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गाय है भारतीय संस्कृति का तिलक

गाय है भारतीय संस्कृति का तिलक
– ललित गर्ग –

भारत त्यौहारों का धर्म परायण देश है। दीपावली पर्व श्रृंखला में एक पर्व गोपाष्टमी है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गोपाष्टमी पर गोपूजन उत्सव बड़े उल्लास से मनाया जाता है। विशेषकर गौशालाओं के लिए यह बड़े महत्व का उत्सव है। इस दिन गौशालाओं में एक मेला जैसा लग जाता है। गौ कीर्तन-यात्राएं निकाली जाती हैं। घर-घर व गांव-गांव में मनाये जाने वाले इस उत्सव में भंडारे किए जाते हैं, गौ को स्नान कराया जाता है, गौ पूजा की जाती है, जिनका शास्त्रीय महत्व है। भारत में गौ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष दात्री मानी गयी है। गौ को माता कहा गया है। गौ में सर्व देवी-देवताओं का वास कहा गया। उसके मूत्र में गंगा व गोबर में लक्ष्मी का वास है। गौ के समस्त उत्पाद जीवन-रक्षक होते हैं। गौ से जुड़ी आस्था एवं उपयोगिता को देखते हुए गतदिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दिया जाने की मांग करते हुए कहा है कि गाय का भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। गाय को भारत देश में मां के रूप में जाना जाता है और देवताओं की तरह उसकी पूजा होती है। गाय भारत के लिये केवल एक जन्तु नहीं है, बल्कि वह जन-जन की आस्था का केन्द्र है। मां के दूध के बाद केवल गाय के दूध को ही अमृत तुल्य माना गया है। गौवंश संवर्धन देश की जरूरत है। गौ पर स्वार्थ एवं संकीर्णता की राजनीति करने वालों की समझ एवं विवेक जागे, यह अपेक्षित है।  
आज जब दुनिया के बहुत से देश अपनी संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं और भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों के संघर्ष के बाद भी कायम है तो इसके मूल में कहीं न कहीं गाय है। गाय हमारी संस्कृति की प्राण है, चेतना है। प्राचीन काल से ही गाय भारतीय संस्कृति व परंपरा का मूलाधार रही है। गंगा, गोमती, गीता, गोविंद की भांति शास्त्रों में गाय भी अत्यंत पवित्र मानी गई है। गोपालन व गौ-सेवा तथा गोदान की हमारी संस्कृति में महान परंपरा रही है। गौ-सेवा भी सुख व समृद्धि का एक मार्ग है। वेद-पुराण, स्मृतियां सभी गौ-सेवा की उत्कृष्टता से ओत-प्रोत हैं। दरअसल भारत की संस्कृति मूल रूप से गौ-संस्कृति कही जाती है। गाय श्रद्धा के साथ-साथ हमारी अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य एवं संस्कृति का प्रमुख आधार है।
हिन्दू धर्म में गाय का महत्व इसलिए नहीं रहा कि प्राचीन काल में भारत एक कृषि प्रधान देश था और आज भी है और गाय को अर्थव्यस्था की रीढ़ माना जाता था। भारत जैसे और भी देश है, जो कृषि प्रधान रहे हैं लेकिन वहां गाय को इतना महत्व नहीं मिला, जितना भारत में। दरअसल हिन्दू धर्म में गाय के महत्व के कुछ आध्यात्मिक, धार्मिक और चिकित्सीय कारण भी रहे हैं। गाय एकमात्र ऐसा पशु है जिसका सब कुछ सभी की सेवा में काम आता है। गाय का दूध, मूत्र, गोबर के अलावा दूध से निकला घी, दही, छाछ, मक्खन आदि सभी बहुत ही उपयोगी है। वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है, जबकि मनुष्य सहित सभी प्राणी ऑक्सीजन लेते और कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। पेड़-पौधे इसका ठीक उल्टा करते हैं। आजकल भूमि भी जहरीली होती जा रही है जिससे उसमें उगने वाली वनस्पतियों में विषाक्तता बढ़ती जा रही है। इसके लिए हमें गोबर की खाद का प्रयोग करना होगा, तभी हमारी भूमि बच सकती है। इसके लिए हमें गाय को बचाना होगा।
