श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
गुजराती गिरधर रामायण के अनुसार सब दानों में अन्नदान ही सर्वश्रेष्ठ है
एक समय की बात है कि श्रीराम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में गए। उन्होंने महर्षि अगस्त्य को दण्डवत प्रणाम, नमस्कार किया। श्रीरघुपति को देखते ही महर्षि अगस्त्य उठ खड़े हो गए तथा उन्होंने बाहों में भरकर उनका आलिंगन किया।
कुम्भज अर्थात् अगस्त्य ने श्रीराम का आलिंगन किया तथा वे आनन्दित हो गए। महर्षि बोले- हे श्रीरामजी! आपने मुझे पावन कर दिया। आज का यह दिन और घड़ी धन्य है। तदनन्तर उन्होंने आसन पर बैठाकर बहुत विनयपूर्वक उनका आदर-सत्कार किया फिर उन्होंने प्रभु को पके हुए तथा मीठे फल का आहार कराया तथा जलप्राशन करा दिया।
पछे जुग्म कंकण होम हीरा, रत्नजड़ित विशाल,
ते पहेराव्यां श्रीराम ने कर, अगस्त्य तत्काल।
थया प्रसन्न कंकण जोईने, पूछयुं मुनि ने राम,
कृतविधि वस्तु स्वर्गनी क्यांथी तमारे धाम।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-४-५
अनन्तर अगस्त्य ने हीरे तथा रत्न जड़े हुए सोने के कंकणों की जोड़ी श्रीराम के हाथों में तत्काल पहना दी। श्रीराम कंकणों को देखकर प्रसन्न हो गए। फिर उन्होंने मुनि से पूछा- ‘विधाता (ब्रह्माजी) द्वारा बनाई हुई यह स्वर्ग की वस्तु आपके घर कहाँ से कैसे आ गई है?
तब अगस्त्यजी ने कहा- हे प्रभु सुनिए मैं इन कंकणों के बारे में बताता हूँ। ये मनुष्य लोक में नहीं मिलते हैं, ये सचमुच सदा दुर्लभ हैं।
विदर्भ देश का एक राजा था। उसका नाम सत्यवान था। वह महान तपस्वी और पुण्यवान था। वह परिचित अपरिचित का भेदभाव न रखते हुए सभी को दान देता था। उसने रत्न और सोने के आभूषण, घोड़े, हाथी और रथ आदि अपाररूप से दान में दिए। उसने निश्चय ही एक अन्नदान को छोड़कर सब कुछ दान दिया था। उसकी आयु पूर्ण होने पर उसकी मृत्यु हो गई। उस राजा के पुण्य प्रताप के कारण उसे दिव्य शरीर प्राप्त हुआ और तब विमान में बैठकर स्वर्ग में चला गया।
त्यां भोग नाना भातना, ते भोगवतो राजन,
पण अन्नदान कर्यू नथी, माटे क्षुधा पीडे तन।
विधि ने कह्युं मुने क्षुधा पीडे, आहार आपो आज,
में भूख्या रहेवातुं नथी, नव गमे सुख महाराज।
एवां वचन सुणी ते रायनां, बोल्या प्रजापति भगवान,
हुं रवावा शुं आपुं तने, नथी कर्युं ते अन्नदान।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-११-१२-१३
वह राजा नाना प्रकार के भोगों का उपयोग करता था किन्तु उसने अपने जीवन में कभी भी अन्नदान नहीं किया। इसलिए उसके शरीर को भूख पीड़ा पहुँचा रही थी। तब उसने विधाता (ब्रह्माजी) से कहा, मुझे भूख सता रही है। मुझे भोजन दीजिए। हे महाराज अब मुझसे भूखा नहीं रहा जा रहा है। यह स्वर्ग का सुख मुझे नहीं भा (अच्छा) लग रहा है। उस राजा की ऐसी बातें सुनकर प्रजापति भगवान ब्रह्माजी बोले तुमने अन्नदान कभी भी नहीं दिया है अत: मैं तुम्हें खाने को क्या दूँ।
इस प्रकार विधाता ने और भी बहुत सी बातें कही परन्तु उस राजा ने हठकर लिया तो प्रजापति क्रुद्ध हो गई। फिर वे क्रोध युक्त वचन बोले- तुम प्रेत होकर अपने ही शरीर का मांस भक्षण करते रहे- वह शरीर कभी भी समाप्त नहीं होगा। इस प्रकार ब्रह्माजी बोले- हे राम, विधाता की बात के अनुसार वह राजा भूत (प्रेतात्मा) बन गया था। विधाता के वचन की शक्ति से वह शरीर के मांस खाने के बाद भी उसका शरीर समाप्त नहीं हो रहा था।
इस तरह कई दिन बीत गए तो वह राजा व्याकुल हो गया। वह राजा प्रेतात्मा का रूप धारण करके नित्य भक्षण करने के लिए आ जाता था और फिर देव होकर स्वर्ग में लौट जाता था। हे रघुपति सुनिए अन्नदान सबसे परे एवं बड़ा है। बिना अन्न के किसी अन्य उपाय से किसी के भी प्राण नहीं रह सकते।
ज्यम शांति सम नहि सुख बीजुं, गुरु सम नहि सेव,
उदार सम धनवंत नहिं, शंभु समान नहि देव।
ज्यम तिथिमां द्वादशी मोटी, तीरथ माँहे प्रयाग,
नहि मंत्र हरिना नाम सम, ब्रह्म यज्ञ सम नहि याग।
एम दानमां अन्नदान छे, बीजुं न ए सम तुल्य,
जे थकी थाये तृप्त जन, ते माटे एह अमूल्य।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय २१-२० से २२
जिस प्रकार शांति के समान कोई दूसरा सुख नहीं है। गुरु के समान कोई सेव्य (सेवा करने योग्य) नहीं होता, उदार के समान कोई (सच्चा) धनवान नहीं होता, शिवजी के समान कोई अन्य देवता नहीं है। जिस प्रकार तिथियों में द्वादशी बड़ी (महिमाशाली) मानी जाती, तीर्थ स्थलों में प्रयाग श्रेष्ठ माना जाता है, हरि के नाम मंत्र के समान कोई और मन्त्र नहीं है, ब्रह्म-यज्ञ के समान कोई और यज्ञ नहीं है। उसी प्रकार समस्त दानों में ‘अन्नदानÓ सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि है, दूसरा कोई दान इसके तुलना (समान-बराबर) नहीं है। इससे लोग तृप्त हो जाते हैं इसलिए वह अनमोल दान माना जाता है।
अन्नदान करने की कोई विशेष विधि नहीं है, समझ लीजिए कि उसका कोई देश और काल निश्चित नहीं है। बस भूखे को अन्न देना है उसमें पात्र-अपात्र का कोई अन्य प्रमाण नहीं है। इसलिए हे सीतापति अन्नदान की बड़ी महिमा है। वह राजा नित्य अपने शरीर का मांस खाकर विमान में बैठकर जाता था। एक समय राजा ने प्रार्थना करते हुए ब्रह्माजी से पूछा- हे महाराज, मेरा यह कार्य किस प्रकार छुडया जाएगा। तब प्रजापति ब्रह्माजी को उस पर दया आ गई, तो वे स्नेहपूर्वक बोले- हे राजा अगस्त्य ऋषि के दर्शन करने पर तुम्हें तृप्ति हो जाएगी। विधाता के ऐसे वचन सुनते ही वह राजा मेरे पास आ गया। उसने अपना दु:ख निवेदन किया और वह हाथ जोड़कर मेरे चरण स्पर्श किए। मैंने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा हे श्री भगवान सुनिए आपकी भक्ति के प्रताप से मैंने उसे अभय का वरदान दे दिया। फलत: उसकी क्षुधा-निवृत्ति हो गई। उसकी भूख मिट गई और उसके प्राण तृप्त हो गए। तब इसका प्रेतात्मा स्वरूप टल गया और वह अन्त में सुखी हो गया।
ते राय पासे पासे हतां कंकण, विधि निरमित जेह,
मने आपीने गयो स्वर्गलोक, सुनो राघव तेह।
ते में तमने आपियां, रघुपति कंकण आज,
कर्यूं पान अमृत तृणुं भूपे, सुणो श्रीमहाराज।
गुजराती गिरधर रामायण उत्तरकाण्ड, अध्याय २१-३०-३१
उस राजा के पास ये कंकण थे जो विधाता द्वारा निर्मित थे। हे राघव सुनिए वह राजा मुझे कंकण देकर स्वर्गलोक चला गया। हे रघुपति आज मैंने वे कंकण आपको दिए हैं श्री महाराज सुनिए, उस राजा ने स्वर्गलोक में जाकर अमृत पान कर लिया। महर्षि कुम्भज (अगस्त्य) के ऐसे वचन सुनकर श्री रघुनाथजी प्रसन्न हो गए।
इस प्रकार सम्पूर्ण प्रसंग में अन्नदान को सर्वश्रेष्ठ निरूपित किया गया है। यदि हम किसी भी व्यक्ति को कुछ धन दान करे तो याचक मन में सोचता है कि दाता के पास खूब धन है किन्तु इसने मुझे कम दिया है यह कंजूस है। इसके विपरीत यदि हम किसी को भोजन करने आमंत्रित करें तथा उसे भरपेट भोजन के बाद थोड़ा सा आग्रह कर कुछ और मिठाई या भोजन सामग्री देने लगे तो वह डकार लेकर कहता है कि अब आपके हाथ जोड़ता हूँ आप यहाँ से चले जाइए किसी और को भोजन परोसिये। अत: मनुष्य की तृप्ति दुनियाँ की किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती है अतएव अन्नदान सब दानों में सर्वोपरि है। सच्ची तृप्ति-सुख अन्न से ही प्राप्त होता है।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता