आज अहोम (असम) साम्राज्य के सेनानायक परमवीर योद्धा श्री #लचित_बोरफुकन की ४०० वीं जयंती है।
इतिहासकारों ने पूर्वोत्तर के वीरों को जो भारतीय राष्ट्र के सांस्कृतिक आस्था केंद्र होने चाहिए थे उन्हें उत्तर और दक्षिण भारत के पाठ्यक्रम से पर्याप्त दूर रखने का कुप्रयास किया।
लेकिन कोई भी कुप्रयास कब तक छुप सकता है। स्वर्णाक्षर तो अपनी आभा बिखेरते ही है। सोशल मीडिया ने पूर्वोत्तर के वीर शिवाजी को देश ही नहीं विश्व मंच पर ऐसे अप्रतिम योद्धा को सम्मान दिया है कि उनकी आत्मा पुलकित, प्रफुल्लित अवश्य होगी।
मैं दूसरे कोण से सोच रहा हूँ। जब औरंगजेब पूरे मुगल उत्कर्ष के बाद अब अपने वंशानुगत पतन की ओर उन्मुख हो रहा था तब उसने अपने गुलाम आमेर के मिर्जा राजा रामसिंह को असमिया साम्राज्य जीतने के लिए भेजा।
राजा थे औरंगजेब और चक्रध्वज सिंह रणाङ्गण में उतरे योद्धा थे मिर्जा रामसिंह और लचित बोरफुकन। (लचित का सैन्य नारा सरायघाट युद्ध में यह था कि – “लचित के जीवित रहते उसकी गोवाहाटी कोई नहीं छीन सकता!”) निश्चित है कि ब्रह्मपुत्र नदी के विस्तृत पाट में नावों से लड़ी गई इस लड़ाई में मिर्जा की मुगलिया सेना बहुत विशाल थी लचित की सेना बहुत छोटी। ‘पिच’ का ज्ञान तो लचित के योद्धाओं के पास था।
पर मेरा मन कुछ और भी सोचता है जब मिर्जा रामसिंह ने सरायघाट युद्ध के पूर्व अश्वक्रान्ता विष्णु मंदिर में रणाङ्गण में उतरने के पूर्व भगवान विष्णु की पूजा की होगी और सेनापति लचित बोरफुकन ने शक्तिपीठ कामाख्या में देवी आराधन किया होगा तो दोनों ने अपने अपने विजय अभियान का वर मन ही मन पाया होगा? लेकिन भगवान विष्णु जो स्वयं मधु और कैटभ का नाश करने के लिए देवी आराधना करते हैं मिर्जा रामसिंह के लिए क्या सोचा होगा कि यह नीच मुगल सत्ता स्थापन के लिए देवी के आराधक को हराना चाहता है! जा मैं तुझे वरदान नहीं देता बल्कि चाहता हूँ कि मेरी शक्ति माँ कामाख्या के साथ लचित के साथ हो।
तब ही तो इटाखुली दुर्ग में बिस्तर पर अखोईफूटा ज्वर से तप्त पड़े, चल फिर सकने में असमर्थ लचित बोरफुकन में अचानक शक्ति का संचार होता है और मात्र छह नावों का बेड़ा बनाकर टूट पड़ते हैं। विजय श्री लचित बोरफुकन का वरण करती है।
अपनी हार देख जब मिर्जा रामसिंह संधि प्रस्ताव भेजते हैं तो लचित का उत्तर सुनिए – “मेरे स्वर्गदेव उदयगिरी के राजा और तुम अस्तगिरी के औरंगजेब के दास हो, हम दोनों तो सेवक हैं हममें कैसी संधि?”
-मुकुंद हंबर्डे जी
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