गाय को माता का स्थान देने वाली भारतीय संस्कृति दुनिया के लिये उपयोगी है। जिस प्रकार माँ अपने बच्चे का लालन-पालन व सुरक्षा करती है, उसी प्रकार गौ का दूध आदि भी मनुष्य का लालन-पालन तथा स्वास्थ्य व सद्गुणों की सुरक्षा करते हैं। गाय की पूजा, परिक्रमा व स्पर्श स्वास्थ्य, आर्थिक व आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। गाय को श्रद्धा व प्रेमपूर्वक सहलाते रहने से कुछ महीनों में असाध्य रोग भी ठीक हो जाते हैं। देशी गाय एवं गौ-विज्ञान सम्पूर्ण विश्व को भारत की अनुपम देन है। भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण गोवंश को मानव के अस्तित्व, रक्षण, पोषण, विकास और संवर्धन के लिए अनिवार्य पाया। गौ-दुग्ध ने जन-समाज को विशिष्ट शक्ति, बल व सात्त्विक बुद्धि प्रदान की। गोबर व गोमूत्र खेती के लिए पोषक हैं, साथ ही ये रोगाणुनाशक, विषनाशक व रक्तशोधक भी हैं। मृत पशुओं से प्राप्त चर्म से चर्माेद्योग सहित अनेक हस्तोद्योगों का विकास हुआ। अतः प्राचीन काल से ही गोपालन भारतीय जीवन-शैली व अर्थव्यवस्था का सदैव केन्द्र बिन्दु रहा है। इसलिये गौ-माता से जुड़ा पर्व गोपाष्टमी का महत्व सार्वकालिक, सार्वदैशिक एवं सार्वभौमिक है।
गोपाष्टमी महोत्सव गोवर्धन पर्वत एवं भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा उत्सव भी है। गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक गाय व सभी गोप-गोपियों की रक्षा के लिए अपनी एक अंगुली पर धारण किया था। गोवर्धन पर्वत को धारण करते समय गोप-गोपिकाओं ने अपनी-अपनी लाठियों को भी टिका दिया था, जिसका उन्हें अहंकार हो गया कि हम लोगों ने ही गोवर्धन को धारण किया है। उनके अहं को दूर करने के लिए भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी तिरछी की तो पर्वत नीचे आने लगा। तब सभी ने एक साथ शरणागति की पुकार लगायी और भगवान श्रीकृष्ण ने पर्वत को फिर से थाम लिया। देवराज इन्द्र को भी अहंकार था कि मेरे प्रलयकारी मेघों की प्रचंड बौछारों को श्रीकृष्ण और उनके ग्वालवाल नहीं झेल पाएंगे। परंतु जब लगातार 7 दिन तक प्रलयकारी वर्षा के बाद भी श्रीकृष्ण अडिग रहे, तब 8वें दिन इन्द्र की आंखें खुलीं और उनका अहंकार दूर हुआ। तब वह भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आए और क्षमा मांगकर उनकी स्तुति की। कामधेनु ने भगवान का अभिषेक किया और उसी दिन से भगवान का एक नाम ‘गोविंद’ पड़ा।
जीवन के समस्त महत्त्वपूर्ण कार्यों के समय पंचगव्य का उपयोग किया जाता था। विज्ञान व कम्प्यूटर के युग में भी गौ की महत्ता यथावत् बनी हुई है। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी राजा पुरुरवा के पास गयी तो उसने अमृत की जगह गाय का घी पीना ही स्वीकार किया। गाय के शरीर में ही ‘सूर्यकेतु नाड़ी’ होती है जिससे वह सूर्य की गौ किरणों को शोषित करके स्वर्णक्षार में बदल सकती है। स्वर्णक्षार जीवाणुनाशक हैं और रोगप्रतिकारक शक्ति की वृद्धि करते हैं। गाय के दूध व घी में स्वर्णक्षार पाये जाते हैं, जो भैंस, बकरी, ऊँट के दूध में नहीं मिलते। गोबर और गोझरण मिलाकर महीने में एकाध बार रगड़-रगड़कर स्नान करने से शरीर में तेजस्विता आती है, बहुत स्वास्थ्य-लाभ होता है। गोमूत्र अवश्य पीना चाहिए। यह बीमारियों की जड़ें काट के निकाल देता है। यकृत व गुर्दे (किडनी) की खराबी, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कोल्स्ट्रोल-वृद्धि, पाचन आदि सब ठीक कर देता है गोमूत्र। इसीलिये अनेक धर्मगुरु एवं शंकराचार्यजी गौवंश के संवर्धन के लिए जीवनपर्यन्त समर्पित रहे और उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर गौशालाएं व गोचर भूमि सृजन के लिए प्रयास किये। लेकिन वर्तमान में गाय भी राजनीति की शिकार हो गयी है। यही कारण है कि गौ के संरक्षण एवं गौ-उत्पाद को प्रोत्साहन देने की बजाय ऐसी मानसिकताएं तैयार हो रही है, जो गौ-हत्याओं को अंजाम देते हुए राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकते हैं। जबकि गाय देश को जोड़ने के माध्यम हैं, इन्हें हिन्दुस्तान को बाँटने का जरिया न बनाये। 

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