रामचरितमानस में सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता
श्रीरामचरितमानस में पाँचवें काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड है। अन्य काण्डों के नाम, स्थान विशेष के आधार पर रखे गए हैं यथा- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड। पाँचवें काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड क्यों किया गया इस विषय में प्रबुद्ध विद्वानों में मत वैभिन्न हैं। इसमें श्रीराम के सुत तुल्य परमभक्त एवं सेवक श्रीहनुमानजी के विभिन्न सफल क्रियाकलापों का सविस्तार वर्णन किया गया है। सीतान्वेषण का महत्वपूर्ण कार्य हनुमानजी को सौंपा गया था। उन्होंने पूर्ण सफलता से, बुद्धि कौशल के आधार पर यह कार्य किया है। यहाँ महाकाव्य रामचरितमानस के कथानक की फलश्रुति पूर्णता की ओर अग्रसर होती दृष्टिगोचर होती है। ग्रन्थ में सुन्दरकाण्ड सर्वश्रेष्ठ अंश है।
त्रिकूट पर्वत जहाँ लंका स्थित है, इसके तीन शिखर हैं-
१. नील शिखर- इस पर लंका बसी हुई है।
२. सुबेल शिखर- यह मैदानी भाग है।
३. सुन्दर शिखर- जहाँ अशोक वाटिका है।
आदि कवि वाल्मीकिजी ने इसका प्रस्तुतिकरण इस प्रकार से किया है-
सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे सुन्दर: कपि।
सुन्दरे सुन्दरी वार्ता अत: सुन्दर उच्यते।।
(मानस पीयूष-सुन्दरकाण्ड पृ. २३।गीता प्रेस गोरखपुर)
इस काण्ड में ‘सुन्दरÓ शब्द का बारम्बार प्रयोग किया गया है-
१. सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड १-३)
२. स्याम सरोज दाम सम सुन्दर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १०, चौ. २)
३. तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुन्दर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १३, चौ. १)
४. कनककोट विचित्र मनिकृत
सुन्दरायतना घना। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. २/छंद)
५. सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखी सुन्दर फल रुखा।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १७-४)
६. सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. ३३/२)
हनुमानजी जिस जिस पर्वत पर अपना पैर रखते हैं, वे सभी पाताल में चले जाते हैं। यह उनके असाधारण बल और शरीर सौष्ठव का प्रतीक है। एक आश्चर्यजनक सुन्दर घटना है। हनुमानजी का पथ निर्बाध हो जाता है। तत्पश्चात सुरसा नामक राक्षसी से उनका सामना होता है। वह हनुमान्जी का भक्षण करने के लिए अपने मुख का आकार बढ़ाती है, हनुमानजी भी बत्तीस योजन तक अपना स्वरूप बढ़ा लेते हैं। फिर अचानक बड़े सुन्दर और अद्भुत रूप से अपना स्वरूप अति सूक्ष्म करके उसके मुख में प्रवेश कर बाहर निकल जाते हैं। लंका में प्रवेश करते ही उन्हें लंकिनी नामक राक्षसी मिलती है। वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती है। हनुमानजी मुष्टि प्रहार से उसे रक्तरंजित कर देते हैं। वह सत्संग की सुन्दर व्याख्या करती है-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. ४)
लंका में भीतर प्रवेश करते ही उनकी राम नाम का स्मरण करते हुए विभीषण से भेंट होती है। उसके द्वार पर श्रीराम के धनुष बाण अंकित दिखाई देते हैं। घर के बाहर तुलसीजी का सुन्दर चौरा है। हनुमानजी सोचते हैं कि निश्चित ही यह किसी सज्जन का घर है। यह सम्पूर्ण परिदृश्य हनुमानजी के मन में सुन्दर अनुभूति प्रदान करता है। सुन्दरकाण्ड का सम्पूर्ण कथानक ही सुन्दर है। जहाँ भी हनुमानजी जाते हैं श्रीराम की कृपा से उन्हें पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त होती जाती है। कहीं भी वे असफल नहीं हैं। अशोक वाटिका में त्रिजटा और सीताजी की अंतरंग मित्रता है। त्रिजटा हर संकट की घड़ी में सीताजी के साथ है। अशोक वाटिका में रावण तथा राक्षसियों से दु:खी होकर सीताजी त्रिजटा से चिता बनाने का कहती है जिसमें वह आत्मदाह करना चाहती है। बड़े सुन्दर और आत्मीय भाव से त्रिजटा कहती है-
निसि न अनल मिली सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा १२/३)
एक पुत्री को माता द्वारा जिस प्रकार समझाया जाता है वैसे ही त्रिजटा सीताजी को समझाती है। महाकवि तुलसीदासजी अपने शब्द कौशल से इस दृश्य को मार्मिक और सुन्दर बना देते हैं। इसके पश्चात शोक मग्न अकेली बैठी सीताजी के सामने हनुमानजी अँगूठी गिराते हैं। प्रथम तो वे उसे अंगार समझती हैं फिर उस पर सुन्दर रूप से अंकित राम-नाम लिखा देखती हैं। वे पहचान जाती हैं कि यह श्रीरामजी की मुद्रिका है। हनुमानजी कहते हैं-
सुवर्णस्य सुवर्णस्य सुवर्णस्य च मैथिली।
प्रेषितं रामचन्द्रेण सुवणस्यांगुलीयकम्।।
(हनुमन्नाटक ६-१५)
अर्थात् सुन्दर वर्ण वाले (रामनामाक्षर) युक्त सुवर्ण (दस माशे) की यह सुवर्ण की अँगूठी श्रीराम ने तुम्हारे लिए भेजी है।
अशोक वाटिका में क्षुधापूर्ति करने के पश्चात् वहाँ के रक्षकों का हनुमानजी के साथ मुष्ठिका प्रहार होता है। मध्यस्थता करने के लिए रावण पुत्र अक्षय कुमार आया। हनुमानजी ने उसका वध कर दिया। तब मेघनाद आया। हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र से मारने का प्रयत्न किया। ब्रह्मास्त्र की महिमा को संरक्षित रखने के लिए हनुमान्जी मूर्च्छित हो गए। उन्हें बाँध कर रावण के दरबार में ले जाया गया। सभा में यह निर्णय लिया गया कि कपि की ममता पूँछ पर होती है इसलिए वस्त्र बाँधकर पूँछ में आग लगा दी जाए। सम्पूर्ण लंका नगरी का तेल तथा वस्त्र समाप्त हो गए। पूँछ बढ़ती गई। उसमें आग लगाने पर हनुमानजी सम्पूर्ण लंका में घूमे। विभीषण के घर को छोड़कर सारी लंका जल गई। सर्वत्र भय का वातावरण व्याप्त हो गया। हनुमानजी आग बुझाने के लिए समुद्र में कूद पड़े। निम्न तत्वों ने हनुमानजी की सहायता की-
१. पवनतत्व- उनचास पवन बहने लगे। जिससे आग ने प्रचण्ड रूप धारण किया।
२. आकाश- हनुमानजी अट्टहास करते हुए निकले।
३. पृथ्वी- पृथ्वी पर उन्होंने विशाल रूप धारण किया।
४. अग्नि- अग्नि में रहकर भी वे सुरक्षित रहे।
५. जल- अन्त में वे आग का शमन करने के लिए समुद्र में कूद गए।
हनुमानजी सीताजी के सम्मुख आकर खड़े होते हैं। सीताजी से श्रीराम को देने के लिए कुछ वस्तु माँगते हैं। सीताजी श्रीराम को निशानी के रूप में देने के लिए चूड़ामणि देती हैं और कहती हैं शीघ्रतिशीघ्र श्रीराम मुझे लेने आ जाएं। फिर हनुमानजी समुद्र लाँघ कर उस पार पहुँचते हैं। उन्हें आया हुआ देखकर सभी अत्यधिक प्रसन्न होते हैं-
मिले सकल अति भये सुखारी तलफत मीन पाव जिमिबारी।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. २८-३
