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भारत में मुस्लिम क्यों और कब से ‘असुरक्षित’?*

बलबीर पुंज

गत दिनों राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भारत को मुस्लिमों के लिए असुरक्षित बताते हुए कहा, “…हमने अपने अपने बेटा-बेटी को कहा कि उधर (विदेश) ही नौकरी कर लो, अगर नागरिकता भी मिले तो ले लेना.. अब भारत में माहौल नहीं रह गया है…।” विवाद बढ़ने पर सिद्दीकी ने खेद प्रकट तो किया, किंतु अपने वक्तव्य के मर्म पर अड़े रहे। भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, शेष विश्व में प्रवासी भारतीयों की संख्या तीन करोड़ से अधिक है, जिनमें से अधिकांश उज्जवल भविष्य, व्यक्तिगत विकास और अधिक धन अर्जित करने हेतु वर्षों से स्वदेश से बाहर है। इनमें से कई अपनी नागरिकता तक बदल चुके है। क्या इनके लिए यह कहना उचित होगा कि वे सभी भारत में ‘असुरक्षा’ या ‘माहौल बिगड़ने’ के कारण देश छोड़ने को विवश हुए? 

साधारणत: किसी एक व्यक्ति के नकारात्मक विचारों की अनदेखी की जानी चाहिए। किंतु सिद्दीकी ने जो कुछ कहा, वह दुर्भाग्य से उस एक शताब्दी पुरानी मानसिकता का प्रतिबिंब है, जिसने न केवल भारत को दीमक की तरह खोखला किया, अपितु भारत के रक्तरंजित विभाजन में निर्णायक भूमिका निभाई। वर्ष 2015 में दिल्ली के निकट दादरी (उत्तरप्रदेश) में मोहम्मद अखलाक की हिंसक भीड़ द्वारा निंदनीय हत्या और उसके बाद का विषैला विमर्श— इसी दर्शन का परिणाम था। तब फिल्म अभिनेता आमिर खान से लेकर पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी आदि और ‘अवार्ड वापसी गैंग’ ने एक स्वर में कहा कि भारत ‘अब’ मुस्लिमों के लिए ‘असुरक्षित’ हो गया है। क्या उससे पहले वे ‘सुरक्षित’ अनुभव करते थे? यह सही है कि अखलाक मुसलमान था। किंतु क्या उसकी हत्या का कारण केवल उसका मुसलमान होना था? दादरी की कुल जनसंख्या 11 लाख से अधिक है, जिसमें 12 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। यदि अखलाक पर हिंसक भीड़ उसके मजहब के कारण टूट पड़ी, तो क्या दादरी में तब शेष मुसलमानों पर भी ऐसा ही कोई हमला हुआ?— नहीं। सच तो यह है कि उन्मादी भीड़ ने अखलाक को गोवंश का हत्यारा समझा था। 

भारत का विभाजन क्यों हुआ? तत्कालीन मुस्लिम समाज के बड़े वर्ग को अनुभव हुआ कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद कांग्रेसी शासन में वे ‘असुरक्षित’ हो जाएंगे— इसलिए उन्होंने अपने लिए अलग राष्ट्र की मांग कर दी, जिसमें मुस्लिम लीग को अंग्रेजों और वामपंथियों का समर्थन मिला। यह स्थिति तब थी, जब गांधीजी, पं.नेहरू सहित समस्त कांग्रेसी नेतृत्व मुस्लिमों में व्याप्त ‘असुरक्षा’ को दूर करने हेतु प्रयासरत थे। इस घटनाक्रम की एक पृष्ठभूमि थी। 

वर्ष 1938-39 में मुस्लिम लीग द्वारा प्रदत्त ‘पीरपुर रिपोर्ट’, जो पाकिस्तान की मांग को उचित ठहराने का आधार बनी, उसमें तत्कालीन कांग्रेस पर ‘फासीवादी’, ‘गौरक्षक’, ‘हिंदू पर्वों में मस्जिदों के बाहर संगीत बजाने’, ‘जबरन हिंदी थोपने’, ‘वंदे मातरम् के उद्घोष हेतु विवश’ आदि करने का आरोप लगाया गया था। यही आक्षेप अब कांग्रेस— वामपंथियों और कई मुस्लिम जनप्रतिनिधियों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल, भाजपा और आरएसएस पर लगा रही है। सबसे दिलचस्प तो यह है कि राजा सैयद अहमद मेहदी, जिन्होंने पीरपुर रिपोर्ट तैयार की थी— वह विभाजन के बाद न केवल खंडित भारत में रुक गए, अपितु कांग्रेस में शामिल होकर दो बार लोकसभा सांसद और भारत सरकार में उप-मंत्री भी बने। ऐसे पाकिस्तान-परस्तों की एक लंबी सूची है। 

वास्तव में, भारत में मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से के लिए ‘माहौल’ तब से ‘खराब’ है, जब वर्ष 1707 में क्रूर औरंगजेब के निधन के बाद देश में इस्लामी राज का अंत प्रारंभ हुआ। ब्रितानियों के भारत आगमन से पहले लगभग संपूर्ण भारतवर्ष पर छत्रपति शिवाजी द्वारा प्रतिपादित ‘हिंदवी स्वराज्य’, दक्षिण में वोडियार राजवंश, पश्चिम में राजपूतों और उत्तर में सिख गुरु परंपरा से निकले योद्धाओं (महाराजा रणजीत सिंह सहित) आदि का वर्चस्व पुनर्स्थापित हो चुका था। इस्लामी साम्राज्य समाप्त होने से पनपी ‘असुरक्षा की भावना’ ने कालांतर में ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ को जन्म दिया, जिसके गर्भ से मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। इसी चिंतन ने मुस्लिमों को 1920 में ‘हिज़रत’ अर्थात्— भारत को ‘दार-उल-हरब’ बताकर ‘दार-उल-इस्लाम’ अफगानिस्तान की ओर पलायन हेतु प्रेरित किया। तब इसके संचालकों में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री) भी शामिल थे। हिज़रत, मजहबी ‘खिलाफत आंदोलन’ का अंश था, जिसका गांधीजी ने यह सोचकर नेतृत्व किया कि इससे मुसलमानों में व्याप्त ‘असुरक्षा’ दूर हो जाएगी। किंतु इस स्वाभाविक गठजोड़ ने खिलाफत को मालाबार, मुल्तान, सहारनपुर, अजमेर आदि क्षेत्रों में हिंदुओं पर जिहादी हमलों का उपक्रम बना दिया। इसपर क्रोधित गांधीजी ने मुस्लिमों को ‘गुंडा’ कहकर परिभाषित किया। विभाजन के बाद मुस्लिम समाज के एक वर्ग को खंडित भारत में दशकों से ‘असुरक्षा’ का आभास हो रहा है। 

धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद कश्मीर में 21 हिंदुओं-सिखों को उनकी पूजा-पद्धति के कारण आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया। घाटी में यह जिहाद 1980-90 से दशक से जारी है, जिसमें, बकौल जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल दिवंगत जगमोहन द्वारा लिखित पुस्तक “माय फ्रोज़न टर्बुलेंस इन कश्मीर”— वर्ष 1989-96 के बीच 4646 (अधिकांश हिंदू) स्थानीय लोगों की हत्या कर दी गई थी, तो 31 मंदिरों को तोड़ दिया गया था। 1980 के दशक में पंजाब स्थित चरमपंथियों ने भी गैर-सिखों— विशेषकर हिंदुओं को चिन्हित करके सरेआम मौत के घाट उतार दिया था। 

‘असुरक्षा की भावना’ क्या होती है— यह कोई नूपुर शर्मा से पूछे, जो बीते छह माह से अपने प्राणों की रक्षा हेतु ‘भूमिगत’ है। इस प्रकरण से ‘माहौल’ कैसा है, यह जून 2022 में उदयपुर (राजस्थान) और अमरावती (महाराष्ट्र) में जिहादियों द्वारा क्रमश: कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे की गला काटकर हत्या करने से स्पष्ट है। क्या इन सबके बाद भारत में असहज हिंदुओं को देश छोड़ने का विचार आया? नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनका अपनी सनातन संस्कृति से भावनात्मक जुड़ाव है, जो उन्हें किसी भी परिस्थिति में देश से जोड़े रखता है। 

क्या ऐसा कोई तरीका है, जिससे आमिर खान, हामिद अंसारी या अब्दुल बारी सिद्दीकी आदि को भारत में ‘असुरक्षा का अनुभव’ न हो? संभवत: नहीं— क्योंकि जो काम इस भूखंड में गांधीजी, पं.नेहरू आदि नहीं कर पाए, क्या वह कोई और कर पाएगा?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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