भारत में दवा उद्योग को भी दवा की ज़रूरत
*रजनीश कपूर
मशहूर दवा कम्पनी रैनबैक्सी के व्हिसिल ब्लोअर और हेल्थ एक्टिविस्ट के नाम से जाने जाने वाले दिनेश ठाकुर की
नई किताब ‘द ट्रूथ पिल’ इन दिनों काफ़ी चर्चा में है। इसके लेखक ने जब इस नामी दवा कम्पनी में हो रही
गड़बड़ियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो इससे न सिर्फ़ भारत को बल्कि दुनिया भर के लोगों उनकी इस मुहिम से
फ़ायदा हुआ। उनके हाल ही के अभियान से हमें यह पता चलता है कि देश में ‘ड्रग रेगुलेटर’ या दवा नियामक का
कितना ख़स्ता हाल है। दवा उद्योग में ज़रूरी मानकों की कमी के कारण आम जनता को मिलावटी दवाओं का
शिकार होना पड़ता है और अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।
दिनेश ठाकुर पेशे से डाक्टर नहीं हैं बल्कि एक केमिकल इंजीनियर हैं। भारत से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के
बाद उन्होंने अमरीका से स्नातकोत्तर की उपाधि भी हासिल की। 2003 में देश की सेवा की मंशा से उन्होंने मशहूर
दवा कम्पनी रैनबैक्सी में काम करना शुरू किया। जैसे ही उनको इस कम्पनी में होने वाली गड़बड़ियों के बारे में
पता चला तो उन्होंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। चूँकि इस कम्पनी में बनी कई दवाएँ अमरीका समेत कई देशों में
भेजी जाती हैं, इसलिए यह मामला अमरीकी कोर्ट में गया। आख़िरकार 2013 में रैनबैक्सी ने अपनी ग़लतियाँ
मानी और अमरीका की कोर्ट ने रैनबैक्सी पर 500 मिल्यन डॉलर का जुर्माना लगाया। इस मुहिम का नतीजा यह
हुआ कि विदेशों में एक्सपोर्ट होने वाली दवाओं की गुणवत्ता में काफ़ी सुधार आया। भारत से विदेशों में निर्यात की
जाने वाली दवाओं की जाँच करने के लिए विशेषज्ञ विदेशों से आने लग गए। किसी भी लापरवाही के लिए जुर्माने
की रक़म भी बढ़ाई गई। दिनेश ठाकुर द्वारा उठाई गई आवाज़ एक अच्छी पहल थी। इस पूरे मामले पर उन्होंने
‘बॉटल औफ़ लाइज़’ नाम से एक अन्य किताब भी लिखी है।
इस साल अक्तूबर के पहले सप्ताह में खबर आई कि हरियाणा की एक दवा कंपनी मेडेन फार्मास्यूटिकल्स द्वारा बनाए
गए सर्दी-खांसी के सिरप पीने से पश्चिमी अफ्रीकी देश गांबिया में 66 बच्चों की मौत हुई है। यह भारत के लिए एक
शर्मनाक बात है। इस घटना के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) ने चेतावनी जारी कर लोगों को आगाह
किया है कि भारत में बनी खांसी की इन दवाओं का फिलहाल इस्तेमाल न किया जाए। ये चार सिरप हैं
कोफ़ेक्समालिन बेबी कफ सिरप, मकॉफ़ बेबी कफ सिरप, प्रोमेथाज़िन ओरल सॉल्यूशन और मैग्रीप एन कोल्ड
सिरप। इस हादसे के बाद दिल्ली में केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन ने मामले की जांच के आदेश भी दिए।
वहीं ऑल इंडिया आर्गनाइजेशन ऑफ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट ने एक बयान जारी कर कहा है कि संबंधित कंपनी के
सिरप सिर्फ निर्यात होते हैं, भारत में इनकी बिक्री नहीं की जाती।
ठाकुर के अनुसार गांबिया का हादसा पहला हादसा नहीं है। इससे पहले जम्मू, मुंबई, चेन्नई और गुड़गाँव में ऐसे
हादसे हो चुके हैं जहां खांसी के सिरप से बच्चों ने अपनी जान गवाई। 2019 के जम्मू के हादसे में 11 बच्चों की जान
गई थी। इस हादसे में मरने वाले बच्चों को भी खांसी और सर्दी के लिए ऐसा ही एक सिरप दिया गया था। सिरप
पीने के बाद इन बच्चों की हालत सुधारने के बजाए बिगड़ने लगी तो जम्मू के स्वास्थ्य केंद्र की समझ में भी कुछ नहीं
आया। उन्हें जम्मू से चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल भेजा गया। वहाँ जाँच में पता चला कि जो सर्दी-खांसी का
सिरप बच्चों को पिलाया गया है उसमें एक तिहाई हिस्सा एक ऐसे केमिकल का है जो किसी भी दवाई में इस्तेमाल
नहीं होता। हिमाचल की दवा कम्पनी ‘डिजिटल विज़न’ द्वारा बनाए गए ‘कोल्डबेस्ट-पीसी’ कफ सिरप में एक
ख़तरनाक केमिकल ‘डाई इथाइलीन ग्लाइकोल’ (डीईजी) की मिलावट हो रही थी। ग़ौरतलब है कि इस केमिकल
का इस्तेमाल गाड़ियों के ‘ब्रेक आयल’ बनाने के लिए किया जाता है। इस कम्पनी द्वारा बनाए गए कफ सीरप
बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रहे थे।
बच्चों की दवाओं में कड़वाहट हटाने की दृष्टि से दवाओं में ऐसे केमिकल मिलने की अनुमति तो है। परंतु केमिकल
मिलाने से पहले उस केमिकल की पूरी जाँच होना भी ज़रूरी है। 2019 के जम्मू के इस हादसे के बाद ठाकुर ने
तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्ष वर्धन को एक पत्र लिख कर इस मामले के जाँच की माँग की। ठाकुर के अनुसार
यदि ऐसे हादसे बार-बार हो रहे हैं तो हमारे देश की दवा बनाने वाली कम्पनियों की जाँच के तय माणकों में कहीं
न कहीं गड़बड़ी हो रही है। अपनी लिखित याचिका में ठाकुर ने न सिर्फ़ इस सिरप की बिक्री पर रोक लगाने का
आग्रह किया बल्कि बाज़ार से इस दवा व इससे मिलती जुलती दवा जिसमें डीईजी का इस्तेमाल हो रहा था उसे
वापस मंगाने का भी आग्रह किया। परंतु हमारे देश में ऐसा क़ानून न होने के कारण दवा बाज़ार से वापिस नहीं
मंगाई जा सकी। 8 महीने बाद उसी दवा कम्पनी द्वारा नाम बदल कर बनाए गए एक नए सिरप पीने से एक और
बच्ची की जान चली गई।
मिलावटी दवाओं से मरीज़ों की जान जाना हमारे देश में पहली बार नहीं हुआ है। ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएँगे
जहां मोटे मुनाफ़े के लिए दवा कम्पनियाँ दवाओं में मिलावट करती हैं। इन कम्पनियों को पता है कि हमारे देश में
दवा बनाने से पहले दवा में मिलाने वाले केमिकल की जाँच के कौनसे मानक हैं और उनसे कैसे बचा जा सकता है।
आज एक दवा पर रोक लगती है तो दवा कम्पनी नाम बदल कर दूसरी दवा बाज़ार में उतार देती है। ऐसा कब तक
चलेगा?
दिनेश ठाकुर की किताब ‘द ट्रूथ पिल’ न सिर्फ़ दवा कम्पनियों के इस ख़ौफ़नाक सच को उजागर करती है। बल्कि
दवा उद्योग पर सरकार द्वारा किस तरह कड़े नियम लगा कर जनता की ज़िंदगी से होने वाले खिलवाड़ से भी बचा
जा सकता है। हमारे देश के हुक्मरान कब और क्या करेंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा।