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बहुसंख्य समाज अपमान के घूंट कब तक पीता रहेगा?

बहुसंख्य समाज अपमान के घूंट कब तक पीता रहेगा?
-ललित गर्ग-

हमारे देश के कुछ समूहों, वर्गों, राजनीतिक-गैर राजनीतिक संगठनों एवं सम्प्रदायों में राष्ट्रवाद का अभाव ही अनेक समस्याओं की जड़ है। इसी से धार्मिक उन्माद बढ़ रहा है, इसी से कभी नुपूर शर्मा तो कभी महुआ मोइत्रा के बयानों पर विवाद खड़े हो रहे हैं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म ’काली’ के पोस्टर में मां काली को सिगरेट पीते हुए दिखाकर एक धर्म-विशेष की भावनाओं को आहत करने की कुचेष्टा भी इसी राष्ट्रभावना के अभाव का परिणाम है। अक्सर हिन्दू देवी-देवताओं का उपयोग दुर्भावना से करते हुए उन्हें स्मोक करते हुए दिखाना हो या मांसाहार के प्रचार के रूप में उनका उपयोग किया जाना हो। कभी चप्पलों तक में उनकी तस्वीरों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। कभी टी-शर्ट तो कभी महिलाओं के वस्त्रों में उनका उपयोग भद्दे, घटिया एवं सिद्धान्तहीन लाभ एवं धर्म-विशेष की आस्था को आहत करने की भावना से होता रहा है। प्रश्न है कि सहिष्णु धर्म विशेष कब तक ऐसे हमलों को सहता रहेगा? कब तक ‘सर्वधर्म समभाव’ के नाम पर बहुसंख्य समाज ऐसे अपमान के घूंट पीता रहेगा? समूचे देश में एक वर्ग-विशेष में बढ़ रहे धार्मिक उन्माद पर तुरन्त नियन्त्रण किये जाने की जरूरत है क्योंकि अभी यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं जिनसे राष्ट्रीय एकता को ही गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।
नुपूर शर्मा के बयान को आधार बनाकर उदयपुर एवं अमरावती में जिस तरह से दो व्यक्तियों का गला रेत कर हत्या करके समूचे देश को डराने एवं धमकाने की कोशिशें की गयी हैं, इन निन्दनीय एवं त्रासद घटनाओं पर गहन मंथन किये जाने की जरूरत है। नुपूर शर्मा ने जो कहा और जिसे लेकर देश-दुनिया में जो हंगामा बरपा, जो विवाद खड़े किये गये, वह उन्होंने भगवान शिव के अनादर के प्रतिकार में कहा। इसे हम देश-दुनिया के समक्ष सही एवं तथ्यपरक तरीके से स्पष्ट नहीं कर सके और इसीलिये कई इस्लामी देशों ने हमें आंख दिखाई। हम यह भी नहीं बता पाये कि शिवलिंग को लेकर कैसी भद्दी, अपमानजनक एवं घटिया टिप्पणियां की गई और किस तरह उनका उपहास उड़ाया गया। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि देश की प्रमुख दरगाह अजमेर शरीफ के जिम्मेदार खादिमों ने सच्चाई को जानते हुए जानबूझकर भड़काऊ एवं उन्मादी भाषणों सेे आग में घी डालने का काम किया। ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं। इस स्थान को भारत की मिली- जुली संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। उसी दरगाह के एक खादिम के हिंसक एवं उन्मादी विचार हैं तो क्या हिन्दू हाथ पर हाथ धरे देखते रहेंगे?
नूपुर शर्मा के विरोध में निकाले गये मुस्लिम समुदाय के जुलूसों में ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाना पूरी तरह संविधान का उल्लंघन था और आम मुसलमान को हिंसा के लिए प्रेरित करने वाला था। इसका प्रतिकार उसी समय यदि मुस्लिम उलेमाओं व दारुल उलूम जैसी संस्थाओं द्वारा किया जाता तो न उदयपुर में कन्हैयालाल का कत्ल होता और न ही अमरावती में उमेश कोल्हे को मौत के घाट उतारा जाता। सवाल सिर्फ संविधान का पालन करने का था। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण तो अजमेर शरीफ की दरगाह का खादिम सलमान चिश्ती का वीडियो है जिसमें वह मुसलमानों को भड़काते हुए कहता है कि जो कोई भी नूपुर शर्मा का सिर लायेगा उसे इनाम में वह अपना घर दे देगा। यह बयान स्पष्ट करता है कि मुसलमानों के दिलों में कितना जहर भरा जा रहा है, उन्हें हिंसा एवं उन्माद के लिये कितना उकसाया जाता है। यह कैसी धार्मिकता है? यदि गौर से देखा जाये तो यह सब तालिबानी मानसिकता का ही एक स्वरूप है। यह मानसिकता मानवीयता को रौंधते हुए केवल कट्टरवादी सोच को विकसित करती है।
देश में अनेक राजनीति एवं गैर-राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित अराष्ट्रवादी एवं अराजक शक्तियां भी हैं जो देश की एकता, शांति एवं अमन-चैन को छिनने के लिये तत्पर रहती है, ऐसी ही शक्तियों में डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘काली’ की प्रोड्यूसर लीना मणिमेकलाई एवं तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा है,  जो असंख्य श्रद्धालुओं की केन्द्र मां काली को स्मोक करते हुए जारी किये गये विवादास्पद पोस्टर के नाम पर देश की शांति को भंग करने पर तूली है। जिस पर कांग्रेस का एक वर्ग समर्थन कर रहा है तो दूसरी ओर कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने सबसे सम्मानित देवी में से एक के द्दश्य प्रदर्शन पर आयोजकों को कई बार सोचना की सलाह दी है। उन्होंने कहा,‘‘मैं मानता हूं कि एक संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए कि प्रतीकों, हमारी आस्था का सार, हमारी संस्कृति के दिल और आत्मा को कोई भी, कहीं भी तुच्छ नहीं बना सकता।’ दरअसल, इस भद्दे तरीके से मां काली को सिगरेट पीते हुए दिखाया जाये और विरोध में हिंदू संगठन सक्रिय न हो, यह कैसे संभव है?
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए बीते 75 सालों में हमें जहां पहुंचना था, वहां न पहुंच कर उस जगह पहुंच गये जहां राष्ट्रवाद ही धुंधला हो गया है। विविधता में एकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा के नाम पर यहां की बहुसंख्य आबादी को ही हमेशा झुकना पड़ा, उनका ही शोषण हुआ, फिर भी यह बहुसंख्य आबादी अनेक आघातों को सहकर भी अपनी सांझा-संस्कृति की सुरक्षा के लिये हर तरह का त्याग किया, बलिदान दिया।  इसके लिये ही हमने जिस धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारा उसका मतलब किसी भी मजहब के लोगों का तुष्टीकरण नहीं था बल्कि प्रत्येक धर्म को एक समान दृष्टि से देखना था। चूंकि यह देश हिन्दू बहुल है अतः स्वयं को हिन्दू कहने वाले नागरिकों को ही सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि उनके धर्म में कट्टरता का प्रवेश किसी सूरत से न हो सके और उनकी सनातन संस्कृति सुरक्षित रहे। परन्तु दूसरी तरफ देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय माने जाने वाले मुसलमान नागरिकों को भी यह विचार करना होगा कि वे उस हिन्दुस्तान के नागरिक हैं जिसकी संस्कृति में ही आपसी प्रेम और भाईचारा घुला हुआ है। हर मुसलमान को राष्ट्रवादी तो बनना ही होगा। यह राष्ट्रवाद की लगाम निरपेक्ष रूप से कसी जानी चाहिए जिससे प्रत्येक धर्म के अनुयायी नागरिक की पहली पहचान ‘भारतीय’ ही हो सके। लेकिन मुस्लिम जन-मानस ने इसे क्रियारूप में स्वीकारा नहीं। हमारे ”सर्वधर्म समभाव“ का तात्पर्य सब धर्मों के अस्तित्व को एक समान दर्जा व आदर भाव देने का एक भावात्मक प्रयास किया है। पर इस ”सद्भावना“ के नाम पर हिन्दू कब तक छला जायेगा, आहत होगा। धर्मनिरपेक्षता अथवा उसके लिए चाहे जो अन्य शब्द का प्रयोग करें, विभिन्न धर्मों, संस्कृति और परम्पराओं की विविधता के बावजूद भारत को जो एक रखती आई है, कट्टरपंथियों ने इसकी मूलभूत भावना को विद्रूप कर दिया। परन्तु समस्या का समाधान उसका विकल्प खोजने में नहीं अपितु पुनः अर्जित करने में है।
आज समाज का सारा नक्शा बदल रहा है। परस्पर समभाव या सद्भाव केवल अब शिक्षा देने तक रह गया है। हो सकता है भीतर ही भीतर कुछ घटित हो रहा है। ये हालात जो सामने आ रहे हैं, वे आजादी के पहले से ही अन्दर ही अन्दर पनप रहे थे। राष्ट्र जिन डाटों के सहारे सुरक्षित था, लगता है उनको हमारे नेताओं की वोट नीति, कट्टरवादियों की उन्मादी सोच व अवांछनीय तत्वों ने खोल दिया है। धर्म तो पवित्र चीज है। इसके प्रति श्रद्धा हो। अवश्य होनी चाहिए। पूर्ण रूप से होनी चाहिए। परन्तु धर्म की जब तक अन्धविश्वास से मुक्ति नहीं होगी तब तक वास्तविक धर्म का जन्म नहीं होगा। धर्म विश्वास में नहीं, विवेक में है। अन्यथा अन्धविश्वास का फायदा राजनीतिज्ञ, जिहादी-उन्मादी, आतंकवादी एवं पडोसी देश उठाते रहेंगे। संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष का शब्दार्थ कुछ भी किया हो, सकारात्मक या नकारात्मक, पर अगर देश को एक बनाए रखना है, साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखना है, तो सभी धर्मावलम्बियों को दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव रखना होगा। अन्यथा स्वयं को बहुसंख्यक बनाने की होड के बहाने चेहरे बदलते रहेंगे, झण्डे बदलते रहेंगे, नारे बदलते रहेंगे, परिभाषाएं बदलती रहेंगी, मन नहीं बदल सकेंगे। ‘सर्वधर्म समभाव’ भारत की रगों में बहता है। परन्तु यह भी इसी देश का दुर्भाग्य है कि पिछली सदी में इसमें ‘मुस्लिम लीग’ जैसी संकीर्ण राजनीतिक सोच का जन्म हुआ और इसका नेता मुहम्मद अली जिन्ना बना जिसने भारत के ही मुसलमानों के लिए अलग मुल्क पाकिस्तान का निर्माण लाखों लोगों की लाशों पर कराया। निश्चित रूप से ऐसा केवल मुसलमानों को धर्माेन्मादी या कट्टर बना कर किया गया। अतः आज सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि जो मुस्लिम खादिम, मुस्लिम नेता, उलेमा या धर्माेपदेशक मुसलमानों मंे कट्टरता भरना चाहते हैं उन्हें संविधान के दायरे में लाकर सुधारा जाये। कानून केवल हिन्दुओं के लिये ही नहीं, मुसलमानों के लिये कठोरता से लागू किये जाये।

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