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भारतीय सांस्कृतिक

ह्रदय नारायण दीक्षित
श्रद्धा और सत्य का प्रणय संस्कृति है। संस्कृति इस राष्ट्र का प्राण है। भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। यहां की संस्कृति अति प्राचीन है। विश्व विराट संरचना है। भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि में यह परिवार है। पृथ्वी भौतिक इकाई है, सांस्कृतिक दृष्टि से यह माता हैं। आकाश भौतिक दृष्टि में खगोलीय संरचना हैं, सांस्कृतिक दृष्टि में आकाश पिता हैं। सूर्य ऊर्जा का विराट केन्द्र हैं, सांस्कृतिक दृष्टि में वे उपास्य सविता देव हैं। नदियां प्रवाहमान जल हैं, सांस्कृतिक दृष्टि से वे जलमाताएं हैं। हिन्दी संस्कृत सहित देश की सभी भाषाओं में यहां विपुल साहित्य रचा गया है। संगीत, नृत्य, मूर्तिकला, चित्रकारी आदि कलाओं से समृद्ध संस्कृति विश्व प्रतिष्ठ है। यहां धर्म भी संस्कृति का प्रेरक रहा है। यहां प्राचीन काल से सांस्कृतिक केन्द्रों के दर्शन तीर्थाटन, पर्व और उत्सव की परंपरा रही है। ऐसे सभी आयोजन अर्थव्यवस्था को भी लाभ पहुंचाते हैं। विदेशी सत्ता के दौरान तीर्थाटन पर जजिया लगा। स्वतंत्र भारत की कुछ सरकारों ने तीर्थाटन को किनारे किया। साम्प्रदायिक बताया। लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संस्कृति संवर्द्धन को अतिरिक्त महत्व दिया है। वे 11 अक्टूबर को मध्य प्रदेश स्थित ‘‘महाकालेश्वर लोक‘‘ का लोकार्पण करेंगे। इल्तुतमिस ने इस मंदिर का ध्वंस सन् 1235 में किया था। कालिदास ने मेघदूत में महाकाल मंदिर की प्रशंसा की है। उन्होंने मेघ से कहा, ‘‘तुम महाकाल के मंदिर में सांझ होने के पहले पहुँच जाओ, रुके रहना। महादेव की सांझ सुहानी आरती में तुम भी अपने गर्जन का नगाड़ा बजाना।‘‘
तीर्थ भारत के मन का आकर्षण रहे है। तीर्थों में जाना, दरश परस करना आनंदवर्धक रहा है। वैसे घर से बाहर पर्वत, नदी आदि सुंदर क्षेत्रों में घूमना पर्यटन कहा जाता है। लेकिन पर्यटन से घर लौटे व्यक्ति परिवार में उल्लास नहीं होता। पर्यटक उपभोक्ता होता है और तीर्थयात्री सांस्कृतिक।  तीर्थ से लौटे व्यक्ति परिवार में आनंद होता है। तीर्थ असाधारण मान्यता है। यह मान्यता हजारों बरस प्राचीन है। भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। पर्यटन में अर्थ और काम केवल दो पुरुषार्थ हैं लेकिन तीर्थाटन में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थ हैं। ऋग्वेद (10-3-13) में तीर्थ का अर्थ पवित्र स्थान है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ‘‘साधना‘‘ में तीर्थ की प्रशंसा की है, ‘‘भारत ने तीर्थ यात्रा के स्थलों को वहां चुना, जहां प्रकृति में कुछ विशिष्ट रमणीयता या सुंदरता थी, जिससे कि उसका मन संकीर्ण आवश्यकताओं के ऊपर उठ सके और अनंत में अपनी स्थिति का परिज्ञान कर सके।‘‘ तीर्थों की प्रतिष्ठा की तरह यहां उत्सव और पर्व भी आमजनों के आकर्षण हैं। भारत में सैकड़ों उत्सव हैं। प्रत्येक तीर्थ पर तमाम दुकानें स्थाई रूप में होती हैं। पर्व त्योहारों के अवसर पर तमाम नई दुकानें भी खुल जाती हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से तीर्थों, उत्सवों और पर्वों में लोग सामूहिक रूप से हिस्सा लेते हैं। इन सभी स्थानों और अवसरों की एक अर्थव्यवस्था होती है। छोटे व्यवसायी के यहां भी युवकों को रोजगार मिलता है।
प्रत्येक समाज की एक संस्कृति होती है। प्रवाहमान संस्कृति की एक अर्थव्यवस्था भी होती है। भारतीय संस्कृति की भी एक अर्थव्यवस्था है। भारतीय उत्सवों और पर्वों में कुछ न कुछ खरीदारी की परंपरा है। दशहरा अभी गया है। पूरे देश में इस अवसर पर खूब खरीदारी हुई है। दीपावली की तैयारी प्रारम्भ हो गई है। दीपावली पर व इसके पहले धनतेरस के अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ खरीदता है। छोटे ग्लास से लेकर टी०वी०, वाशिंग मशीन, चांदी सोने के आभूषणों की दुकानों पर भारी भीड़ जमा होती है। वाहनों की खरीद भी बढ़ जाती है। त्योहार पर्व खरीदारी का अवसर होते हैं और सांस्कृतिक आनंद के भी।
