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श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंगश्रीराम की अँगूठी का रहस्य

श्रीरामचरितमानस में श्रीराम की अँगूठी का प्रसंग
श्रीराम को १४ वर्ष तक तापस वेष में तथा वन (दण्डकारण्य) में रहने का वरदान कैकेयी ने राजा दशरथ से माँगा था तथा भरत का राज्याभिषेक। श्रीराम तपस्वी के वेष में होने के उपरान्त भी अपने साथ धनुष, बाण, तलवार आदि शस्त्र लेकर वन को गए थे। श्रीराम क्षत्रिय थे अतएव उन्होंने शस्त्र धारण किए। उनके अवतार लेने का उद्देश्य हनुमानजी ने रावण को बताया है। इससे उनके शस्त्र धारण का कारण स्पष्ट हो जाता है।
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन-भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ३९ (क) 2
हनुमानजी रावण को कहते हैं कि उन कृपा के समुद्र भगवान (श्रीराम) ने पृथ्वी, ब्राह्मण गौ और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सबको आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं। रावण यहाँ हनुमानजी द्वारा अहंकार वश उनकी बात समझ नहीं सका।
यहाँ श्रीराम का तापस वेष में शस्त्रधारण करने का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। श्रीराम की लीला समझना आसान नहीं है। श्रीराम ने ताड़का राक्षसी का, सुबाहु का वध किया किन्तु मारीच को बिना फलवाला बाण से सौ योजन विस्तारवाले समुद्र के पार गिराया। वे जानते थे कि यदि मारीच का वध कर दिया गया तो सीताहरण कैसे होगा? श्रीराम तापस वेष में अँगूठी धारण करके गए या नहीं कहीं श्रीरामकथा में स्पष्ट नहीं है किन्तु हनुमानजी को सीता के पास अँगूठी देकर दूत बनाकर भेजा था। अत: यह बात ठीक ही है-
राम कीन्ह चाहहिं सोई होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १२८-१
कैकेयी ने राजा दशरथजी से ये दो वरदान माँगे थे-
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।
मांगउ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस वेष विसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनवासी।।
सुनि मृदु बचन भूप हियं सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड २९-१-२
यहाँ भी श्रीराम के तापस वेष का वर्णन है किन्तु श्रीराम का शस्त्र एवं अंगूठी का कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। यदि श्रीराम के हाथ में अँगूठी का वर्णन है तो वह प्रथम बार उनके विवाह के अवसर पर है यथा-
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ३२७-३
श्रीरामजी की अँगूठी का वर्णन यहाँ न होकर सीताजी की अँगूठी का वर्णन गंगाजी पार करते समय नाव  से उतरते समय का है यथा-
प्रिय हिय की सिय जाननिहारी। मुनि मुदरी मन मुदित उतारी।।
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड १०२-२
पति के हृदय को जाननेवाली सीताजी ने आनन्द भरे मन से (श्रीराम के कहे बिना) अपनी रत्नजड़ित अँगूठी अंगुली से उतारी। कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने केवट से कहा कि नाव की उतराई ले लो। केवट ने व्याकुल होकर श्रीराम के चरण पकड़ लिए।
केवट ने श्रीराम से कहा हे नाथ! दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर पर चढ़ा लूँगा।
यहां श्रीरामजी के हाथ में अँगूठी की चर्चा न होकर सीताजी के हाथ में अँगूठी का वर्णन है। श्रीराम के पास दूसरी बार अँगूठी का वर्णन सीतान्वेषण के समय है। सीतान्वेषण हेतु सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान आदि प्रधान योद्धाओं को बुलाया और कहा-
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना।
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहु।।
पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा।।
परसा सीस सरोरूह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड २३-१-६
हे धीर बुद्धि और चतुर नील अंगद, जाम्बवान् और हनुमान्। तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा में जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना।
सब (अंगद, नल, जाम्बवान आदि) के पीछे पवनसुत श्रीहनुमानजी ने श्रीराम को सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने कर-कमलों से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपने सेवक को जानकर श्रीराम ने हनुमानजी को अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी।
इस प्रकार यहाँ स्पष्ट है कि श्रीराम ने हनुमानजी को अयोध्या से ही पहनी हुई अपने हाथ की अँगूठी सीताजी को पहिचान हेतु दी थी। जिसका तापस वेश के साथ कहीं भी वर्णन नहीं पाया गया है।
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का अँगूठी प्रसंग
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में कैकेयी दशरथजी से दो वरदान माँगे थे-
अनेनै वाभिषेकेण भरतो मेऽभिषिच्यताम्।
नव पञ्च च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रित:।।
चीरा जिनधरो धीरो रामो भवतु तापस:।
भरतो भजतामद्य यौवराज्यकण्टकम्।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११-२४, २६, २७
यह जो श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी की गई है, इसी अभिषेक सामग्री द्वारा उसके पुत्र भरत का अभिषेक (राज्याभिषेक) किया जाए। धीर स्वभाववाले श्रीराम तपस्वी वेष में वल्कल तथा मृगचर्म धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहें। भरत को आज निष्कण्टक युवराज पद प्राप्त हो जाए।
यहाँ श्रीराम को तपस्वी वेष में १४ वर्ष दण्डकारण्य में जाने का कैकेयी ने दशरथजी से वरदान माँगा था। तद्नन्तर श्रीराम तपस्वी वेश में १४ वर्ष वन में गए किन्तु क्षत्रिय होने के कारण, आत्मरक्षा हेतु धनुष-बाण धारण करके गए थे। साथ ही साथ उनके हाथ में राजा होने के कारण एक उनके नाम की अँगूठी रही होगी, तब ही तो वह अँगूठी का वर्णन किष्किन्धाकाण्ड में हनुमानजी को सीताजी के पास पहिचान हेतु दी गई थी।
सुग्रीव हनुमानजी की बुद्धि एवं शक्ति को अच्छी तरह जानते थे। अत: सुग्रीव ने हनुमानजी को विशेष रूप से सीताजी के अन्वेषण के लिए चुना तथा वह यह भी जानते थे कि हनुमान्जी ही एकमात्र इस कार्य को पूर्ण कर सकते हैं। सुग्रीव ने हनुमानजी से कहा-
न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये।
नाप्सु वा गतिसंग ते पश्यामि हरिपुंगव।।
सासुरा: सहगन्धर्वा सनागनदेवता:।
विदतो: सर्वलोकास्ते ससागराधराधर:।।
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग ४३-३-४
कपि श्रेष्ठ! पृथ्वी अन्तरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारा गति का अवरोध मैं (सुग्रीव) कभी नहीं देखता हूँ। असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित सम्पूर्ण लोकों का तुम्हें ज्ञान है।
वीर (हनुमान्जी) महाकपे! सर्वत्र अबाधित गति, वेग, तेज और फुर्ती ये सभी सद्गुण तुममें अपने महापराक्रमी पिता वायु के समान है।
सुग्रीव की यह बात सुनकर श्रीराम को यह तो ज्ञात हो ही गया कि इस सीतान्वेषण कार्य की सिद्धी का सम्बन्ध इसे पूर्ण करने का सारा भार हनुमानजी पर ही है।
ददौ तस्य तत: प्रात: प्रीत: स्वनामांकोप शोभितम्।
अंगुलीयम भिज्ञानं राजपुत्र्या: परंतप:।।
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग ४४-१२
तदनन्तर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम ने प्रसन्नतापूर्वक अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित एक अँगूठी हनुमान्जी के हाथ में दी जो राजकुमारी सीता को पहचान के रूप में अर्पण करने के लिए दी। अँगूठी हनुमान्जी को देकर वे बोले कपि श्रेष्ठ! इस चिह्न के द्वारा जनक किशोरी सीता को यह विश्वास हो जाएगा कि तुम मेरे पास से ही गए हो। इससे वह भय का त्याग कर तुम्हारी ओर देख सकेगी।
महर्षि वाल्मीकिजी ने हनुमानजी का सीतान्वेषण में जो वर्णन किया है वह बड़ा ही रोचक एवं हनुमान्जी के श्रेष्ठ गुणवान, बुद्धिमान, सर्वगुण सम्पन्नता का किया है। वे वार्तालाप शैली में अत्यन्त ही प्रवीण है जो देखते ही बनती है।
अहं ह्यतितनुश्चैव वानरश्च विशेषत:।
वाचं चोदा हरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्।
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति।।
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता।।
वाल्मीकिरामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग ३०-१७-१८-१९
हनुमान्जी ने मन ही मन सोचा कि एक तो उनका शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है। दूसरे वे वानर हैं। विशेषत: वानर होकर भी वे यहाँ मानवोचित संस्कृत भाषा में बोलेंगे तो ऐसा करने में एक बाधा है, यदि वे द्विज की भाँति संस्कृतवाणी का प्रयोग करेंगे तो सीताजी उन्हें रावण समझकर भयभीत हो जाएंगी। ऐसी दशा में अवश्य ही उन्हें उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिसे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता बोलती है, अन्यथा इन सती-साध्वी सीता को मैं उचित आश्वासन नहीं दे सकता।
अंत में सीताजी को उनके हरण के पूर्व से सुग्रीव श्रीराम की मित्रता तक वृत्तांत सुनाया। इससे सीताजी का हनुमानजी पर विश्वास हो सके तब उन्होंने-
वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य श्रीमत:।
रामनामांकितं वेदं पश्य देव्यगुलीयकम्।
वाल्मीकिरामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग ३६-२
महाभागे! मैं परम बुद्धिमान भगवान् श्रीराम का दूत वानर हूँ। देवि! यह श्रीरामनाम से अंकित मुद्रिका है, इसे लेकर देखिए।
इस तरह हम देखते हैं कि श्रीराम के पास अँगूठी थी तथा उन्होंने हनुमान्जी के साथ दूत के रूप में भेज दी। श्रीराम का तापस वेश तथा हाथ में अँगूठी में उनके नाम की सुन्दर मुद्रिका होना, उनकी लीला थी उसे हम समझ नहीं सकते हैं।
कन्नड़ तोरवे रामायण में श्रीराम की अँगूठी का प्रसंग
प्रसिद्ध कन्नड़ तोरवे रामायण में श्रीराम का अँगूठी का प्रसंग अपने आपमें एक अलग विशेषता लिए हुए हैं। श्रीराम को दशरथजी ने एक ‘राजमुद्रिकाÓ वन गमन के पूर्व दी थी तथा जो उन्हें कहा गया था। वह अन्य श्रीरामकथाओं में एक वर्णन लगभग नहीं प्राप्त होता है। यह प्रसंग यहाँ महर्षि वाल्मीकिजी कुश को सुनाते हुए कहते हैं कि- कैकेयी का क्रोधपूर्ण स्वरूप श्रीराम पहिचान गये।
अपने को कलंकित न होना पड़े इस तरह के विचार करते हुए श्रीराम ने निजी सचिव, मंत्रिगण, पुरजन, परिजन आदि को बुलाकर समयोचित बातों से उन्हें समझाकर, मनवाकर क्रोध तप्त कैकेयी को समझा बुझाकर विनयपूर्ण रीति से प्रणाम किया। उन्होंने कैकेयी से कहा कि आप मेरे बारे में सोच विचार में न पड़े। राजा भरत को बुलवाकर अयोध्या का आधिपत्य सौंप दे। इस तरह निवेदन करते हुए श्रीराम ने पिताजी दशरथजी के चरणों में माथा नवाया।
कंद केलीरेलु वरुषवु संद बलि की नगर विदुनि
न्निंद पालिसी कोललि को मुद्रिकेय नीनंदु
संदणि सुवश्रुगलला निज नंदनन किरू वैरलिगिट्टं्
तेंदु नुडिदनु वर सुमंत्रगा महीपाला।
कन्नड़ तोरवे रामायण अयोध्याकाण्ड संधि ४-५
दशरथजी ने राम से कहा, ‘बेटे चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होने पर अयोध्या लौटकर आकर राज्य संभालो। यह लो राज मुद्रिका।Ó इस तरह कहते दशरथजी की आँखें डबडबा आई, फिर राम को राजमुद्रिका पहनाते हुए सुमंत्र से कहा कि हमारा रत्नमय सुन्दर रथ मँगवाओ। उसमें बैठाकर इन्हें ले जाओ। यदि तुम्हें वापस आने की अनुमति मिले तो आ जाओ। नहीं तो इन्हीं के साथ रहना। अब तुम वन जाओ। यहाँ हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि इस रामायण में श्रीराम को अँगूठी राजा दशरथजी ने ‘राजमुद्रिकाÓ के रूप में वन गमन के समय पहनाई थी।
अन्य श्रीरामकथाओं के अनुसार ही श्रीराम ने भी किष्किन्धाकाण्ड की संधि ८ में उनकी अँगूठी हनुमानजी को दी। सुग्रीव ने हनुमान्जी को श्रीराम को सौंप दिया। हनुमानजी ने भी भक्तिभाव से भरकर श्रीराम के चरणों में माथा रखकर प्रणाम किया। ‘पीछा कर रहे कष्ट रूपी समुद्र के लिए तू एक बाँध है।Ó इस तरह हृदयांतराल से प्रीतिपुरस्सर वचन कहते हुए श्रीराम ने हनुमानजी को मंगलकारी राजमुद्रायुक्त अपने नाम की अपनी अँगूठी दे दी।
अरिवुदरि नगरवलि सीतेय कुरुहनुदित पतिव्रतागुण
मेरेदिरलु मुगलीवुदी निजराज मुद्रिकेय
कुरु हिग लनिव हेलवदु येदरुहि केलवनु बीलु कोट्टनु
मरेय मायानरनु नरवो लंजना सुतन
कन्नड़ तोरवे रामायण किष्किन्धाकाण्ड संधि ८-१८
श्रेष्ठ पतिव्रता गुणों से सम्पन्न सुशोभित सीताजी को शत्रु की राजधानी में पहुँचकर पहिचानो। तत्पश्चात् यह मेरी राजमुद्रांकित, अँगूठी उसे दे देना। फिर परिचय के रहस्य सीता से कहो ‘इस तरह कहते हुए मायानर श्रीराम ने साधारण मानव की तरह पहिचान के कुछ रहस्य हनुमानजी को समझाकर उन्हें रवाना किया।
सीताजी को सांत्वना देकर त्रिजटा पहरे पर नियुक्त स्त्रियों सहित सो गई। उस समय कमलमुखी सीताजी अपनी चिन्ता को त्यागने में असमर्थ हो पति के बारे में सोचते हुए व्याकुल थीं, तब हनुमानजी पेड़ की डाली पर से बोले- देवीजी आपके पति के श्रीचरण कुशलमंगल सम्पन्न अत्यन्त क्षेमपूर्वक है। लक्ष्मण देव बल सम्पन्न हैं। पराक्रमी कपियों के राजा कुशलपूर्वक हैं। इन तीनों ने मुझे गुप्त रीति से आपका कुशलमंगल जानने यहाँ भेजा है। पतिव्रता के चरणकमलों का दर्शन भाग्य से मुझे प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् हनुमान्जी ने रावण द्वारा उनके हरण तथा रावण द्वारा जटायु को मरणासन्न अवस्था में छोड़ जाने तक का वर्णन किया। ऐसा कहकर हनुमानजी उस सुन्दर वृक्ष पर से उतर कर उन्होंने सीताजी के चरणों में माथा टेका। तब भूमिसूता (सीताजी) डर के मारे भयभीत हो गई। तब हनुमानजी ने कहा माँ आप भयभीत क्यों हैं। मैं तो असुरारि (श्रीराम) का सेवक हूँ। अंजनादेवी का पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। हम भयानक रूप धारण करने वाले नहीं हैं। अत: आप डरिये मत। सीताजी ने कहा, तुम तो कपि हो श्रीराम राजा हैं। यह स्वामी सेवक का सम्बन्ध कैसा हो सकता है।
हनुमानजी ने सीताजी को जयन्त (कौआ) का वृत्तांत बताया, अत्रि महर्षि के आश्रम में ठहरने आदि का वृत्तांत कह सुनाया, कपट स्वर्ण मृग की कथा भी कही, सीताजी प्रत्युत्तर नहीं दे पा रही थी। हनुमानजी ताड़ गए। ऐसा सोच विचार करके हनुमानजी ने श्रीराम की रत्नजड़ित राजमुद्रांकित अँगूठी सीताजी को दे दी। सीताजी यह देखकर प्रसन्न हो गई।
इस तरह श्रीराम की रत्नजड़ित राजमुद्रांकित अँगूठी का यह वर्णन इस रामायण में दिया गया है कि महाराज दशरथजी ने श्रीराम को यह अँगूठी वनगमन के समय दी थी। वह राजमुद्रांकित अँगूठी यहाँ श्रीराम ने पहिचान के रूप में हनुमानजी द्वारा सीताजी को भेजी थी। इस रामायण में श्रीराम की अँगूठी का रहस्य स्पष्ट दिखाई देता है।

    प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर

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