नोहर पर्रिकर साहब पुन: गोवा के मुख्यमंत्री बन गए। कुछ लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री ने यह निर्णय लेकर गलत किया है। प्रबल मोदी समर्थकों का कहना है कि भाजपा में योग्यता की कमी नहीं है, पर्रिकर के बाद जो भी रक्षा मंत्री बनेगा वह सही काम करेगा। वस्तुत: समस्या यह नहीं है कि कोई रक्षा मंत्री बन कर कैसा कार्य करेगा। यहां किसी की योग्यता का प्रश्न नहीं है, प्रश्न यह है कि हमारे देश में रक्षा प्रबंधन की दिशा और दशा क्या है।
भारत सरकार के पांच महत्वपूर्ण मंत्रालय माने जाते हैं- वित्त, गृह, विदेश, रक्षा और रेल। इन मंत्रालयों में से चार मंत्रालय ऐसे हैं जिनमें कार्य करने वाले अधिकारी उस विषय के विशेषज्ञ होते हैं जिस मंत्रालय में उनकी नियुक्ति होती है। वित्त मंत्रालय में आईईएस, आईआरएस और आईएसएस अधिकारी कार्य करते हैं। गृह मंत्रालय में आईएएस होते हैं जो आईपीएस अधिकारियों पर नियंत्रण रखते हैं। विदेश मंत्रालय आईएफएस अधिकारियों पर नियंत्रण रखता है। रेल मंत्रालय में रेलवे पर्सनल सर्विस और रेलवे अकाउंट सर्विस के अधिकारी पदोन्नति पाकर पहुंच ही जाते हैं। इन चार महत्वपूर्ण मंत्रालयों के अलावा जो मंत्रालय अति महत्वपूर्ण की श्रेणी में नहीं भी आते मसलन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और वाणिज्य उद्योग मंत्रालय, उनमें भी विशेष प्रशिक्षण प्राप्त क्रमश: भारतीय वन्य सेवा और डीजीएफटी में कार्यरत भारतीय व्यापार सेवा (आईटीएस) अधिकारी होते हैं। अन्य मंत्रालयों में भी सम्बंधित काडर के अधिकारी कार्य करते हैं। इसके अलावा आईएएस अधिकारियों की घुसपैठ तो हर जगह है। इस प्रजाति के अधिकारी प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर लगभग हर मंत्रालय में पाये जाते हैं। आईएएस अधिकारियों से कह दिया जाये कि साहब चन्द्रमा पर दही जमाना है तो ये वहां भी चले जायेंगे।
दु:खद यह है कि रक्षा मंत्रालय को चलाने के लिए भी आईएएस अधिकारियों पर ही विश्वास किया जाता रहा है। यह परिपाटी शासन व्यवस्था में आरम्भ से है। ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने आकर सब गड़बड़ कर दी। समस्या के मूल में यह है कि आईएएस अधिकारी उच्च रक्षा प्रबन्धन के बारे में कुछ नहीं जानते। युद्ध के तौर तरीकों से लेकर शस्त्र-उपकरणों की तकनीक तक इन्हें कुछ पता नहीं होता। किसी भी अधिकारी के लिए प्रशासनिक, वित्त एवं आर्थिक मामलों को समझना अपेक्षाकृत सरल होता है। इसीलिए आईएएस अधिकारी आर्थिक सलाहकार, वित्त सचिव से लेकर सीएजी तक बन जाते हैं। ध्यातव्य है कि टैक्स हर व्यक्ति दे सकता है किंतु युद्ध केवल सैनिक लड़ सकता है। अत: अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, आधुनिक युद्ध तथा सामरिक तकनीक जैसे विषयों की जटिलताओं को समझना व गहरे पैठना सरल नहीं है। शेयर बाजार के उतार चढ़ाव प्रतिदिन समाचार में आते हैं किंतु युद्ध क्या है इसका आभास तब तक नहीं होता जब तक युद्ध नहीं होता। सत्य है कि युद्ध दशकों में एक बार लड़े जाते हैं और जब लड़ाई होती है तब भूराजनैतिक परिदृश्य बदल जाते हैं।
भारत में ऐसी कोई केंद्रीय अखिल भारतीय विशेषज्ञ सेवा नहीं है जो राष्ट्रीय सुरक्षा और उसमें निहित सशस्त्र सेनाओं की भूमिका के अध्ययन में प्रशिक्षित अधिकारी गढ़ सके जो स्थाई रूप से रक्षा मंत्रालय को चला सकें। रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों में से बहुत कम ही ऐसे होते हैं जो नई दिल्ली स्थित ‘नेशनल डिफेंस कॉलेज’ में रक्षा विज्ञान का कोई कोर्स करने जाते हैं। जबकि सेना के अधिकारी अपने कैरियर में सभी आवश्यक कोर्स करने के बाद ही पदोन्नत होते हैं। हम केवल के. सुब्रमण्यम को जानते हैं जो आईएएस होने के बावजूद सामरिक चिंतक थे। भारत सम्भवत: विश्व का एकमात्र प्रमुख लोकतांत्रिक देश है जहां सेना के तीनों अंगों के उच्च अधिकारियों को रक्षा सम्बंधी नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सम्मिलित नहीं किया जाता। रक्षा सम्बंधी किसी भी महत्वपूर्ण नीति के निर्माण में तीनों सेनाध्यक्षों की निर्णायक भूमिका नहीं होती। इतना ही नहीं रक्षा मामलों में हमारे यहां ऐसा कोई ठोस संस्थागत ढांचा अथवा काडर नहीं है जो शासकीय झंझटों से मुक्त होकर योजनाओं को निरन्तर आगे बढ़ाता रहे और जिस पर आश्वस्त होकर हम रक्षा मंत्री बदलते रहें। दिवंगत ले. जन. श्रीनिवास कुमार सिन्हा ने लिखा है कि विदेश नीति और रक्षा नीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक सुझाव दिया गया था कि रक्षा मन्त्रालय में भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिये परन्तु इस सुझाव को बहुत पहले ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। वर्तमान रक्षा सचिव जो कि आईएएस अधिकारी हैं, कोई ढाई वर्ष पहले रक्षा मंत्रालय में आये थे। उससे पहले उन्हें रक्षा प्रबंधन सम्बंधी कोई अनुभव नहीं था।
अमेरिका में 1947 से ही विधि द्वारा स्थापित राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद है जिसमें जनरलों का स्थान महत्वपूर्ण है। राष्ट्रपति भी उनके मंतव्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। हाल ही में ट्रम्प ने एक पूर्व जनरल को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया है। जबकि हमारे देश में थल, वायु और नौसेना के सेनाध्यक्षों के साथ मात्र एक सरकारी कर्मचारी की तरह व्यवहार किया जाता रहा है। कोई जनरल यदि बहुत प्रिय होता है तो उन्हें राज्यपाल या मंत्री बना कर पुरस्कृत कर दिया जाता है। हमारे देश में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद विधि द्वारा स्थापित अथवा संवैधानिक संस्था नहीं है। ऐसे में रासुप क्या निर्णय लेती है किसी को नहीं पता। यह प्रधानमंत्री को छोड़ कर किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में रक्षा मंत्री की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि किसी भी आपात स्थिति में उन्हें ही थलसेनाध्यक्ष और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के मध्य सामंजस्य बिठाना होता है। रक्षा मंत्री डीआरडीओ और सेना के मध्य समन्वय भी स्थापित करते हैं। एक सैन्य अधिकारी जिसे अपनी बन्दूक को छाती से लगाकर सोने का प्रशिक्षण दिया जाता है वह उस बन्दूक के निर्माण में प्रयुक्त विज्ञान व अभियांत्रिकी को नहीं जानता। यदि कोई उपकरण युद्ध के मानक पर खरा नहीं उतरता तो सेना उसे अस्वीकार कर देती है। ऐसी परिस्थितियों में डीआरडीओ के प्रमुख रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में सहायता करते हैं। रक्षा मंत्रालय में डीआरडीओ के अलावा रक्षा उत्पादन और पूर्व सैनिक कल्याण सम्बंधी विभाग भी हैं जिन्हें रक्षा मंत्री को देखना होता है। केंद्र सरकार के अन्य कर्मचारियों से अलग सैन्य कर्मचारियों का वेतन प्रिंसिपल कन्ट्रोलर ऑफ़ डिफेंस अकॉउंट द्वारा दिया जाता है।
हम प्राय: सुनते हैं कि साहब भारत को अब 21वीं शताब्दी की सेना बनानी चाहिये। हमें थियेटर कमांड, साइबर कमांड, अंतरिक्ष कमांड और पाकिस्तान से ग़ैर परम्परागत युद्ध लडऩे हेतु स्पेशल फोर्स कमांड इत्यादि की आवश्यकता है। गत एक वर्ष से देश में चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ का स्थाई पद सृजित करने की बात चल रही है। उच्च रक्षा प्रबंधन भी कोई हंसी खेल का विषय नहीं है। तीस पैंतीस वर्ष नौकरी करने के उपरांत जनरल रैंक के अधिकारी ही इसकी जटिलताओं की तह तक पहुंच पाते हैं। अब जो भी नए रक्षा मंत्री शपथ लेंगे उन्हें मंत्रालय के कामकाज समझने में ही छ: महीने से साल भर लग जाएगा फिर 2019 में लोकसभा निर्वाचन है। हाल ही में भाजपा के मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूरी साहब की अध्यक्षता में संसद की स्थाई समिति ने कहा है कि पठानकोट और उरी जैसे हमलों से कोई सबक नहीं लिया गया न ही भविष्य में इनसे निबटने हेतु कोई ठोस कदम उठाये गए। ऐसे में दशकों से लम्बित परियोजनाओं का क्या होगा यह चिंता का विषय है। भारतीय सेना में ‘सहायक’ व्यवस्था को लेकर उठे बवाल को नए रक्षा मंत्री कैसे सुलझाएंगे यह भी देखना है। डॉ कलाम का स्वप्न ‘इंडियन नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी’ स्थापित करने का बिल अभी तक संसद में प्रस्तुत नहीं किया गया है। यह अभी भी वेबसाइट पर सुझावों की बाट जोह रहा है। सेनाओं को तकनीकी स्वावलंबन से आधुनिकीकरण की ओर ले जाने के उद्देश्य से नई रक्षा खरीद नीति (डीपीपी-2016) पर्रिकर साहब के कार्यकाल में बनी। अब जो नए रक्षा मंत्री आएंगे उन्हें यही समझने में समय लगेगा कि जीएसक्यूआर होता क्या है और डीपीपी क्यों बनाई जाती है। सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में निजी क्षेत्र की भूमिका को परखना और उसे स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप मॉडल के तहत मेक इन इंडिया के दायरे में लाना भी नए रक्षा मंत्री के लिए बड़ी चुनौती है। हम प्राय: सेना का अर्थ थलसेना ही समझते हैं परन्तु आने वाले समय में भारत के आर्थिक और रणनीतिक हित हिन्द महासागर में चीन से टकराएंगे। हमारे सामुद्रिक हित नौसेना की शक्ति पर निर्भर होंगे। नौसेना का महत्व थलसेना जितना हो जायेगा। इन मामलों की समझ होना नए रक्षा मंत्री के लिए अति आवश्यक है।
सेनाओं की संयुक्त एकीकृत कमान भी भविष्य के गर्भ में है। ऐसे में भावी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनने हेतु तीनों सेनाध्यक्षों के मध्य समन्वय स्थापित करना रक्षा मंत्री का ही दायित्व है क्योंकि भविष्य के युद्ध केवल थलसेना नहीं अपितु सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों को साथ मिलकर लडऩा होगा। आधुनिक युद्ध का सिद्धांत सशस्त्र सेनाओं के किसी एक अंग पर अतिशय निर्भरता की नीति को ख़ारिज करता है। आजकल एयर फ़ोर्स का ड्रोन विमान पहले शत्रु की स्थिति की सूचना एकत्र करता है। यह सूचना गहरे समन्दर में तैरते नौसेना के युद्धपोत तक सम्प्रेषित की जाती है। युद्धपोत उक्त स्थान पर मिसाइल से वार करता है। जब शत्रु तितर बितर हो जाता है तब थलसेना कब्जा करने पहुंचती है। नए रक्षा मंत्री को यह भी देखना होगा कि सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा बनाई जा रही भारत माला और सागर माला परियोजना की वस्तुस्थिति क्या है। ये दोनों ही सड़कें सामरिक रणनीतिक महत्व की हैं। स्मरण रहे कि ऑपरेशन पराक्रम के दौरान हमारे टैंक नियत समय पर सीमा तक नहीं पहुंच पाये थे।
मनोहर पर्रिकर साहब ने जिस तत्परता के साथ वन रैंक वन पेंशन के मुद्दे को समझा और यथासंभव सुलझाया उससे उनके प्रति सैन्य बिरादरी में सम्मान बढ़ा। अमेरिका के साथ लेमोआ जैसे समझौते करना और एश्टन कार्टर की योजना डीटीटीआई को आगे बढ़ाना उनकी उपलब्धियां रही हैं। बहुत सी परियोजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए त्वरित निर्णय भी लिए गए। परन्तु देश स्थाई शासन के साथ स्थाई रूप से सुरक्षा भी चाहता है इसलिये उच्च रक्षा प्रबंधन हेतु समय रहते आमूल चूल संस्थागत परिवर्तन करने होंगे ताकि रक्षा मंत्री कोई भी हो रक्षा प्रबंधन सम्बंधी योजनाएं लम्बित नहीं होनी चाहिये। हमारे पड़ोसी बहुत अच्छी नीयत वाले नहीं है। सामरिक चिंतन की प्रक्रिया में हम वैसे भी चालीस वर्ष पीछे चल रहे हैं। रोम एक दिन में नहीं बना था किंतु इतिहास साक्षी है कि न जाने कितने रोम युद्ध के दौरान एक ही दिन में तबाह हो गए थे। हमें अपने रोम बचाने हैं तो रक्षा प्रबंधन प्रणाली सुदृढ़ करनी होगी।