वंदे मातरम् को लेकर फिर बहस छिड़ गई है। मेरठ, इलाहाबाद और वाराणसी की नगर निगमों के कुछ पार्षदों ने इस राष्ट्रगान को गाने पर एतराज किया है। हाल ही में इलाहाबाद में वंदे मातरम को लेकर हंगामा हुआ था, कई सभासदों ने इस पर नाराजगी जताई और बैठक का बॉयकॉट कर दिया। इससे पहले मेरठ नगर निगम बोर्ड की बैठक में भी वंदे मातरम् को लेकर विवाद हो गया था। बैठक में विपक्षी मुस्लिम पार्षद वंदे मातरम गाने के दौरान सदन से उठकर बाहर चले गये थे क्योंकि इसे वे इस्लाम-विरोधी मानते हैं। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस तरह राष्ट्र-गीत को लेकर बनी संकीर्णता एवं उसे गाएं या ना गाएं कोे लेकर विवाद होने को चिन्ता का विषय बताया है। जो वंदे मातरम् आजादी की लड़ाई में देशभक्ति का पावर बैंक हुआ करता था, वही वंदे मातरम् आजादी के बाद बदले वक्त में एक अलग ही राजनीतिक राग एवं संकीर्णता का प्रतीक बन गया, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
कितने ही स्वप्न अतीत बने। कितने ही शहीद अमर हो गए। कितनी ही गोद खाली और मांगंे सूनी हो गईं। कितने ही सूर्य अस्त हो गए। कितने ही नारे गूँजे आजादी के लिए-यह सब हुआ और इसी आजादी का प्रतीक बना था वन्दे मातरम् गीत। इसके लिये मुसलमानों की कुर्बानी भी कोई कम नहीं है। इसलिये अपने देश के मुसलमान भाइयों को बतलाने-समझाने की जरूरत है कि वंदे मातरम् इस्लाम-विरोधी बिल्कुल नहीं है। गीत के जो प्रारंभिक दो पद्य राष्ट्र गीत के रूप में मान्य किये गये हैं उनमें किसी हिन्दू देवी-देवता को महिमामंडित नहीं किया गया है। मुसलमानों को ‘वन्दे मातरम्’ गाने पर आपत्ति इसलिये भी बतायी जा रही है, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। जबकि यह गान किसी देवी नहीं, बल्कि धरती माता की पूजा की बात कहता है। माता भी कौन-सी? पृथ्वी। जो जड़ है। इसमें भारत को माता कहा गया है। वंदे-मातरम् में भारत के जलवायु, फल-फूल, नदी-पहाड़, सुबह-शाम और शोभा-आभा की प्रशंसा की गई है। किसी खास देवी की पूजा नहीं की गई है। वह कोई हाड़-मासवाली देवी नहीं है। वह एक प्रतीक है। विभिन्न मुस्लिम देशों में भी वहां राष्ट्रीय गीतों में मातृ-भूमि का यशोगान गाया गया है। मशहूर शायर अल्लामा इकबाल हो या विख्यात संगीतकार ए० आर० रहमान – भारत माता के गुणगान गाये हैं जो खुद एक मुसलमान हैं। रहमान ने वन्दे मातरम् को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था जो बहुत लोकप्रिय हुआ। अधिकतर लोगों का मानना है कि यह विवाद राजनीतिक है। इस राष्ट्र-गीत के प्रति सबके मनों में सम्मान होना जरूरी है और इसको सब गाएं, इसके लिए जरुरी है कि प्रेम और तर्क से गलतफहमियों को दूर किया जाए, भ्रांतियां दूर हो।
स्वाधीनता संग्राम में वन्दे मातरम् गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो इसके स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत ‘जन गण मन’ को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को ‘वन्दे मातरम्’ गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है, इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी निम्न वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया-‘शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है। बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है, को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, 24-1-1950)
इस तरह आजाद भारत में वन्दे मातरम् एक राष्ट्र-गीत के रूप में मान्य हुआ है। यह एक गीत ही नहीं, बल्कि ऐसा उजाला है जो करोड़ों-करोड़ों के संकल्पों, कुर्बानियों एवं त्याग से प्राप्त हुआ है। आजादी किसी एक ने नहीं दिलायी। एक व्यक्ति किसी देश को आजाद करवा भी नहीं सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की विशेषता तो यह रही कि उन्होंने आजादी को राष्ट्रीय संकल्प और तड़प बना दिया। इस उजाले को छीनने के कितने ही प्रयास हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। उजाला भला किसे अच्छा नहीं लगता। आज हम बाहर से बड़े और भीतर से बौने बने हुए हैं। आज बाहरी खतरों से ज्यादा भीतरी खतरे हैं। साम्प्रदायिकता, आतंकवाद और अलगाववाद की नई चुनौतियां हैं- वन्दे मातरम् गीत के सामने। लोग समाधान मांग रहे हैं, पर गलत प्रश्न पर कभी भी सही उतर नहीं होता। हमें आजादी प्राप्त करने जैसे संकल्प और तड़प उसकी रक्षा करने के लिए भी पैदा करनी होगी।
क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न राजनीतिक गलियारों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी आया। इसे बिजोय एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य, नाम के एक वाद में उठाया गया। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने राष्ट्र-गान जन गण मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्रगान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गीत को गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली और स्कूल को उन्हें वापस लेने का निर्णय दिया। सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान तो करता है पर उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अतः इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। चूँकि वन्दे मातरम् इस देश का राष्ट्रगीत है अतः इसको जबरदस्ती गाने के लिये मजबूर करने पर भी यही कानून व नियम लागू होगा।
एक अरब तीस करोड़ के राष्ट्र को वन्दे मातरम्-राष्ट्रगीत कह रहा है कि मुझे विवाद में न उलझाओ, बल्कि विकास का माध्यम बनाओ। मुझे आकाश जितनी ऊंचाई दो, भाईचारे का वातावरण दो, विकास की रफ्तार दो, अब कोई किसी की जाति नहीं पूछे, कोई किसी का धर्म नहीं पूछे, मेरे राष्ट्र का जीवन सभी ओर से सुन्दर हो, निष्कंटक हो। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् हो। इस वातावरण को निर्मित करने के लिये अगर कहीं पर राष्ट्रीय गीत गाने का रिवाज शुरू किया जा रहा है, तो उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। वंदे मातरम् आजादी के लिये देशवासियों द्वारा दी गयी अनगिनत कुर्बानियों का प्रतीक है, इस पर राजनीति करने वाले सावधान हो जाओ। राष्ट्र को इन विस्फोटक विसंगतियों से उबारना जरूरी है।
– ललित गर्ग –