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मजबूत लोकतंत्र के लिए सांसदों की हाजिरी जरूरी

संसद सत्र के दौरान सांसदों के अनुपस्थित रहने का मामला इन दिनों एक बार फिर चर्चा में हैं। मंगलवार को कुछ ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई, जब राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान पूछे जाने वाले पूरक प्रश्नों के जवाब देने के लिए संबंधित विभागों के कई मंत्री उपस्थिति नहीं थे। इस पर सभापति हामिद अंसारी ने नाराजगी जाहिर की, तो विपक्ष को चुटकी लेने का मौका मिल गया। बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसदीय दल की बैठक में प्रतिनिधियों को आड़े हाथों लिया। सांसदों की अनुपस्थित रहने की प्रवृत्ति पुरानी भले ही है, लेकिन अक्षम्य है। यहां तक कि कई मंत्री भी उपस्थित रहना जरूरी नहीं समझते। इसके चलते सदन में पूछे जाने वाले सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। न केवल सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं बल्कि संसद की कार्यवाही पर होने वाला भारी-भरकम खर्च की बर्बादी भी होती है। जिस गति से विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पाता है।
हर राष्ट्र का सर्वाेच्च मंच उस राष्ट्र की पार्लियामेंट होती है, जो पूरे राष्ट्र के लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होती है, राष्ट्र-संचालन की रीति-नीति और नियम तय करती है, उनकी आवाज बनती है व उनके ही हित में कार्य करती है। राष्ट्र के व्यापक हितों की सुरक्षा करती है। लेकिन सांसद यदि अपने इस दायित्व का पूरा निर्वाह ईमानदारी से नहीं करते हैं तो वे न केवल संसद के प्रति बल्कि आम जनता के प्रति भी विश्वासघात करते हैं। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए एवं जनप्रतिनिधियों की इस लापरवाही पर प्रधानमंत्री ने सांसदों को नसीहत देकर एक सराहनीय उपक्रम किया है, एक आदर्श परम्परा का सूत्रपात किया है। विचित्र है कि जिन मामलों में सांसदों को खुद सतर्कता बरतनी और अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, उनके लिए प्रधानमंत्री को फटकार लगानी पड़ी है। ऐसी कड़ाई की दरकार दूसरे दलों से भी है।
भारत के लोगों की हजारों वर्षों से एक मान्यता रही है कि हमारी समस्याओं, संकटों व नैतिक ह्रास को मिटाने के लिए अवश्य कोई फरिश्ता आएगा और हम सबको उबार लेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यह विश्वास दिलाया है…. ”यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः“….। जब-जब धर्म का ह्रास और पाप में वृद्धि होगी तब-तब मैं धरती पर जन्म लूंगा“…..। पर अभी पूर्ण अवतार सम्भव नहीं, अर्ध-अवतार की भी सम्भावना नहीं, तब ऐसे ही कुछ लोग अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर लोगों के विश्वास को कायम रखेंगे कि अच्छे आदमी पैदा होने बन्द नहीं हुए हैं। देश, काल और स्थिति के अनुरूप कोई न कोई विरल पुरुष सामने आता है और विशेष किरदार अदा करता है और लोग उसके माध्यम से आशावान हो जाते हैं। कोई मोदी जैसे कद्दावर नेता आते हैं और अच्छाई-बुराई के बीच भेदरेखा खींच लोगों को मार्ग दिखाते हैं तथा विश्वास दिलाते हैं कि वे बहुत कुछ बदल रहे हैं तो लोग उन्हें सिर माथे पर लगा लेते हैं। सांसदों को नसीहत देना इनके ही बस की बात है।
लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर ईमारत ही नहीं है, यह एक अरब 30 करोड़ जनता के दिलों की धड़कन है। उसके एक-एक मिनट का सदुपयोग हो। संसद की कार्यवाही के लिये प्रत्येक सांसद भरपूर तैयारी करें, अपनी सक्रिय, सृजनात्मक एवं रचनात्मक उपस्थिति दर्ज कराये। देखने में आता है कि अनेक सांसद निष्क्रिय, उदासीन एवं लापरवाह रहते हैं। वे यदि सक्रिय भी होते हैं तो संसद की कार्यवाही को बाधित करने, वहां शोर, नारे और अव्यवहार करने की ही उनकी सक्रियता देखी जाती हैं। कुछ वर्षों से हम देख रहे हैं कि हमारे इस सर्वोच्च मंच की पवित्रता और गरिमा को अनदेखा किया जाता रहा है। जब भी इसका सत्र आहूत होता है, उससे पूर्व ही इसकी कार्यवाही नहीं चलने देने का शोर शुरू हो जाता है और फिर जो दृश्य व प्रतिनिधियों का व्यवहार एवं आचरण दिखता है वह सिर झुका देता है। जो मंच जनता की भावना की आवाज देने के लिए है, उसे स्वार्थ का मंच बना दिया जाता है और दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठने दिया जाता। क्या सत्ता पक्ष, क्या प्रतिपक्ष, दोनों अपनी शपथ और दायित्व की मूल भावना को सर्वथा भूल जाते हैं, और कई-कई दिनों तक कार्यवाही नहीं चलने देते हैं। देश के करोड़ों रुपये का नुकसान होता है। अभी पिछले दिनों नोटबंदी के नाम पर पूरा सत्र बिना कार्यवाही के सम्पन्न हो गया।
ऐसा होना निर्धनजन और देश के लिए हर दृष्टि से महंगा सिद्ध होता है। यदि हमारे प्रतिनिधि ईमानदारी से नहीं सोचंेगे और आचरण नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर करना ही छोड़ देगी।
आपको बता दें कि पिछली यूपीए सरकार के बताये आंकडों के हिसाब से संसद की प्रति मिनट कार्यवाही पर 2.5 लाख रुपये, एक घंटे की कार्यवाही पर 1.5 करोड़ रुपये और पूरे दिन के काम पर करीब 9 करोड़ रुपये खर्च होते थे, जो वर्तमान में काफी बढ़े हैं। सवाल ये हैं कि हर महीने डेढ़ लाख रुपये की तय तनख्वाह के अलावा सरकारी बंगला और मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं की लंबी-चैड़ी लिस्ट रखने वाले हमारे सांसद क्या अपने समय एवं जनता की गाढ़ी कमाई की कीमत समझ पाएंगे? भारत में कुल 4,582 विधायक। प्रति विधायक वेतन भत्ता मिला कर प्रति माह 2 लाख का खर्च होता है। अर्थात 91 करोड़ 64 लाख रुपया प्रति माह। इस हिसाब से प्रति वर्ष लगभग 1100 करोड़ रूपये। लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर कुल 776 सांसद हैं। इन सांसदों को वेतन भत्ता मिला कर प्रति माह 5 लाख दिया जाता है। अर्थात कुल सांसदों का वेतन प्रति माह 38 करोड़ 80 लाख है। और हर वर्ष इन सांसदों को 465 करोड़ 60 लाख रुपया वेतन भत्ता में दिया जाता है। अर्थात भारत के विधायकों और सांसदों के पीछे भारत का प्रति वर्ष 15 अरब 65 करोड़ 60 लाख रूपये खर्च होता है। इनके आवास, रहने, खाने, यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर-सपाटा आदि का खर्च भी लगभग इतना ही है। अर्थात लगभग 30 अरब रूपये खर्च होता है इन विधायकों और सांसदों पर। सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मियों के खर्च पृथक हैं। इतने बड़े बजट के बावजूद यदि सांसद अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझते हैं तो यह राष्ट्रीय मूल्यों को कमजोर करना ही कहा जायेगा।
संसदीय व्यवस्था के हालात प्रारंभ से ही ढुलमूल रहे हैं। शुरुआत में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं जागरूक रहकर सांसदों को भी जागरूक बनाया था। अब पीएम मोदी संसदीय व्यवस्था को सुदृढ़ एवं अनुशासित करने में जुटे हैं तो उसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। थोड़ी बहुत चुनौतियों के बीच मौजूदा लोकसभा कामकाज के हिसाब से पिछले कई वर्षों के रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। सदन के प्रति सांसदों को जवाबदेह बनाने के लिए मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी ढेरों प्रयास किए हैं। जरूरत है लोकतंत्र प्रशिक्षण के कार्यक्रम की। नये बनने वाले सांसदों के लिये यह प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिसमें एक आदर्श जन-प्रतिनिधि के व्यवहार के साथ-साथ उसकी कार्यशैली, संसदीय व्यवस्था का सघन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसके लिये कार्यशाला एवं प्रशिक्षण का प्रबन्ध हो। तभी हम हमारे इस सर्वोच्च मंच की पवित्रता और गरिमा को अक्षुण्ण रख सकेंगे।
विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि बहुत सारे सांसद सदन की चर्चा में शामिल होना तो दूर, अपने क्षेत्र की समस्याएं भी सदन के समक्ष रखना जरूरी नहीं समझते। सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि अक्सर इसलिए चुप्पी साधे रखते हैं कि कहीं उनके सवालों से सरकार के सामने असहज स्थिति न पैदा हो जाए या फिर उनकी कोई बात उनके वरिष्ठ नेताओं को नागवार गुजरे। इसलिए अक्सर वे सदन से बाहर रहते हैं। मगर इसके चलते कई बार सरकार को मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है, जैसा कि मंगलवार को हुआ। कई अहम विधेयकों पर सरकार का पक्ष कमजोर हो जाता है। ऐसे में सांसदों की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे सदन में उपस्थित रहें। संसद सत्र के अलावा बाकी के दिन उन्हें दूसरे कामों के लिए मिलते हैं, वे उसके अनुसार अपना कार्यक्रम बना सकते हैं। मगर देखा जाता है कि बहुत सारे सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी कम ही जाते हैं। इसके चलते सरकार की कई योजनाओं और फैसलों की सही-सही जानकारी लोगों तक नहीं पहुंच पाती। पीएम ने इसीलिये संसदीय क्षेत्र एवं संसद की कार्यवाही- दोनों ही मोर्चों पर अपने सांसदों को सक्रिय रहने एवं अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण निर्वाह करने की कड़ी नसीहत दी है। इस मामले में वे सिर्फ नसीहत देकर कर्तव्य पूरा नहीं मान लेने वाले हैं। वे लगातार अपनी पार्टी के सदस्यों पर नजर रखेंगे। अगर कोई व्यक्ति सदन में उपस्थिति न होकर संसद में कहीं और बैठा हुआ है, तो भी उसे अनुपस्थित माना जाएगा। इस कड़ाई से शायद सांसदों की मनमानी पर कुछ अंकुश लगे। यह ठीक है कि जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों के जिम्मे बहुत सारे काम होते हैं, पर इस आधार पर उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर रहने की छूट नहीं मिल जाती। जनप्रतिनिधि का काम सदन को अपने क्षेत्र की समस्याओं से अवगत कराना, उनके हल के लिए उपाय सुझाना और दूसरे सांसदों की तरफ से उठाए गए प्रश्नों, समस्याओं आदि के संबंध में सरकार की तरफ से की गई कार्रवाई आदि को जानना-समझना, उस पर टिप्पणी करना भी है। हमारे राष्ट्र की लोकसभा का यही पवित्र दायित्व है तथा सभी प्रतिनिधि भगवान् और आत्मा की साक्षी से इस दायित्व को निष्ठा व ईमानदारी से निभाने की शपथ लेते हैं और उन्हें इस शपथ को निभाना भी चाहिए, तभी हमारा लोकतंत्र मजबूत होता और तभी हम नया भारत निर्मित कर पाएंगे।
ललित गर्ग

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