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सबकी पहुँच में हो न्याय

डॉ. शंकर सुवन सिंह
सामाजिक व्यवस्था का नियंत्रण कानून के द्वारा ही संभव है| क़ानून का उद्देश्य प्रत्येक पीड़ित
तक न्याय को पहुँचाना है। न्याय के बिना कानून की कल्पना करना व्यर्थ है। न्याय को अंग्रेजी
में जस्टिस कहते है|जस्टिस शब्द लैटिन भाषा के जस से बना है, जिसका अर्थ है- बाँधना या
जोड़ना। न्याय और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं। बिना न्याय के किसी भी व्यवस्था का
संचालन असंभव है| न्याय का व्यवस्था से स्वाभाविक सम्बन्ध है। न्यायिक व्यवस्था समुदायों और
समूहों को एक सूत्र में बाँधती है| मेरियम के अनुसार, न्याय उन मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का
योग है जिनके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार तथा सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जिन्हें
समाज उचित मानता है। न्याय, पीड़ित व्यक्ति को बल प्रदान करता है| पीड़ित व्यक्ति न्याय
व्यवस्था का लाभ लेने के लिए दर दर की ठोकरें खाता है| न्यायिक प्रक्रिया सुगम और सरल
होनी चाहिए| न्यायिक अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि वो न्याय को सुगम और सरल बनाएं|
जिस जिले में न्यायिक अधिकारी कर्मठता और ईमानदारी से कार्य करते हैं उस जिले का प्रशासन
सही चलता है| सरकारी आँकड़ों के अनुसार, न्यायालयों में न्यायधीशों की कमी के कारण ज़िला
एवं सत्र न्यायालय में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार
देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं। विधि आयोग की एक रिपोर्ट में
सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50
होनी चाहिये। इस स्थिति तक पहुँचने के लिये पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी।
भारत में न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी एक मुख्य समस्या पारदर्शिता की कमी है। भारत के संविधान
में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है, जिसमें जानने का अधिकार भी शामिल है।
न्यायपालिका स्वतंत्र है| न्यायाधीशों का न्याय में पारदर्शिता का होना न्यायपालिका को मजबूती
प्रदान करता है| संवैधानिक प्रक्रिया के तहत न्यायधीशों के पास असीम शक्ति होती है|
कार्यपालिका और विधायिका को संचालित करने में न्यायाधीशों की अहम् भूमिका होती है|
न्यायाधीश को उसके पद से हटाने का एक मात्र उपाय सिर्फ महाभियोग ही होता है। न्यायालयों
में मामलों का लंबित होना अन्याय को जन्म देता है। पीड़ितों के मामले में कुछ ऐसे संदर्भ भी
रहे हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा, हालाँकि तब तक
आरोपी की मृत्यु हो चुकी होती है। भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन

कैदी बंद है, जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति
भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते है। साथ ही इतने
वर्ष जेल में रहने के पश्चात् उसे न्यायालय से आरोप मुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय
की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इस स्थिति में त्वरित सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, यदि राज्य में न्याय का दीपक बुझ जाए तो अँधेरा कितना घना
होगा, इसकी कल्पना नहीं कर सकते। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में आवश्यक संशोधन करके
अधिवक्ताओं के लिये आचार संहिता के अनुपालन को प्रभावी बनाया जाना चाहिये ताकि मामलों
को जान-बूझकर विलंबित न किया जा सके। न्यायालय में दायर अधिकांश मुकदमों में सरकार
एक पक्षकार होती है। न्यायालय सरकार को समझौते के लिये प्रोत्साहित कर सकती है ताकि
लंबित वादों की संख्या में कमी लाई जा सकें। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब अन्याय
का हिस्सा है| अतः न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि सामाजिक स्तर पर दिखना भी
चाहिये। न्याय की सुगमता ही न्याय के सिद्धांत को प्रतिपादित करती है| तभी हम कह सकते है
कि न्याय सबकी पहुँच में है|

लेखक
डॉ. शंकर सुवन सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं विचारक

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