दो पद-एक व्यक्ति: व्यवस्था पर प्रश्न*
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_-राजेश बैरागी-_
एक जनप्रतिनिधि और एक प्रशासनिक अधिकारी की योग्यता में कितना अंतर होता है? अधिकारी निस्संदेह अपने द्वारा ग्रहण किए जाने वाले पद के लिए निर्धारित परीक्षा पास करने के पश्चात ही उस पद पर आसीन हो सकता है। जनप्रतिनिधि की परीक्षा जनप्रिय होना है और उसे यह परीक्षा प्रत्येक पांच वर्ष में पुनः पुनः देनी पड़ती है। यह विश्लेषण इसलिए प्रासंगिक है कि चुनाव आयोग जनप्रतिनिधियों को एक से अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ने के विरुद्ध है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में एक से अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है परंतु दोनों स्थानों पर चुनाव जीतने के बाद एक स्थान से ऐसे जनप्रतिनिधि को त्यागपत्र देने की अनिवार्यता है। ऐसे में उस स्थान पर उपचुनाव में होने वाले खर्च और प्रशासनिक भागदौड़ को रोकने के लिए भारत का निर्वाचन आयोग एक से अधिक स्थानों से चुनाव लड़ने की छूट समाप्त करना चाहता है। प्रशासनिक अधिकारियों पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। सरकारें अपने पसंदीदा अधिकारियों को एक साथ कई विभागों, संस्थानों या प्राधिकरणों में नियुक्ति दे देती हैं। प्रशासनिक अधिकारी को अपनी नियुक्ति वाले स्थान पर अपेक्षित और निर्धारित कार्यों को अंजाम देने का दायित्व होता है। अधिकारी और जनप्रतिनिधि दोनों को ही नागरिकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है। क्या एक से अधिक स्थानों पर नियुक्त अधिकारी अपने दायित्व को सही से अंजाम दे सकता है? सभी सुधीजन इससे सहमत होंगे कि कई दायित्वों का एक साथ निर्वाह करना किसी भी अधिकारी या व्यक्ति के लिए असंभव जैसा है। आमतौर पर एक से अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ने वाले अधिकतर वरिष्ठ राजनीतिक होते हैं। मतदाताओं के प्रति अविश्वास होने की दशा में वे अपनी परंपरागत सीट के साथ दूसरे स्थान से भी चुनाव लड़ते हैं।2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी ने इसी कारण अमेठी के साथ केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ा। उन्होंने सही किया अन्यथा वे अमेठी के मतदाताओं के भरोसे वर्तमान लोकसभा में नहीं पहुंच पाते। इसी चुनाव में नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के साथ गुजरात के गांधीनगर से भी चुनाव लड़ा और दोनों स्थानों से विजयी होकर अपनी उत्तर से पश्चिम तक लोकप्रियता साबित की। मुझे यह कहने का अधिकार नहीं है कि जनप्रतिनिधियों को दो स्थानों का प्रतिनिधित्व करने की छूट दी जानी चाहिए। परंतु अधिकारियों को एक साथ कई पदों का दायित्व देना भी नागरिकों के अधिकारों का हनन ही है। इस मसले पर न तो चुनाव आयोग और न प्रशासनिक न्यायाधिकरण का ही ध्यान है। तो क्या यह व्यवस्था ठीक है?