श्रीराम और लक्ष्मण स्फटिक शीला पर विराजित हैं। हनुमानजी प्रसन्न वदन होकर उन्हें दण्डवत् करते हैं। सभी वानर समूह हर्षित हैं। बड़ा सुन्दर मनोहारी दृश्य है। जानकीजी की अशोक वाटिका में स्थिति तथा उनके द्वारा दिया गया सन्देश हनुमानजी सुनाते हैं-
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीनबन्धु प्रनतारति हरना।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ३०/२)
हनुमानजी सीताजी की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं-
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ३० दोहा)
सीताजी ने हनुमानजी को ‘सुतÓ कहा। श्रीराम ने भी उन्हें सुत कहा। यह सौभाग्य हनुमानजी को ही प्राप्त हुआ है। श्रीराम को सीताजी द्वारा दी गई निशानी चूड़ामणि उन्हें सौंपते हैं। श्रीराम सजल नयन होकर भावुक हो जाते हैं।
सुन्दरकाण्ड का सम्पूर्ण कथानक अति सुन्दर है। हनुमानजी की अप्रतिम रामभक्ति, स्वामी के प्रति उनका सेवाभाव, समुद्र को लांघ कर उनके द्वारा सीतान्वेषण करना, विभीषण और श्रीराम की मित्रता, शुक और सारण नामक दूतों का श्रीराम के सद्व्यवहार से प्रभावित होना आदि घटनाक्रम अवर्णनीय है। मानव मन को आन्दोलित करता है। सुन्दर है अत: इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड है-
सुन्दरे सुन्दरो राम: सुन्दरे सुन्दरी कथा।
सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे किम् न सुन्दरम्।।
(मानस पीयूष- सुन्दरकाण्ड पृ. २३ गीता प्रेस गोरखपुर)सन्दर्भ ग्रन्थ-
१. श्रीरामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड गीता प्रेस गोरखपुर
२. मानस-पीयूष खण्ड ६ गीता प्रेस गोरखपुर
३. हनुमन्नाटकम् प्रकाशक-चौरवम्बा विद्याभवन वाराणसी २२१००१
श्रीरामचरितमानस में पाँचवें काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड है। अन्य काण्डों के नाम, स्थान विशेष के आधार पर रखे गए हैं यथा- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड। पाँचवें काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड क्यों किया गया इस विषय में प्रबुद्ध विद्वानों में मत वैभिन्न हैं। इसमें श्रीराम के सुत तुल्य परमभक्त एवं सेवक श्रीहनुमानजी के विभिन्न सफल क्रियाकलापों का सविस्तार वर्णन किया गया है। सीतान्वेषण का महत्वपूर्ण कार्य हनुमानजी को सौंपा गया था। उन्होंने पूर्ण सफलता से, बुद्धि कौशल के आधार पर यह कार्य किया है। यहाँ महाकाव्य रामचरितमानस के कथानक की फलश्रुति पूर्णता की ओर अग्रसर होती दृष्टिगोचर होती है। ग्रन्थ में सुन्दरकाण्ड सर्वश्रेष्ठ अंश है।
त्रिकूट पर्वत जहाँ लंका स्थित है, इसके तीन शिखर हैं-
१. नील शिखर- इस पर लंका बसी हुई है।
२. सुबेल शिखर- यह मैदानी भाग है।
३. सुन्दर शिखर- जहाँ अशोक वाटिका है।
आदि कवि वाल्मीकिजी ने इसका प्रस्तुतिकरण इस प्रकार से किया है-
सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे सुन्दर: कपि।
सुन्दरे सुन्दरी वार्ता अत: सुन्दर उच्यते।।
(मानस पीयूष-सुन्दरकाण्ड पृ. २३।गीता प्रेस गोरखपुर)
इस काण्ड में ‘सुन्दरÓ शब्द का बारम्बार प्रयोग किया गया है-
१. सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड १-३)
२. स्याम सरोज दाम सम सुन्दर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १०, चौ. २)
३. तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुन्दर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १३, चौ. १)
४. कनककोट विचित्र मनिकृत
सुन्दरायतना घना। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. २/छंद)
५. सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखी सुन्दर फल रुखा।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १७-४)
६. सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर।। (श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. ३३/२)
हनुमानजी जिस जिस पर्वत पर अपना पैर रखते हैं, वे सभी पाताल में चले जाते हैं। यह उनके असाधारण बल और शरीर सौष्ठव का प्रतीक है। एक आश्चर्यजनक सुन्दर घटना है। हनुमानजी का पथ निर्बाध हो जाता है। तत्पश्चात सुरसा नामक राक्षसी से उनका सामना होता है। वह हनुमान्जी का भक्षण करने के लिए अपने मुख का आकार बढ़ाती है, हनुमानजी भी बत्तीस योजन तक अपना स्वरूप बढ़ा लेते हैं। फिर अचानक बड़े सुन्दर और अद्भुत रूप से अपना स्वरूप अति सूक्ष्म करके उसके मुख में प्रवेश कर बाहर निकल जाते हैं। लंका में प्रवेश करते ही उन्हें लंकिनी नामक राक्षसी मिलती है। वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती है। हनुमानजी मुष्टि प्रहार से उसे रक्तरंजित कर देते हैं। वह सत्संग की सुन्दर व्याख्या करती है-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. ४)
लंका में भीतर प्रवेश करते ही उनकी राम नाम का स्मरण करते हुए विभीषण से भेंट होती है। उसके द्वार पर श्रीराम के धनुष बाण अंकित दिखाई देते हैं। घर के बाहर तुलसीजी का सुन्दर चौरा है। हनुमानजी सोचते हैं कि निश्चित ही यह किसी सज्जन का घर है। यह सम्पूर्ण परिदृश्य हनुमानजी के मन में सुन्दर अनुभूति प्रदान करता है। सुन्दरकाण्ड का सम्पूर्ण कथानक ही सुन्दर है। जहाँ भी हनुमानजी जाते हैं श्रीराम की कृपा से उन्हें पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त होती जाती है। कहीं भी वे असफल नहीं हैं। अशोक वाटिका में त्रिजटा और सीताजी की अंतरंग मित्रता है। त्रिजटा हर संकट की घड़ी में सीताजी के साथ है। अशोक वाटिका में रावण तथा राक्षसियों से दु:खी होकर सीताजी त्रिजटा से चिता बनाने का कहती है जिसमें वह आत्मदाह करना चाहती है। बड़े सुन्दर और आत्मीय भाव से त्रिजटा कहती है-
निसि न अनल मिली सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा १२/३)
एक पुत्री को माता द्वारा जिस प्रकार समझाया जाता है वैसे ही त्रिजटा सीताजी को समझाती है। महाकवि तुलसीदासजी अपने शब्द कौशल से इस दृश्य को मार्मिक और सुन्दर बना देते हैं। इसके पश्चात शोक मग्न अकेली बैठी सीताजी के सामने हनुमानजी अँगूठी गिराते हैं। प्रथम तो वे उसे अंगार समझती हैं फिर उस पर सुन्दर रूप से अंकित राम-नाम लिखा देखती हैं। वे पहचान जाती हैं कि यह श्रीरामजी की मुद्रिका है। हनुमानजी कहते हैं-
सुवर्णस्य सुवर्णस्य सुवर्णस्य च मैथिली।
प्रेषितं रामचन्द्रेण सुवणस्यांगुलीयकम्।।
(हनुमन्नाटक ६-१५)
अर्थात् सुन्दर वर्ण वाले (रामनामाक्षर) युक्त सुवर्ण (दस माशे) की यह सुवर्ण की अँगूठी श्रीराम ने तुम्हारे लिए भेजी है।
अशोक वाटिका में क्षुधापूर्ति करने के पश्चात् वहाँ के रक्षकों का हनुमानजी के साथ मुष्ठिका प्रहार होता है। मध्यस्थता करने के लिए रावण पुत्र अक्षय कुमार आया। हनुमानजी ने उसका वध कर दिया। तब मेघनाद आया। हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र से मारने का प्रयत्न किया। ब्रह्मास्त्र की महिमा को संरक्षित रखने के लिए हनुमान्जी मूर्च्छित हो गए। उन्हें बाँध कर रावण के दरबार में ले जाया गया। सभा में यह निर्णय लिया गया कि कपि की ममता पूँछ पर होती है इसलिए वस्त्र बाँधकर पूँछ में आग लगा दी जाए। सम्पूर्ण लंका नगरी का तेल तथा वस्त्र समाप्त हो गए। पूँछ बढ़ती गई। उसमें आग लगाने पर हनुमानजी सम्पूर्ण लंका में घूमे। विभीषण के घर को छोड़कर सारी लंका जल गई। सर्वत्र भय का वातावरण व्याप्त हो गया। हनुमानजी आग बुझाने के लिए समुद्र में कूद पड़े। निम्न तत्वों ने हनुमानजी की सहायता की-
१. पवनतत्व- उनचास पवन बहने लगे। जिससे आग ने प्रचण्ड रूप धारण किया।
२. आकाश- हनुमानजी अट्टहास करते हुए निकले।
३. पृथ्वी- पृथ्वी पर उन्होंने विशाल रूप धारण किया।
४. अग्नि- अग्नि में रहकर भी वे सुरक्षित रहे।
५. जल- अन्त में वे आग का शमन करने के लिए समुद्र में कूद गए।
हनुमानजी सीताजी के सम्मुख आकर खड़े होते हैं। सीताजी से श्रीराम को देने के लिए कुछ वस्तु माँगते हैं। सीताजी श्रीराम को निशानी के रूप में देने के लिए चूड़ामणि देती हैं और कहती हैं शीघ्रतिशीघ्र श्रीराम मुझे लेने आ जाएं। फिर हनुमानजी समुद्र लाँघ कर उस पार पहुँचते हैं। उन्हें आया हुआ देखकर सभी अत्यधिक प्रसन्न होते हैं-
मिले सकल अति भये सुखारी तलफत मीन पाव जिमिबारी।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. २८-३
श्रीराम और लक्ष्मण स्फटिक शीला पर विराजित हैं। हनुमानजी प्रसन्न वदन होकर उन्हें दण्डवत् करते हैं। सभी वानर समूह हर्षित हैं। बड़ा सुन्दर मनोहारी दृश्य है। जानकीजी की अशोक वाटिका में स्थिति तथा उनके द्वारा दिया गया सन्देश हनुमानजी सुनाते हैं-
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीनबन्धु प्रनतारति हरना।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ३०/२)
हनुमानजी सीताजी की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं-
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ३० दोहा)
सीताजी ने हनुमानजी को ‘सुतÓ कहा। श्रीराम ने भी उन्हें सुत कहा। यह सौभाग्य हनुमानजी को ही प्राप्त हुआ है। श्रीराम को सीताजी द्वारा दी गई निशानी चूड़ामणि उन्हें सौंपते हैं। श्रीराम सजल नयन होकर भावुक हो जाते हैं।
सुन्दरकाण्ड का सम्पूर्ण कथानक अति सुन्दर है। हनुमानजी की अप्रतिम रामभक्ति, स्वामी के प्रति उनका सेवाभाव, समुद्र को लांघ कर उनके द्वारा सीतान्वेषण करना, विभीषण और श्रीराम की मित्रता, शुक और सारण नामक दूतों का श्रीराम के सद्व्यवहार से प्रभावित होना आदि घटनाक्रम अवर्णनीय है। मानव मन को आन्दोलित करता है। सुन्दर है अत: इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड है-
सुन्दरे सुन्दरो राम: सुन्दरे सुन्दरी कथा।
सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे किम् न सुन्दरम्।।
(मानस पीयूष- सुन्दरकाण्ड पृ. २३ गीता प्रेस गोरखपुर)सन्दर्भ ग्रन्थ-
१. श्रीरामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड गीता प्रेस गोरखपुर
२. मानस-पीयूष खण्ड ६ गीता प्रेस गोरखपुर
३. हनुमन्नाटकम् प्रकाशक-चौरवम्बा विद्याभवन वाराणसी २२१००१
प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता