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सरकारी स्कूल, शिक्षा और गुणवत्ता

ऐसा प्रतीत होता है कि आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी सरकारें यह नहीं समझ सकी हैं कि देश के नौनिहालों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करने के लिए बच्चों को केवल स्कूल तक पहुंचा देने भर से ही काम नहीं बनेगा। तमाम सरकारी एवं गैरसरकारी आंकड़ें यह सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून, मिड डे मिल योजना, निशुल्क पुस्तकें, यूनिफॉर्म आदि योजनाओं के परिणामस्वरूप स्कूलों में दाखिला लेने वालों की संख्या तो बढ़ी हैं लेकिन छात्रों के सीखने का स्तर बेहद ही खराब रहा है। देश में भारी तादात में छात्र गणित, अंग्रेजी जैसे विषय ही नहीं, बल्कि सामान्य पाठ पढऩे में भी समर्थ नहीं हैं। यहां तक कि 5वीं कक्षा के छात्र पहली कक्षा की किताब भी नहीं पढ़ पाते। यूं तो यह ट्रेंड पूरे देश का है लेकिन लैपटॉप और स्मार्ट फोन बांटने वाला उत्तर प्रदेश शिक्षा की गुणवत्ता की गिरावट के मामले में नए प्रतिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है। यहां हर साल नए शिक्षकों की भर्ती होती है। अन्य राज्यों की तुलना में शिक्षकों के वेतन पर सर्वाधिक बजट खर्चा जाता है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता बद से बदतर ही होती जा रही है।

उत्तर प्रदेश में देश के 09 बड़े राज्यों के अलावा बिहार व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से अधिक वेतनमान का भुगतान सरकारी शिक्षकों को होता है। उत्तर प्रदेश में अध्यापकों के वेतन पर प्रतिव्यक्ति जीडीपी का 6.4 प्रतिशत, एसडीपी का 15.4 प्रतिशत खर्च होता है। यह तमिलनाडु, कर्नाटक, झारखंड, ओड़ीसा, मिजोरम, राजस्थान जैसे राज्यों से बहुत अधिक है। उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक 29,293 रुपए प्रति माह और माध्यमिक शिक्षक 37,226 रुपए प्रतिमाह वेतन लेते हैं। प्रदेश के प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में पढऩे वाले छात्र हिंदी और विज्ञान जैसे विषयों को समझने की पहुंच से कोसों दूर हैं।

प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में एक बच्चे की शिक्षा पर प्रतिवर्ष 23012 रुपए खर्चे जाते हैं। जो उड़ीसा, बिहार, पंजाब, केरला, मध्य प्रदेश व तमिलनाडु जैसे राज्यों के मुकाबले बहुत अधिक है। इस खर्च के एवज में प्रतिछात्र उपलब्धि सिर्फ 27 फीसद होती है। जबकि निजी क्षेत्रों में एक छात्र पर कुल 1800 रुपए खर्च होते हैं जो अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम राशि है। लेकिन 1800 रुपए खर्च करने के बाद निजी क्षेत्र के 61 प्रतिशत विद्यार्थी सफल होते हैं। सरकारी और निजी क्षेत्र के विद्यालयों में खर्च और सफलता का यह लंबा अंतर सरकार को आईना दिखाता है, कि सरकारी शिक्षा महकमे में हर स्तर पर झोल है। गुणवत्ता युक्त शिक्षा का दावा केवल कागजों पर फलफूल रहा है, उसकी हकीकत उतनी ही स्याह और उल्टी साबित हो रही है। इस पर नजर कब दौड़ाएंगे।

असर संस्था द्वारा प्रदेश में सरकारी व निजी क्षेत्रों के विद्यालयों में पढऩे वाले छात्रों से सामान्य गणित के सवालों के आधार पर सर्वे किया गया, तो प्रतिवर्ष सीखने के स्तर में गिरावट आई है। 2010 में संस्था ने प्रदेश के सरकारी व निजी विद्यालयों में चौथी व पांचवीं कक्षा में पढऩे वाले छात्रों से जोड़ व घटाव के सवाल पूछकर शोध किया। शोध में सरकारी विद्यालयों के 32.6 प्रतिशत छात्र सामान्य घटाने के सवाल करने में सक्षम मिले, जबकि निजी विद्यालयों के 55 प्रतिशत छात्रों ने इन सवालों के जवाब बेहद आसानी से दिए। वहीं साल 2014 तक आते-आते सरकारी विद्यालयों में सामान्य घटाने के सवालों को हल करने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढऩे के बजाय घटकर आधी कुल 17.5 प्रतिशत रह गई। थोड़ी गिरावट निजी क्षेत्र के विद्यार्थियों में भी दर्ज हुई, मगर सरकारी स्कूलों में सीखने की संख्या के स्तर में हुई गिरावट चिंताजनक है। इतना भारी बजट खर्चने के बाद भी सरकारी स्कूलों के छात्रों में सामान्य सवालों को हल करने की गुणवत्ता भी शिक्षक विकसित नहीं कर पाए। सीखने की क्षमता में हो रही कमी को हम आगे दी गई सारणी से समझ सकते हैं

सीखने की गुणवत्ता में आई गिरावट सिर्फ गणित जैसे कठिन समझे जाने वाले विषय तक सीमित नहीं है बल्कि पाठ्य सामग्री को पढऩे की योग्यता में भी ह्रास हुआ है। असर संस्था ने जब सरकारी व निजी विद्यालयों में चौथी व पांचवी कक्षा के विद्यार्थियों को पहली व दूसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़वाकर हकीकत जानना चाहा तो सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की शर्मनाक तस्वीर सामने आई। सरकारी विद्यालय में चौथी कक्षा में पढ़ाई करने वाले कुल 46.2 प्रतिशत छात्र ही पहली कक्षा की पाठ्य सामग्री को सही से पढ़ सके, जबकि निजी विद्यालयों में 69.5 छात्रों ने अपना पाठ सही पढ़ा। चौंकाने वाली बात यह कि शिक्षा की गुणवत्ता का यह शर्मनाक सच सामने आने के बाद भी प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कोई सुधार नहीं हुआ। 2014 तक 46.2 छात्रों का आंकड़ा गिरकर सीधे 26.9 प्रतिशत पर आ गया। एनसीईआरटी द्वारा सितंबर 2015 में जारी नेशनल अचीवमेंट सर्वे रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश के सर्वे की रिपोर्ट में भी प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में लगातार शिक्षा की गुणवत्ता में जारी गिरावट को दर्ज किया गया है।

नेशनल अचीवमेंट सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 2011 में पाठ पढऩे वाले छात्रों का औसत 282 था, जो 2015 में बढऩे के बजाय घटकर 253 पर आ गया। इसमें -29 की गिरावट आई। यही हाल गणित का है 2011 में 298 छात्रों का औसत 2015 में 257 छात्रों पर सिमट गया। इसमें -41 की गिरावट हुई। इसी तरह विज्ञान जैसे रोचक और अच्छे विषय में 2011 से 2015 कुल 04 सालों के बीच -24 की गिरावट हुई है। सवाल यह कि शिक्षा जैसे नाजुक और जरुरी विषय पर इतनी लापरवाही क्यों बरती जा रही है।

आखिर इस गिरावट को सुधारें कैसे

प्रदेश में शिक्षा के नाम चढ़ता बड़ा बजट और घटती गुणवत्ता की वजह तलाशें तो शिक्षकों में योग्यता की कमी पहले पायदान पर है। वोट बैंक के चक्कर में अयोग्य शिक्षकों को भी सरकारी विद्यालयों में शिक्षण के लिए नियुक्त किया गया है। इसमें कई कैंडीडेट शिक्षण कार्य के अनुभव से कोसों दूर हैं। अंतत: राज्य सरकारों को तय करना होगा कि योग्य, अनुभवी व गुणी शिक्षक विद्यालयों में जाएं। वोट की राजनीति छोड़ शिक्षा के विकास की बात हो। विनोबा भावे, राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद और टैगोर की बातों को अमलीजामा पहनाया जाए। छात्रों की त्रैमासिक, छमाही और वार्षिक परीक्षा की तरह शिक्षकों की योग्यता को हर साल जांचा जाए। नए पाठ्यक्रम व नए बदलावों के साथ शिक्षक पढ़ाने में कितना निपुण है। इसकी लिखित परीक्षा व साक्षात्कार के बाद शिक्षकों को आगे पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी जाए। शिक्षकों का प्रमोशन भी इसी परीक्षा व योग्यता के आधार पर करके वेतन वृद्धि व पद वृद्धि हो। इससे शिक्षकों में सीखने की प्रवृत्ति का जन्म होगा। वे स्वयं सीखेंगे और छात्रों को सिखाएंगे। शिक्षकों की प्रोन्नति व वेतन वृद्धि चुनाव या सरकार आधारित नहीं कक्षा में छात्रों के सफलता परिणाम पर आधारित किया जाए। शिक्षक के छात्र जैसा परिणाम दें उसे उसी प्रकार वेतनवृद्धि मिले। निजी स्कूलों का यही नियम उनके शिक्षकों को गुणवत्ता में अव्वल व छात्रों को परिणामों में आगे रखता है। गुणवत्ता में कमी में शिक्षकों की कक्षाओं में अनुपस्थिति बड़ा कारण है। जिसके कारण छात्र स्कूल में आने के बाद भी शिक्षा की गुणवत्ता से दूर हैं। स्कूल में शिक्षक नियुक्त है, मगर कक्षा में नहीं आते। कई शिक्षक तो विद्यालय आना ही उचित नहीं समझते। विद्यालयों में शिक्षक राजनीति के सहारे प्रदेश और राष्ट्र स्तर की राजनीति की बातें होती है, लेकिन बच्चों को पढ़ाने-सिखाने का काम नहीं होता। शिक्षकों की उपस्थिति का ब्यौरा स्वयं छात्रों से लिया जाए। जिलाधिकारियों के स्तर से एक मॉनिटरिंग समिति बने जिसमें छात्र व अभिभावक शिक्षकों के कक्षा में आने की रिपोर्ट पेश करें। आकांक्षा समिति जैसी संस्थाएं सीधे शिक्षकों की निगरानी करें। यही नियम स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति पर भी लागू होना चाहिए। कक्षा में छात्र नहीं होंगे तो शिक्षक किसे पढ़ाएंगे।

 

उत्तर प्रदेश में चौथी कक्षा के छात्रों द्वारा सामान्य घटाना के सवालों को हल करने का स्तर

वर्ष    सरकारी विद्यालय     निजी विद्यालय

2010       – 32.6     – 55.0

2011       – 21.6     – 50.3

2012       – 12.1     – 48.7

2013       – 20.3     – 56.0

2014       – 17.5     – 52.7

 

उत्तर प्रदेश में पांचवीं कक्षा के छात्रों द्वारा सामान्य जोड़ के सवालों को हल करने का स्तर

वर्ष    सरकारी विद्यालय     निजी विद्यालय

2010       – 18.7     – 36.3

2011       – 12.1     – 33.4

2012       – 9.1       –  33.3

2013       – 1.2       – 42.3

2014       -12.1      – 38.7

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