कुम्भ प्राचीन सांस्कृतिक प्रतीक है। कलश के मुख में विष्णु, ग्रीवा में रूद्र और मूल में ब्रह्मा का निवास है। सप्तसिंधु, सप्तद्वीप और गृह नक्षत्र व ज्ञान भी कुम्भ कलश में निवास करते हैं। ‘हरिद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तीरे‘ इन चारों स्थलों पर कुम्भ मेला लगता है। प्रयाग का कुम्भ दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। कुम्भ में करोड़ों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। यहां आस्था का आश्चर्यजनक दर्शन दिग्दर्शन है। अरबों की खरीद बिक्री होती है। भारत में नदियां उपास्य हैं। वेदों में इन्हें पवित्र करने वाली माता कहा गया है। उन्हें मोक्षदायिनी भी कहा गया है। गंगा मोक्षदायिनी हैं हीं लेकिन यहां सारी नदियां पूंजी जाती हैं। इन नदियों के तट पर भिन्न भिन्न अवसरों पर्वों और त्योहारों पर लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। मेले लगते हैं। खरीदारी होती हैं। इसका लाभ स्थानीय लोगों को मिलता है और बाहर से आए हुए व्यवसाइयों को भी।
संस्कृति का संवर्द्धन राष्ट्र का कर्तव्य है। भारत में हजारों सांस्कृतिक प्रतीक हैं। ए०एस०आई० की सूची में 4134 संरक्षित स्मारक हैं। लोग इन्हें देखने आते हैं। इसी तरह लाखों उपासना स्थल हैं। वे भारत के मन को धीरज और साहस देते हैं। यह अच्छी बात है पिछले 8 वर्षों में तमाम सांस्कृतिक प्रतीकों को भव्य और आकर्षक बनाने का काम हुआ है। अब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर आनंददायक दर्शनीय स्थल है। अयोध्या विश्व आकर्षण है। मथुरा वृंदावन को भी दिव्य और भव्य बनाने का काम चल रहा है। बुलेट ट्रेन का परिपथ संस्कृति का संवर्द्धन करने वाला है। इस परिपथ में दिल्ली-मथुरा-लखनऊ-अयोध्या-काशी मुख्य सांस्कृतिक स्थल हैं। जम्मू कश्मीर की वैष्णो देवी की यात्रा अब दुर्गम नहीं रही। दिल्ली से एक विशेष ट्रेन वैष्णो देवी तीर्थ तक जाती है। उत्तराखंड में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री में प्रत्येक ऋतु के अनुकूल चार धाम रोड बनायी जा रही है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनका वन गमन मार्ग लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है। मार्ग का सुंदर विकास हुआ है।
भारतीय संस्कृति का जन्म जिज्ञासा और दर्शन से हुआ है। डारविन ने जिज्ञासा को ‘‘इंटेलेक्चुअल इमोशन‘‘ कहा है। संस्कृति अनुकरणीय आचार और व्यवहार है। यह सभी असहमतियों को समृद्ध भारत के एक लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध करने की मानविकी है। सांस्कृतिक मानव संसाधन से राष्ट्रीय एकता मजबूत होती है। भारतीय संस्कृति में आत्म रूपांतरण की अद्भुत क्षमता है। सांस्कृतिक प्रवाह में कालवाह्य को छोड़ने और काल संगत को जोड़ने की प्रक्रिया चला करती है। संगीत, नृत्य, काव्य, साहित्य और मूर्तिकला और स्थापत्य संस्कृति के अंग हैं। इन सबका सम्बंध भी अर्थव्यवस्था से है। इनसे सम्बंधित अर्थव्यवस्था को संस्कृति से जोड़ना चाहिए और ऐसा हो भी रहा है। दक्षिण भारत के विशालकाय मंदिरों से लेकर उत्तर में केदार बद्री तक संस्कृति से जुडी अर्थव्यवस्था गतिशील है। देश के सभी सांस्कृतिक प्रतीकों, मंदिरों, दर्शनीय स्थलों, समुद्रों और नदियों पर लगने वाले मेलों में होने वाली खरीद महत्वपूर्ण है। सांस्कृतिक प्रतीकों के पुर्ननवीनीकरण से एक विशेष प्रकार की सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का विकास संभव है। नौजवानों के लिए यहां विशेष प्रकार के रोजगार है और व्यवसायियों के लिए विशेष प्रकार का आर्थिक अवसर। सांस्कृतिक प्रतीकों को दिव्य भव्य और आधुनिक बनाने का काम चल रहा है। इस नवाचार से संस्कृति संवर्द्धन होगा। अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा।

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