से। हर रोज़ नवांकुरित आलोचक स्त्री लेखन पर प्रश्न उठा रहे हैं, जिन्होंने एक कहानी भी नहीं लिखी, वे स्त्री लेखन को खारिज करने के लिए परेशान हैं। हाल के दिनों में कई बार जानबूझ कर स्त्री लेखन पर प्रश्न करते हुए साक्षात्कार लिए गए हैं। स्त्री लेखन हर तरफ से वार झेल रहा है। और सबसे मजेदार बात तो यह कि कुछ वरिष्ठ लेखिकाएं जिन्होंने खुलकर सब कुछ लिखा, अब शुचिता का डंडा लेकर नई लेखिकाओं के पीछे भाग रही हैं। वे मंचासीन होकर नए लेखन को पूरी तरह से खारिज कर रही हैं। नई लेखिकाओं के मन में तमाम तरह की गलतफहमियां भरी जा रही हैं। उन्हें तिरस्कार का भय दिखाया जा रहा है। उन्हें खुलकर लिखने ही नहीं दिया जा रहा है, मगर फिर भी स्त्रियां मैदान में डटी हुई हैं, वे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। वे चुनौती दे रही हैं। उन्हें खांचों का भय नहीं हैं।

 

राजनीति के विषय में आप क्या सोचती हैं? क्या राजनीति लेखन को प्रभावित करती है?

राजनीति कैसे लेखन को प्रभावित नहीं करेगी? लेखन का तो मूल ही है सत्ता के गलत कृत्यों का विरोध। सच्चा लेखक वही होता है जो राजनीतिक सरोकारों को समझे और उन्हें अपने रचनाओं के माध्यम से जनता के बीच लेकर आए। हां, मगर अंध विरोध नहीं होना चाहिए। जहां तक साहित्य में राजनीतिक कहानियों की बात है तो उस पर मेरा यही कहना है कि राजनीतिक कहानियां कम लिखी जा रही हैं, जबकि स्त्रियों को राजनीतिक विषयों पर खुलकर लिखना चाहिए।

 

विचारधारा किस प्रकार कहानियों को प्रभावित करती है? क्या कहानी लिखने के लिए किसी विचारधारा का होना आवश्यक है?

देखिये, कहानी में विचारधारा कभी भी सायास नहीं आएगी। वह कहानी में हमेशा उपस्थित रहेगी। दरअसल विचारधारा हमारे समाज का ही हिस्सा है। विचारधारा ही हमें विमर्श के लिए प्रेरित करती है। बिना विचारधारा के क्या आप विमर्श कर सकते हैं? हां, यह अवश्य है कि विचारधारा में अंतर के कारण व्यक्तिगत द्वेष नहीं होना चाहिए। रचनाकार का दायरा विस्तृत होना चाहिए।

 

कहते हैं मूल्य समाज में होने वाले परिवर्तन के अनुसार बदलते हैं। मूल्यों को लेकर एक रचनाकार का नज़रिया क्या होना चाहिए?

मैं हर उस मूल्य के खिलाफ हूं जो गैरबराबरी की वकालत करती है। मैं हर उस मूल्य का विरोध करती हूं, जो अमानवीय और अनुदार हैं। रचनाकार को ऐसी हर व्यवस्था का विरोध करना चाहिए, जो पक्षपाती है।

 

सोशल साइट ने स्त्रियों की छिपी हुई रचनात्मकता को बाहर लाने का कार्य किया है। मगर इसी के साथ कई ऐसे भी हैं जो उनकी रचनाओं को फूल पत्ती कहकर मजाक उड़ाते हैं।

मैं इस मामले में सोशल मीडिया की बहुत शुक्रगुज़ार हूं कि उसने घरेलू स्त्रियों को एक मंच दिया। वे स्त्रियां जिनका जीवन केवल मसालों के रंग थे, वे अब जीवन के रंग रचने लगीं। और आप देखिये जैसे ही उन्होंने कदम रखा उन्हें फूल पत्ती कह कर उनका मजाक उड़ाया जाने लगा। जिन लोगों के मंच पर एकाधिकार थे, उन्हें यह बहुत नागवार गुजरा कि ऐसी स्त्रियों की कवितायं और कहानियां पुस्तकों और मंचों में आने लगीं जिन्हें कोई जानता नहीं था, तो मनोबल तोडऩे के लिए उन्हें फूल पत्ती कहा गया। अब आप देखिये कौन कर रहा है हिंदी का प्रचार, ये सोशल साइट ही न! बहुत स्त्रियां लिख रही हैं, खूब लिख रही हैं, और खूब साहस के साथ लिख रही हैं।

 

बहुत बहुत शुक्रिया आपका गीताश्री जी। आप इसी तरह अपने कथा संसार को अपनी मुखरता से रचती रहें। सुना है आपका पहला उपन्यास आ रहा है। आपको उसके लिए ढेरों बधाई और शुभकामनाएं।

शुक्रिया।

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