यूपी में भाजपा की अप्रत्याशित जीत ने सभी को चकित कर दिया है व देश की राजनीति को एक नयी दिशा दी है और वो है विकास की राजनीति। अर्थात जो दल जनता को काम करके दिखाएगा जनता उसी को अपना समर्थन देगी। हालिया चुनावों में भाजपा को इतनी बड़ी जीत नरेन्द्र मोदी जी की सबका साथ सबका विकास की छवि को लेकर मिले हैं। किन्तु भाजपा की राह अब आगे और मुश्किल होने जा रही है क्योंकि उसके समक्ष जनता के इस विश्वास को बनाए रखने की चुनौति है और 2 वर्ष के भीतर कुछ करके दिखाना है जिससे 2019 का लक्ष्य साधा जा सके। प्रस्तुत है एक आलेख
उत्तरप्रदेश के विस्मयकारी, अप्रत्याशित और राजनैतिक भूकंप लाने वाले परिणाम आए। खुद भाजपा के कट्टर समर्थकों को भी यह उम्मीद नहीं थी कि भाजपा को यूपी में तीन सौ से अधिक सीटें मिलेंगी। यहां तक कि अंतिम चरण का प्रचार आते-आते खुद मोदीजी भी एक-दो सभाओं में गठबंधन की बातें करने लगे थे, और जमीनी कैडर को इस बात के लिए तैयार रहने का इशारा दे दिया गया था कि यदि बहुमत में कुछ सीटें कम पड़ीं तो मायावती का समर्थन लेने में कोई बुराई नहीं है। परन्तु सारे अनुमानों को झुठलाते हुए उत्तरप्रदेश में भाजपा ने एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की है। यह जीत ‘राम मंदिर आन्दोलन’ के समय से भी बड़ी है, जबकि उस समय हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण आज के समय से अधिक था। इसलिए भाजपा अथवा मोदी पर यह आरोप कतई नहीं लगाया जा सकता कि इन्होंने धार्मिक ध्रुवीकरण करके उत्तरप्रदेश में सत्ता हासिल की है। वास्तव में इस महान चुनावी जीत के केवल और केवल अकेले हकदार हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। जिस तरह उन्होंने अपने हनुमान अर्थात अमित शाह के साथ मिलकर पूरी विधानसभा की सीट-दर-सीट का आकलन किया, तमाम जातिगत समीकरणों को संतुलित करते हुए उम्मीदवारों को चुना और चालीस से अधिक विराट आमसभाएं करके केंद्र सरकार की योजनाओं को यूपी की जनता तक पहुंचाया वह विलक्षण कृत्य ही है। पिछले तीस वर्षों में उत्तरप्रदेश जातिवादी राजनीति करते हुए लगातार पिछड़ता ही चला गया और उधर दिल्ली-मुम्बई में प्रदेशवासियों की भीड़ बढ़ती चली गई।
बहरहाल, इस विशाल जीत ने कम से कम यह तो निश्चित कर ही दिया है कि प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए नोटबंदी के जिस निर्णय को राजनैतिक रूप देने की कोशिश की गई, वह पूरी तरह फेल हुआ। उड़ीसा-महाराष्ट्र के नगरीय निकायों में जीत के बाद यूपी में प्रधानमंत्री की साख दांव पर लगी थी। शेयर मार्केट और विदेशी निवेश अपना दम साधे बैठा था कि पता नहीं यूपी में क्या होगा? साथ ही देश के उद्योगपतियों को इस बात की भी चिंता थी कि क्या कांग्रेस-सपा का गठबंधन सफल होगा? क्योंकि यदि ऐसा हुआ होता तो 2019 के आम चुनाव में एक महागठबंधन आकार लेने की संभावना तत्काल जागृत हो जाती। हालांकि इस भूकम्पकारी परिणामों के बाद ‘महागठबंधन’ की संभावनाएं और भी अधिक मजबूत और मजबूरी हो गई हैं। जो मणिशंकर अय्यर एक समय पर मोदी को कांग्रेस कार्यालय के बाहर चाय बेचने की सलाह दे रहे थे, आज खुद कह रहे हैं कि मोदी को ‘अकेले’ हराना संभव नहीं है। हम सब मिल जाएं। अर्थात यदि हम यूपी चुनावों को सेमीफायनल मानें, तो 2019 में ‘नरेंद्र मोदी बनाम बाकी सब’ का एक फाइनल मैच हमें और देखने को मिलेगा। जिस तरह से मोदीजी ने 2014 में 73 सांसद जितवाए और अब 325 सीटें विधानसभा में भी जीत ली हैं, उसे देखते हुए 2019 का वह फायनल मैच काफी कुछ औपचारिक ही रहने वाला है, बशर्ते आगामी दो वर्षों में कोई अप्रत्याशित अथवा अनहोनी घटना न हो जाए।
हालांकि सेकुलर-वामपंथी और जातिवादी नेता अपनी जिद के चलते इस बात को नहीं मानेंगे, परन्तु यूपी के चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया है कि अब देश की जनता ने ‘सेकुलरिज्म’ के उस भौंडे स्वरूप को नकार दिया है, जिस पर कांग्रेस-वामपंथ का कब्ज़ा था और पिछले साठ वर्षों में जिस नकली सेकुलरिज्म की आड़ लेकर एक वर्ग विशेष को पुचकारना और दूसरे को फटकारना जैसा खेल चला करता था। साथ ही 2014 और 2017 के इन दोनों परिणामों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि ‘जातिवादी’ राजनीति अब नहीं चलेगी। देश के युवाओं की आंखों में एक सपना है, यदि समुचित विकास की योजनाएं पेश नहीं की गईं, नरेंद्र मोदी की तरह 18 घंटे काम करते हुए नहीं दिखाई दिए, केवल जाति के नाम पर गोलबंदी जारी रखी गई और सड़क-बिजली को अनदेखा किया जाता रहा तो सारे के सारे नेता कूड़े के ढेर में दिखाई देंगे। उत्तरप्रदेश की कठोर हार ने विपक्षियों के सामने ‘सुधरने’ का अंतिम मौका दिया है। जिस तरह से 2002 से लेकर 2014 तक लगातार एक व्यक्ति नरेंद्र मोदी को लेकर नकारात्मक राजनीति की गई, मोदी के खिलाफ अभद्र और फूहड़ भाषा का उपयोग किया गया उसने देश के युवाओं के मन में मोदी के प्रति एक सॉफ्ट कॉर्नर बना दिया है। नीतियों का विरोध नहीं करते हुए केवल संसद ठप करना और हंगामे करने की आदत को देश के लोग देख रहे हैं। अब देश की जनता धीरे-धीरे समझने लगी है कि जातिवाद और अल्पसंख्यकवाद के चक्कर में उन्हें कितने वर्षों तक बेवकूफ बनाया गया है।
उत्तरप्रदेश की इस भारी जीत में नरेंद्र मोदी की तूफानी मेहनत के अलावा जिन दो-तीन बातों का प्रमुख रोल रहा, वे हैं उज्ज्वला एलपीजी योजना और तीन तलाक का मुद्दा। विश्लेषकों का अनुमान है कि विगत दो वर्ष में उत्तरप्रदेश में लगभग पचास लाख से अधिक कुकिंग गैस कनेक्शन बांटे गए हैं और यह बात सफलतापूर्वक महिलाओं तक पहुंचाई गई है कि नरेंद्र मोदी के कारण ही उन्हें धुएं से मुक्ति मिली है। राजनीति में केवल काम करना ही महत्वपूर्ण नहीं होता अपितु उस काम का सन्देश जनता तक कैसे पहुंचता है, यह ख़ास बात होती है। जिस तरह से उज्ज्वल योजना के लाभ वोटों की फसल के रूप में मोदी और भाजपा को मिले, उसी तरह नोटबंदी को लेकर किए गए हो-हल्ले ने जनता के मन में विपक्षी पार्टियों की छवि अमीर समर्थक की बना दी। लोग स्वत: संज्ञान से ही यह मानने लगे कि नोटबंदी को लेकर जो दल या जो नेता जितना अधिक चिल्ला रहा है, सबसे अधिक काला पैसा उसी नेता के पास है। मोदी ने जनता तक यह सन्देश सफलतापूर्वक पहुंचाया कि नोटबंदी अमीरों के खिलाफ उठाया हुआ कदम है। जिन गरीब लोगों को बैंक वाले अपने दरवाजे पर भी खड़ा नहीं होने देते थे, आज जन-धन योजना के कारण उन्हीं के घर जाकर अधिकारियों को उनके बैंक खाते खुलवाने पड़ रहे हैं। गरीब को यह जो ‘सम्मान’ मिला है (भले ही वह उसके लिए अधिक उपयोगी नहीं हो), वह वोट बैंक में तब्दील हुआ है। गरीब व्यक्ति तक यह सन्देश स्पष्ट रूप से पहुंचा कि प्रधानमंत्री के कारण ही आधार कार्ड के जरिये उसके बैंक खातों में पैसा आ रहा है और कोई बिचौलिया उसका धन हड़प नहीं कर रहा। राजनीति में विश्वास बड़ी चीज़ है, इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और जनता ने उसे लपक लिया था। मोदी ने भी अपनी राजनीति में गरीबों को लक्ष्य बनाया है, इस बात को विपक्षी दल समझ नहीं पाए और नोटबंदी पर उनके ऊलजलूल बयानबाजी एवं स्टंट जारी रहे। तीसरी बात है ‘तीन तलाक’ की, कांग्रेस-वामपंथ ने पिछले साठ वर्षों में पुरुषवादी इस्लामी मौलवियों और इमामों को जमकर संरक्षण दिया, उनके फतवों के खिलाफ कोई बुद्धिजीवी नहीं बोला। म्यांमार की घटना को लेकर मुम्बई में उत्पात मचाने वाले मुल्लों के खिलाफ कोई प्रगतिशील आगे नहीं आया। विपक्ष के ऐसे काले साम्प्रदायिक इतिहास को केवल एक चिंगारी भर दिखानी थी और वह काम नरेंद्र मोदी ने दिखाई। मुस्लिम महिलाओं के काफी समय से लंबित चले आ रहे एक महत्वपूर्ण मुद्दे को उन्होंने संविधान के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं की भावनाओं से भी जोड़ दिया। नरेंद्र मोदी को इस मुद्दे पर अधिक मेहनत इसलिए नहीं करनी पड़ी क्योंकि चाहे जितना पुराना हो, कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष के माथे पर शाहबानो मामले का काला दाग तो लगा हुआ ही है, बस मुस्लिम महिलाओं को उनकी सूरत आईने में दिखानी थी। बड़ी सफ़ाई से संविधान, क़ानून, उच्चतम न्यायालय की आड़ लेकर इस राजनैतिक मुद्दे को पतली गली से मुस्लिम समुदाय के भीतर प्रवेश करवा दिया गया। देश में विमर्श आरम्भ हुआ और देखते-देखते तमाम मौलवी और कांग्रेस लगातार कई चैनलों पर बेनकाब होते चले गए। हालांकि मुस्लिम महिला मतदाताओं की संख्या इतनी प्रभावशाली नहीं है कि वे भाजपा को कुछ सीटें दिलवा सकें, परन्तु ‘तीन तलाक’ के मुद्दे को राजनीति और विमर्श के केंद्र में लाकर मोदी ने मुस्लिम समुदाय को सोचने पर मजबूर कर दिया। स्वाभाविक है कि बड़ी संख्या में खातूनें, खालाएं भाजपा को वोट देने पहुंचीं। बसपा और सपा के बीच मुस्लिम वोट बंट गया, जबकि श्मशान-कब्रिस्तान को मिलने वाले पैसों के मुद्दे को उठाकर तथा रमजान-दिवाली पर बिजली के भेदभाव को लेकर नरेंद्र मोदी पहले ही ‘हिन्दू मन’ के तार छेड़ चुके थे। इसके अलावा सपा के शासन में मुसलमानों की बढ़ती दबंगई, आए दिन होने वाले छिटपुट दंगों शामली-कैराना जैसी कई घटनाओं के कारण हिन्दू पहले से भरा हुआ बैठा था, जैसे ही उसे मौका मिला उसने जाति-पांति से ऊपर उठकर केवल और केवल ‘सुशासन’ के लिए मोदी को वोट दिया। जी हां! यूपी की जनता ने नरेंद्र मोदी को वोट दिया। क्योंकि प्रदेश स्तर पर एक भी भाजपा का ऐसा नेता नहीं है जो अकेले अपने दम पर भाजपा को पचास सीटें भी दिलवा सकता। केशवप्रसाद मौर्य, राजनाथ सिंह, मनोज सिन्हा, योगी आदित्यनाथ, महेश शर्मा, संजीव बालियान सहित कई नेताओं की ‘भीड़’ तो बहुत बड़ी है, लेकिन वोट खींचने की क्षमता, मुद्दों की समझ और जितवाने की ताकत सिर्फ नरेंद्र मोदी में है और यह समझते हुए ही नरेंद्र मोदी ने अपना सब कुछ इन चुनावों में झोंक दिया था। प्रधानमंत्री तीन दिनों तक अपने संसदीय क्षेत्र में डेरा डालकर बैठ जाए इसी बात से समझा जा सकता है कि यह चुनाव जीतना मोदी के लिए कितना जरूरी था।
खैर, अब विपक्ष की असफलता अथवा मोदी की सफलता पर अधिक बातें करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब वक्त आगे बढ़ चुका है, असली पेंच तो आगे है। उत्तरप्रदेश की इस भीषण जीत ने भाजपा को भी दबाव में ला दिया है। इस अनपेक्षित समर्थन से भौंचक्की पड़ी भाजपा को अपना मुख्यमंत्री चुनने में चार दिन लग गए, क्योंकि इस बारे में पहले से सोचा ही नहीं गया था। इन चार दिनों में कई नाम सामने आए, मीडिया द्वारा हवा में उछाले गए। लेकिन योगी आदित्यनाथ के नाम पर मुहर लगते ही मानो सभी को सांप सूंघ गया। यही नरेंद्र मोदी का स्टाईल है, वे हमेशा चौंकाने वाला काम करते हैं। नरेंद्र मोदी इस बात को जानते थे कि खुद भगवान राम भी स्वर्ग से उतरकर यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल लें तब भी ‘कुत्ते की टेढ़ी दुम’ अर्थात हमारा मीडिया और बुद्धिजीवी उन्हें भी ‘ठाकुर’ घोषित करके कोसना शुरू कर देंगे। इसलिए विगत तीस वर्षों से जाति-राजनीति में फंसे इस प्रदेश के लिए एक जातिविहीन ‘योगी’ ही सबसे उपयुक्त चेहरा है। अब यदि मीडिया, योगी आदित्यनाथ की जाति को लेकर कोई बात करेगा तो जनता में उसका नकारात्मक सन्देश जाना तय है। दूसरी बात यह है कि योगी आदित्यनाथ अविवाहित हैं, पढ़े-लिखे डिग्रीधारी हैं, पांच बार लगातार सांसद का चुनाव भी जीत चुके हैं, भगवा वस्त्र धारण करते हैं, इसलिए अब मीडिया और दुर्बुद्धि-जीवियों के सामने उनकी आलोचना का एक ही मुद्दा बचता है, और वह है योगी जी की आक्रामकता, उनके पुराने बयान और प्रशासनिक अनुभवों की कमी। यानी नरेंद्र मोदी ने ‘जाति-फैक्टर’ को तो लगभग ख़त्म कर ही दिया, जो इस बारे में बोलेगा वह फसेगा। स्वाभाविक सी बात है कि योगी आदित्यनाथ पर भी भारी दबाव है। दबाव है केवल दो वर्ष में ‘प्रदर्शन’ कर दिखाने का। यूपी की वर्तमान सरकार भले ही संविधान के मुताबिक़ पांच साल के लिए चुनी गई हो, लेकिन 2019 के आम चुनावों से पहले ही इस सरकार के कामों, निर्णयों और नीतियों की समालोचना शुरू हो जाएगी। मई 2019 में लोकसभा चुनाव होंगे, यानी मार्च 2017 अर्थात अब से ठीक दो वर्ष के भीतर ही योगी आदित्यनाथ को कुछ ऐसा कर दिखाना होगा जो यूपी की जनता द्वारा लगातार दो बार (पहले 73 सांसद और फिर 320 विधायक) अपना विश्वास दिखाने के बाद उसकी अपेक्षाएं हैं।
मोदी-योगी की इस जोड़ी से अपेक्षाएं भी भारी-भरकम हैं। कर्ज, बेरोजगारी, गन्ना किसानों की समस्याएं, बिजली की दुरावस्था, ध्वस्त क़ानून-व्यवस्था जैसे कई मुद्दे हैं जिन पर उत्तरप्रदेश की जनता हिमालयीन आस लगाए बैठी है कि योगी आएंगे, मोदी आएंगे, जादू की छड़ी घुमाएंगे और सब ठीक हो जाएगा। ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं होता। इतने विशाल प्रदेश की सरकारी मशीनरी, आईएएस लॉबी तथा निचले स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों की फ़ौज से केवल दो वर्ष के भीतर कोई सकारात्मक काम निकाल लेना एक भीषण लक्ष्य है। खासकर उस स्थिति में, जबकि यूपी की इस मशीनरी में पिछले साठ वर्षों में जातिवाद कूट-कूटकर भरा जा चुका है। प्रत्येक नियुक्ति, प्रत्येक निर्णय, प्रत्येक ठेका सिर्फ जाति की निगाह से ही देखा जाता है। भले ही ‘योगी’ की कोई जाति नहीं होती, लेकिन यूपी प्रशासन की तो रहेगी ही। इसलिए मोदी का रास्ता कांटों भरा है, 2022 तो दूर है, लेकिन 2019 में उत्तरप्रदेश से कम से कम 70 भाजपा सांसद नहीं जीते तो केन्द्र में मुश्किल हो जाएगी। मुस्लिम महिलाएं भी तीन तलाक के मुद्दे पर कोई ठोस कदम उठता हुआ देखना चाहेंगी, ताकि उनका जीवन स्तर बदले। इस भारी बहुमत के बाद केन्द्र-राज्य को आपस में मिलकर सुप्रीम कोर्ट के साथ समन्वय बनाते हुए इस मुद्दे पर कुछ ऐसा करना होगा कि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। एक और जरूरी बात यह है कि, भले ही कुछ संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया हो (और यह वोट प्रतिशत कोई सीट जीतने लायक नहीं है), लेकिन वास्तविकता यही है कि ‘मुसलमानों’ ने भाजपा को वोट नहीं दिया है। ऐसी कई सीटें हैं जहां भाजपा के हिन्दू उम्मीदवार को जीत इसलिए मिली क्योंकि मुस्लिम वोट सपा-बसपा में बंट गया। यहां केवल तीन उदाहरण दे रहा हूं, जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि जिन-जिन सीटों पर मुस्लिम जनसंख्या तीस प्रतिशत के आसपास है, वहां यदि यह तीस प्रतिशत एकजुट हो जाए तो भाजपा कभी न जीते। उदाहरस्वरूप देवबंद की जिस सीट के ‘सेकुलर गीत’ गाए जा रहे हैं, वहां के आंकड़े सिद्ध करते हैं कि यदि माजिद अली और माविया अली में वोट नहीं बंटे होते तो भाजपा के ब्रजेश कभी नहीं जीत पाते। इसी प्रकार मीरापुर में अवतार सिंह भड़ाना को 69,000 वोट मिले, जबकि सपा के लियाकत अली को 68,000 तथा बसपा के नवाजि़श असलम को 39,000 वोट मिले। बहुचर्चित शामली सीट पर भी भाजपा उम्मीदवार को सत्तर हजार वोट मिले, लेकिन सपा-बसपा के वोटों का मुस्लिम वोटों की कुल संख्या पचहत्तर हजार से अधिक है। कहने का मतलब ये है कि भाजपा-संघ इस भुलावे में न आए कि उसे मुस्लिम वोट भी मिलने लगे हैं। हकीकत ये है कि मुस्लिम भ्रमित और विभाजित है क्योंकि भाजपा को छोड़कर सभी पार्टियां उसकी खैरख्वाह होने का नाटक करती हैं और मुस्लिम वोट टुकड़े हो जाता है। यूपी के इन विधानसभा चुनावों में मुख्य अंतर ये आया है कि जाति तोड़कर हिन्दू वोट एकजुट हुआ है, कुछ विकास के नाम पर तो कुछ मुस्लिम-यादव-जाटव के शक्तिशाली त्रिकोण से त्रस्त होकर। इसलिए 2019 के लोकसभा चुनावों में यदि ‘महागठबंधन’ बन गया, और मुस्लिम वोट के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हुए तो भाजपा के सामने बहुत मुश्किल होने वाली है।
बहरहाल मोदी-योगी के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो क़ानून-व्यवस्था ही है। तमाम ‘यादव’ थानों और मुस्लिम दबंगई के इलाकों में ‘राजदण्ड’ का भय स्थापित करना सबसे पहला और प्रमुख काम होना चाहिए। यूपी की नेपाल से लगती सीमाओं के तराई वाले इलाकों में बढ़ते मदरसों, गौ-तस्करी तथा अपराधी गिरोहों की नकेल कसना इसी काम का ‘एक्सटेंशन’ माना जा सकता है। इससे भी बड़ी चुनौती होगी अति-उत्साही ‘रामभक्तों’ पर नियंत्रण रखना और जिस प्रकार योगीजी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सोशल मीडिया पर गर्मागर्मी चल रही है, उसे देखते हुए ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की वैचारिक लहर को एक सीमा से आगे नहीं बढऩे देना है। ज़ाहिर है कि इस मुद्दे पर ‘कूटनीतिक रूप’ से धीरे-धीरे आगे बढऩा होगा। केन्द्र-राज्य में जोरदार बहुमत वाली सरकारें हैं। राज्यसभा में भी अब मोदी सरकार ‘अत्यधिक दया’ पर निर्भर नहीं है। यही मौका है, जब कुछ अध्यादेशों के जरिये, विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके, मुस्लिम उलेमाओं से बात करके, विपक्षी दलों में फूट डालकर अथवा सीबीआई का ‘उपयोग’ करके मोदी-योगी सरकार राम मंदिर जैसे प्रमुख मुद्दे पर अपनी ‘वीर उत्साही सेना’ को अपने नियंत्रण में रख सकती है। यदि 2019 से पहले इस मुद्दे पर कुछ भी नहीं हुआ, तो समर्थकों में भीषण निराशा फ़ैल जाएगी और जो गोवा में हुआ, वही होगा। गोवा में भी पर्रीकर-पार्सेकर ने भाजपा-संघ के ‘कोर-कार्यकर्ताओं’ को भारी निराश किया था, नतीजा यह हुआ कि संघ की नींव कहे जाने वाले वेलिंगकर ने सरेआम खरी-खोटी सुनाते हुए पार्टी कैडर में दो-फाड़ कर दिया, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी से हाथ मिलाया और आज की स्थिति में गोवा सरकार को उन्हीं के रहमोकरम पर ला पटका है। यह स्थिति उत्तरप्रदेश में नहीं बननी चाहिए। जिस प्रकार केन्द्र में मोदी को ‘केवल विकास’ के नाम पर वोट नहीं मिला है, उसी प्रकार योगी को यूपी में ‘केवल विकास’ के नाम पर वोट नहीं मिला है। केन्द्र-राज्य दोनों स्थानों पर हिंदूवादी विचारधारा के समर्थकों और सोशल मीडिया ने उन्हें जीत दिलवाई है, यह नहीं भूलना चाहिए। मोदी-योगी अगर चार काम बिजली-सड़क-पानी-किसानों के करते हैं तो उन्हें दो काम राम मंदिर, आतंकवाद, मदरसों पर लगाम के भी करने होंगे, क्योंकि अंतत: अगला चुनाव तो यही वोटर वर्ग जितवाएगा।
‘संगठित हिन्दू वोट बैंक’ नाम की एक नई अवधारणा इन विधानसभा चुनावों में उभरकर आई है। पहले पार्टी द्वारा एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं देने, तथा फिर कई मुस्लिम बहुल सीटों पर हिन्दू उम्मीदवारों की विजय ने यह स्पष्ट किया है कि पिछले साठ वर्ष में फुलाए गए मुस्लिम वोट बैंक का फुग्गा फोडऩे की पहल मोदी-शाह के इसी रुख ने की थी। यूपी की जनता इतनी भी मूर्ख नहीं है कि वह ये न देख सके कि भाजपा को छोड़कर सभी पार्टियां किस प्रकार मुस्लिमों के सामने बिछी जा रही थीं। सारे चैनलों-अखबारों पर यही चर्चा थी कि ‘मुस्लिम किसे वोट देगा’? मुलायम सिंह यादव ने खुलेआम कह दिया कि रामभक्तों पर गोली चलाना उनकी उपलब्धि है। इन्हीं बातों ने तथा पिछले पांच वर्ष में शामली-कैराना-आजमगढ़ जैसे कई क्षेत्रों में मुस्लिम दबंगई जोर मारने लगी थी, इसे देखते हुए ‘आहत हिन्दू मन’ धीरे-धीरे एकजुट हुआ और जात-पात से ऊपर उठकर उसने मोदी को वोट दिया है। अब इस भावना को मजबूत करना तथा अगले चुनावों तक बनाए रखना जरूरी है तो ऊपर उल्लेखित काम करके दिखाना होगा।
यूपी के इस भारीभरकम जनमत के बाद जिस तरह ममता बनर्जी एकदम चुप हो गई हैं, वह हैरान करने वाला कतई नहीं है। यदि यूपी में भाजपा बहुमत से दस सीटें भी पीछे रह जाती, तो ममता बनर्जी मोदी के इस्तीफे की मांग को लेकर धरती-पाताल एक कर देती, ट्वीट की बाढ़ ले आती। लेकिन जब से यूपी के परिणाम आए हैं, ‘अचानक’ ममता बेहद सभ्य महिला बन गई हैं, उन्हें अचानक लोकतंत्र का सम्मान भी याद आने लगा है और केन्द्र-राज्य संबंधों की शुचिता भी। असल में ममता बनर्जी हों या मणिशंकर अय्यर जैसे विपक्ष के दूसरे नेता हों, उन्हें साफ़-साफ़ समझ में आ गया है कि अब मोदी रुकने वाले नहीं हैं। राज्यसभा में वे किसी के रहमोकरम पर निर्भर नहीं हैं, इसके अलावा राष्ट्रपति भी वे अपनी मर्जी का चुन सकते हैं। अब तो उपराष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष को ही मोदी के सामने झोली फैलानी होगी। साथ ही ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों को इस बात की भी चिंता सता रही है कि कहीं मोदी सीबीआई, ईडी और आईबी का ‘सदुपयोग’ उनके खिलाफ न कर दें। इसीलिए ‘अचानक’ बारम्बार यह दोहराया जाने लगा है, कि मुस्लिमों ने भी भाजपा को वोट दिया है, यह सरकार सभी की है। योगीजी को संविधान के अनुसार सरकार चलानी होगी। आदि-आदि-आदि। कहने का मतलब यह है कि विपक्षी दलों की स्थिति उस प्रकार हो गई है, जिस प्रकार पीछे से फटी हुई पतलून पर दोनों हाथ रखकर चलने वाला व्यक्ति, दूसरों से कहता है कि ये तो मेरा चलने का स्टाईल है। विपक्ष की इन ‘दिखावटी-बनावटी और नकली’ सहृदयता के झांसे में भाजपा-संघ को नहीं आना चाहिए। केरल और बंगाल में संघ के सर्वाधिक स्वयंसेवक मारे गए हैं, हिंसा तो वामपंथ के खून और व्यवहार में ही है, इनका भरोसा नहीं किया जा सकता। कांग्रेस मुक्त भारत से भी पहले भाजपा-संघ का लक्ष्य ‘ममता-मुक्त बंगाल’ तथा ‘वामपंथ मुक्त केरल’ होना चाहिए, वर्ना इतनी बड़ी ‘बूस्टर जीत’ का क्या फायदा?
उम्मीद तो कम ही है फिर भी विपक्ष के सामने अभी भी मौका है, कि वह आगामी दो वर्ष में हिंदुओं में अपनी साख निर्मित करे। हिंदुओं के मन में जो बात घर कर गई है कि ‘हमारे मुद्दों’ को केवल भाजपा ही उठाती है, इसे निर्मूल सिद्ध करें। यदि विपक्ष को वाकई दोबारा ठीक से खड़ा होना है तो सबसे पहले उसे गांधी परिवार से मुक्त होना होगा, तथा मुस्लिम वोट बैंक नामक अवधारणा को त्यागना होगा। लगातार इतने चुनाव हारने के बावजूद यदि यह बात वे समझ नहीं पाते हैं तो हैरानी होगी। यदि हिन्दू वोटों और मुद्दों पर भाजपा का एकाधिकार तोडऩा है तो विपक्ष को ‘मुस्लिम क्या सोचेंगे’ की परवाह किए बिना, कम से कम तीन मुद्दों पर जोरशोर से काम शुरू कर देना चाहिए। पहला, विपक्ष को सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि ‘अल्पसंख्यक संस्थानों’ को जो अधिकार संविधान में दिए गए हैं, या तो उनमें कटौती की जाए, अथवा वही अधिकार ‘बहुसंख्यक संस्थानों’ को भी मिलने चाहिए। दूसरा, विपक्ष को यह मांग भी करनी चाहिए कि ‘समान नागरिक संहिता’ पर सुप्रीम कोर्ट की अध्यक्षता में एक विस्तृत और तटस्थ पैनल बनाया जाए जो न केवल तीन तलाक जैसे मुद्दों का निराकरण करे, बल्कि शिक्षा का अधिकार जैसे अन्यायी क़ानून की समीक्षा भी करे ताकि हिन्दू शिक्षण संस्थाएं जीवित रह सकें। तीसरी बात यह है कि विपक्ष हिंदुओं से यह वादा करे कि जब वह सत्ता में आएगा तो हिन्दू मंदिरों में शासकीय दखल खत्म करेगा ताकि हिंदुओं का पैसा केवल मंदिरों के विकास में ही लगाया जाए और कोई ट्रस्टी या आईएस इस पैसों का दुरुपयोग नहीं कर सके। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक विपक्ष अपनी ‘हिन्दू साख’ नहीं बढ़ाता तब तक वह ऐसे ही चुनाव हारता रहेगा। खुद उसी ने मुस्लिमों की अत्यधिक तरफदारी करके भाजपा को यह मौका दिया है, कि वह हिन्दू वोटों की ठेकेदार बन बैठे। विपक्ष को पुनर्जीवित होने का यही एक तरीका है कि वह हिंदुओं से जुड़े मुद्दों पर मुखर हो, हिंदुओं को भ्रमित करे तथा हिन्दू हित की बातों को लेकर भाजपा को घेरे व दबाव में बनाए। दूसरी तरफ भाजपा के सामने चुनौती यह है कि वह इस विशाल जनमत को कैसे संभालकर रखे। जहां भाजपा मुस्लिमों को अपनी झोली में भरने को आतुर है, और कांग्रेस द्वारा छोड़ी गई जमीन पर कब्ज़ा करती चली जा रही है, वहीं अब विपक्ष को नई रणनीति लेकर आने की सख्त जरूरत है। मुस्लिम वोट बैंक, जातिवाद, चचा-भतीजा राजनीति के दिन अब लदने लगे हैं। देश का युवा इतना भी बेवकूफ नहीं है कि वह सुदूर म्यांमार अथवा डेनमार्क की घटना पर मुल्लों को मुम्बई-जयपुर में उपद्रव करता देखे, विपक्ष को उस पर ‘साम्प्रदायिक और बेशर्म चुप्पी’ साधते देखे, और फिर भी वोट के माध्यम से अपना मत प्रकट न करे। जिस तेजी से मोदी लगातार अपनी योजनाएं लेकर आ रहे हैं, युवाओं को लुभा रहे हैं, गरीबों को विश्वास दिलाने में सफल हो रहे हैं उसे देखते हुए विपक्ष के पास अधिक समय बचा नहीं है। जल्दी से सुधर जाएं। पिछले साठ वर्ष की ‘छिछली राजनीति’ को बदलने का वक्त आ चुका है। अब बात विकास पर होगी, नीतियों पर होगी, हिन्दू-हित के आधार पर होगी। ना कि इमामों के फतवों अथवा जाति के गणितों पर।
सुरेश चिपलूनकर
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डायलॉग इंडिया और मौलिक भारत के संघर्ष की जीत है उत्तर प्रदेश चुनावों के नतीजे
डायलॉग इंडिया ने तो सन 2011 से ही उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार के घोटालों और लूट की पोल खोलनी शुरू कर दी थी और लगभग 20 लाख करोड़ के घोटालों को सबूतों सहित छापा था। भाजपा ने सिलसिलेवार मायावती के घोटालों को खोला था किंतु नेतृत्व के अभाव और संगठन दुरुस्त न होने के कारण सपा ने माया के खिलाफ जनता के आक्रोश को भुना लिया और सत्ता में आ गयी। मुलायम-अखिलेश-शिवपाल-रामगोपाल-आजम खान की मंडली ने पिछले पांच सालों में उत्तर प्रदेश को इतना लूटा कि जनता माया की लूट को भूल गयी। सन 2014 के लोकसभा चुनावों में जनता को मौका मिला और उसने सपा-बसपा को बुरी तरह पटक दिया किंतु सपा सरकार नहीं चेती और साम्प्रदायिक तुष्टिकरण, जातीय गुंडई और खुली लूट का खेल और बढ़ गया। लोकसभा चुनावों के बाद मौलिक भारत के सदस्य के.विकास गुप्ता की पहल पर हमने माया सिंडिकेट से मुलायम-अखिलेश सिंडिकेट की सांठगांठ सबूतों सहित खोलनी शुरू कर दी और फिर तो एक के बाद एक घोटालों की कलई हमने खोली। जमीनों, नौकरियों में भर्ती, डीएनडी टोल, खनन, लोकायुक्त आदि की नियुक्ति, कुशासन, प्राधिकरणों में लूट व मंत्रालयों में चल रही गड़बडिय़ों के संबंध में पत्रकार वार्ता, आरटीआई, पीआईएल, धरने, प्रदर्शन, प्रतिवेदन, शिकायतों की पिछले दो सालों में झड़ी लगा दी और एक जनांदोलन खड़ा कर दिया। प्रदेश की जनता को जगाने, घोटालों को रोकने, दोषियों को सजा दिलाने और जनमत जगा बड़ा राजनीतिक परिवर्तन कराने में मौलिक भारत की निर्णायक भूमिका रही है। हमें उम्मीद है कि प्रदेश में आने वाली नयी भाजपा सरकार वादे के अनुरूप सुशासन की स्थापना करेगी और अपने नारे सबका साथ सबका विकास को कार्यरूप देगी, अन्यथा हम इसके खिलाफ भी आवाज उठाने से नहीं हिचकेंगे।
संपादक