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गूढ़ार्थ के पर्यायवाची – भगवान शिवशंकर

प्रशांत पोळ

सृष्टि में असीम आनंद का वातावरण हैं. वसंत की उत्फुल्लता चहुं ओर दृष्टिगोचर हो रही हैं. ऋतुओं के संधिकाल का यह महापर्व अपने पूरे यौवन पर हैं. वातावरण में बाबा भोलेनाथ के जयकारों की गूंज हैं. ‘कंकर – कंकर में शंकर’ की उक्ति पर दृढ़ श्रध्दा रखनेवाला हिन्दू समाज, उत्सव की मुद्रा में हैं.

कल महाशिवरात्रि हैं..!

*सृष्टि के आरंभ का दिन. सृष्टि के सृजन का दिन. भगवान शिव – पार्वती के विवाह का दिन. प्रत्यक्ष ब्रह्म से साक्षात्कार का दिन !*

हिन्दू धर्म का सौन्दर्य हैं की यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म नहीं हैं. ‘ईश्वर एक हैं’ यह तो मान्यता हैं. किन्तु इस एक ईश्वर के अनेक रूप हैं, यह पक्की आस्था हैं. इन्ही रूपों में से एक महत्व का स्वरूप हैं, ‘भगवान शंकर’ का. सृष्टि के विनाश के प्रतीक का. सृष्टि की ऊर्जा के स्रोत का. ईश्वर के सभी रूपों में सबसे गूढ और रहस्यमय स्वरूप यदि किसी का होगा, तो वह हैं, शिव का. भगवान शंकर का.

भगवान शिवशंकर की जिस रूप में हम पूजा करते हैं, उसे इस्लामी आक्रांता आने के बाद से ‘शिवलिंग’ के रूप में जाना जाने लगा. मूलतः संस्कृत के ‘लिंगम’ का अर्थ होता हैं – चिन्ह या प्रतीक. शिवलिंग की उत्पत्ति के बारे में अथर्ववेद में यूपस्तंभ के श्लोक का संदर्भ हैं. इस श्लोक मे एक अनादी – अनंत स्तंभ का वर्णन है. यह स्तंभ या स्कंभ याने ही ब्रह्म..! अथर्ववेदके 10 वे कांड के 7 वे सूक्त का 35 वां श्लोक है –

*स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम् .*
*स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ..*

अर्थात ‘स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है. स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ ही संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है.’

*इसका अर्थ यह है कि भगवान शंकर को हम जिस रूप मे पूजते है वह ब्रम्हांड का प्रतीक है. अर्थात असीम ऊर्जा, असीम शक्ति का प्रतिमान है.* यह ऊर्जा, यह शक्ति चाहे तो हमारे लिए जीवनदायिनी हो सकती है, या संपूर्ण विनाश का कारण भी बन सकती है. ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में, 10 वे मण्डल के 129 वे सूक्त में लिखा हैं – ‘शिवलिंग का संबंध ब्रम्हांड की उत्पत्ति के साथ हैं’.

हिन्दू धर्म ने इस शक्ति की प्रतीक के रूप में आराधना की, पूजन किया, जिसे बाद में शिवलिंग कहा गया. यहां ‘लिंग’ या ‘लिंगम’ यह शब्द मानवी लिंग से अभिप्रेत नही है. *प्राचीन काल में बडे आकार के गोलाकार (यूप) स्तंभ के रूप मे भगवान शंकर की आराधना होती थी. प्राचीन मंदिरों में बडे और भव्य आकार में शिवलिंग मिलते है. इस्लामी आक्रांता आने से पहले समूचे भरत खंड में (कंधार, पेशावर से लेकर तो फिलीपिन्स और इंडोनेशिया तक) भगवान श्री शंकर को बडे, विशाल शिवलिंग के रूप में ही पूजा जाता था.* किंतु इस्लामी आक्रांता आने के बाद सब कुछ बदल गया.

बडे और विशाल शिवलिंगों की पूजा मंदिरो में ही करना संभव था. इस्लामी आक्रमण होते थे तो अन्य देवताओं के विग्रह (मुर्तियां) पुजारी / पंडित उठाकर कही छिपा देते थे. किंतु ऊर्जा के प्रतीक इन विशाल शिवलिंगों को कही छुपाना संभव ही नही था. इसलिये ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी के बाद शिवलिंग छोटे आकार में बनने लगे और घरों में उनकी पूजा -आराधना होने लगी. फिर मंदिरों में भी, तुलना में, छोटे आकार के शिवलिंग स्थापित किये जाने लगे.

*अर्थात हमारे पूर्वजों ने इस शिवतत्व को ठीक से पहचाना था. इस असीम ऊर्जा के प्रतीक, ‘यूपस्तंभ’ का ज्ञान हमारे पुरखों के पास निश्चित रूप से था.*

*मूलतः भगवान शंकर यह ऊर्जा के साथ ही ज्ञान के अपरिमित भंडार का प्रतीक हैं.* हमारे पूर्वजों ने इस बात को समझा था. किन्तु हम उन संदेशोंको डी-कोड करने में, संदेशों का अर्थ समझने में असमर्थता का अनुभव करते हैं. भारत में बारह ज्योतिर्लिंग हैं. इस सभी ज्योतिर्लिंगों को ऊर्जा का स्रोत माना जाता हैं. इनका वर्णन करनेवाला श्लोक हैं –

_सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।_
_उज्जयिन्यां महाकालम्ॐकारममलेश्वरम् ॥१॥_

_परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमाशंकरम् ।_
_सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥२॥_

_वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमीतटे ।_
_हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये ॥३॥_

_एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः ।_
_सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥४॥_

अर्थात इन बारह ज्योतिर्लिंगों में पहला स्थान रखनेवाले सोमनाथ मंदिर के बाहर एक स्तंभ हैं. इसे ‘बाणस्तंभ’ कहा जाता हैं. _(इस बाणस्तंभ के बारे में मैंने विस्तृत रूप से अपनी पुस्तक, *‘भारतीय ज्ञान का खजाना’* में लिखा हैं.)_ हजारों वर्ष पुराने इस बाणस्तंभ में एक पट्टिका हैं, जिस पर लिखा गया हैं –
*‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिरमार्ग’*
अर्थात इस सोमनाथ मंदिर से दक्षिण धृव पर्यंत, अंटार्टिका तक, बिना बाधा के (बिना जमीन के टुकड़े के) एक सीधी प्रकाश रेखा खींची जा सकती हैं. *इसका दूसरा अर्थ यह हैं की दक्षिण धृव से भारत के पश्चिम तट पर, बिना बाधा के, प्रकाशपुंज पहुंचाने वाली सीधी रेखा जिस स्थान पर मिलती हैं, वहीं पहला ज्योतिर्लिंग स्थापित हुआ..!*

हजारों वर्षों पहले, दक्षिण धृव से सोमनाथ मंदिर तक, अबाधित ‘ज्योतिरमार्ग’ हैं, यह हमारे पूर्वजों को कैसे पता चला? इस ‘ज्योतिरमार्ग’ का ‘ज्योतिर्लिंग’ से क्या संबंध हैं? यह सब रहस्यमय हैं. गूढ़ार्थ लिए हैं.

मात्र सोमनाथ और ज्योतिर्लिंग ही नहीं, तो भगवान शंकर के अन्य स्थान भी रहस्य से भरे हुए हैं. *दक्षिण भारत में पंचमहाभूतों पर आधारित भगवान शिवशंकर के मंदिर हैं. आश्चर्य की बात यह की इनमे से तीन मंदिर, जो एक दूसरे से डेढ सौ से पौने दो सौ किलोमीटर दूर हैं, वे सब बिलकुल एक सीधी रेखा पर हैं.*
यह तीन मंदिर हैं –

• श्री कालहस्ती मंदिर
• श्री एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम
• श्री तिलई नटराज मंदिर, त्रिचनापल्ली.

पृथ्वी पर किसी स्थान को चिन्हित या तय करने के लिए हम जिन कॉर्डिनेट्स का उपयोग करते हैं, एवं जिसे हम अक्षांश व रेखांश कहते हैं. इनमें से अक्षांश (Latitude) अर्थात पृथ्वी के नक़्शे पर खींची गई (काल्पनिक) आड़ी रेखाएं. जैसे कि विषुवत, कर्क रेखा इत्यादि… जबकि रेखांश इसी नक़्शे पर खींची गई लम्बवत रेखाएं. इन तीनों मंदिरों के अक्षांश और रेखांश इस प्रकार से हैं –

*मंदिर अक्षांश रेखांश पंचमहाभूत तत्त्व*
१. श्री कालहस्ती मंदिर 13.76 N 79.41 E वायु
२. श्री एकम्बरेश्वर मन्दिर 12.50 N 79.41 E पृथ्वी
३. श्री तिलई नटराज मन्दिर 11.23 N 79.41 E आकाश

*यह तीनों मंदिर एक ही रेखांश बिंदु 79.41E पर स्थित हैं, अर्थात एक ही सीधी रेखा पर हैं.* यह तीनों मंदिर कब निर्माण किए गए, यह बताना कठिन है. इस क्षेत्र में जिन्होंने शासन किया है वे पल्लव, चोल इत्यादि राजाओं द्वारा इन मंदिरों का नवीनीकरण किए जाने का उल्लेख अवश्य मिलता है. परन्तु लगभग तीन – साढ़े तीन हजार वर्ष पुराने तो हैं ही, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है.

तो फिर यही प्रश्न सामने खड़ा रहता हैं, उन दिनों जब (पश्चिमी सोच के अनुसार) नक्शाशास्त्र की जानकारी नहीं थी, कंटूर मैप्स उपलब्ध नहीं थे, सेटेलाइट इमेजिंग का तो प्रश्न ही नहीं था, तब हमारे पूर्वजों ने इतनी अचूकता के साथ, इन मंदिरों को बिल्कुल सीधी रेखा पर कैसा बनाया..?

एक और प्रश्न – पांच मंदिरों में से मात्र तीन ही मंदिर सीधी रेखा पर क्यूं ? बाकी दो मंदिर क्यूं नहीं ?

काफी खोजबीन के बाद इसका उत्तर मिला. लगभग तीन हजार वर्ष पहले हमारी मान्यताओं में ‘तीन तत्वों’ की, अर्थात ‘त्री-भूत’ की संकल्पना थी. वायु – पृथ्वी – आकाश. बाद में अग्नि और जल, यह दो तत्व मिलकर ‘पंचमहाभूतों’ की संकल्पना विकसित हुई. आंध्र प्रदेश (कालहस्ती मंदिर) और तमिलनाडु में निर्मित यह पांचों शिव मंदिर एवं जमीन पर उनकी संरचना अक्षरशः चमत्कृत करने वाली है.

*हमारे पुरखों ने इन पांच मंदिरों के माध्यम से शिव तत्व का एक विशाल पट हमारे सामने रखा हैं. किन्तु हम अभागे, इस भाषा को नहीं समझ पा रहे हैं. इन मंदिरों की रचना के माध्यम से निर्मित होने वाली कूट भाषा यदि हम आधुनिक काल में समझ सके तो प्राचीन काल के अनेक रहस्य हमारे समक्ष खुल सकेंगे..!*
– प्रशांत पोळ
#महाशिवरात्रि #शंकर #भोलेनाथ

महाशिवरात्रि पर्व पर विशेष-
परम कल्याणकारी – भगवान शिव
मृत्युंजय दीक्षित
महाशिवरात्रि का पावन पर्व फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। ईशान संहिता के अनुसार ज्योर्तिलिंग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाशिवरात्रि के नाम से लोकप्रिय हुआ। यह शिव और पार्वती के विवाह के रूप में हर घर में मनाया जाता है। इस पवित्र दिन पूरा भारत शिवभक्ति में तल्लीन हो जाता है और भगवान शिव के चरणों में अपने आप को अर्पित कर पुण्य अर्जित करना चाहता है।
महाशिवरात्रि का पर्व उत्तर में काश्मीर लेकर दक्षिण के आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के सभी मंदिरों में भव्य रूप से मनाया जाता है। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर सहित देश के विभिन्न प्रान्तों में स्थित समस्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों में शिव भक्तों की महा भीड़ उमड़ती है। भारत के गाँव गाँव और गली गली में भगवान शिव के छोटे – बड़े मंदिर विद्यमान हैं और ऐसा ही मनोरम दृष्य प्रत्येक शिवाले का रहता है। भारत के पड़ोसी देशों बांग्लादेश और नेपाल के शिव मंदिरों में भी यह पर्व मनाया जाता है। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में यह पर्व व्यापक रूप में मनाया जाता है तथा भक्तों की अपार भीड़ उमड़ती है।
शिवरात्रि व्रत व भगवान शिव की महिमा का वर्णन शिव पुराण में मिलता है। भगवान शिव की महिमा वेदों में भी कही गयी है। उपनिषदों में भी शिव जी की महिमा का वर्णन मिलता है। रूद्रहृदय, दक्षिणामूर्ति , नीलरूद्रोपनिषद आदि उपनिषदों में शिवजी की महिमा का वर्णन मिलता है । भगवान शिव ने अपने श्रीमुख से शिवरात्रि व्रत की महिमा का वर्णन स्वयं ब्रहमा, विष्णु और पार्वती जी को किया है। निष्काम तथा सकाम भाव से सभी व्यक्तियों के लिए यह महान व्रत परम हितकारक माना गया है।
महादेव जी थोड़ा सा जल और बेलपत्र पाकर भी संतुष्ट हो जाते हैं । वे सभी के कल्याण स्वरूप हैं। इसलिए सभी को शिवजी की पूजा करनी चाहिये। शिव जी सभी को सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं भगवान शिव कार्य और करण से परे हैं। ये निर्गुंण, निराकार,निर्बाध, निर्विकल्प निरीह, निरंजन, निष्काम, निराधार तथा सदा नित्यमुक्त हैं। भगवान शिव पंचाक्षर और षडाक्षर मंत्र हैं तथा केवल ऊँ नमः शिवाय कहने मात्र से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान शिव सर्वोपरि देव हैं। सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं। सम्पूर्ण विश्व शिवकृपा से ही पाश मुक्त हो सकता है। भगवान श्री शिव की उपासना के बिना साधक अभीष्ट लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। शिवोपासना के द्वारा ही परम तत्व शिवत्त्व की प्राप्ति संभव है।
जब से सृष्टि की रचना हुई हैं तब से भगवान शिव की आराधना व उनकी महिमा की गाथाओं से भण्डार भरे पड़े हैं। स्वयं भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने भी अपने कार्यों की बाधारहित सिद्धि के लिये उनकी साधना की और शिव जी के शरणागत हुए। भगवान श्रीराम ने लंका विजय के पूर्व भगवान शिव की आराधना की। भगवान शिव के भक्तों व उनकी आराधना की कहानियां हमारे पुराणों व धर्मग्रथों में भरी पड़ी है। जो भी व्यक्ति चाहे वह कैसा भी हो या फिर किसी भी दृष्टि से उसने भगवान शिव की आराधना की हो भगवान शिव ने आराधना से प्रसन्न होकर सभी को आशीर्वाद दिया। यदि किसी ने उनके आशीर्वाद का गलत उपयोग किया तो उन्होनें उसका उसी रूप में निराकरण भी किया। सभी कहानियों का सार यही है कि भगवान शिव अपने भक्तों की पुकार अवश्य सुनते हैं। भगवान शिव ने देवराज इंद्र पर कृपादृष्टि डाली तो उन्होनें अग्निदेव, देवगुरू, बृहस्पति और मार्कण्डेय पर भी कृपादृष्टि डाली।
हिंदी कवियों ने भी भगवान शिव की स्तुति व महिमा का गुणगान किया है। हिंदी के आदि कवि चंदवरदाई ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो के प्रथम खंड आदिकथा में भगवान शिव की वंदना की है। महान कवि विद्यापति ने भी अपने पदों में भगवान शिव का ही ध्यान रखा है। महान कवि सूरदास ने भी शिवभक्ति प्रकट की है। भगवान शिव की महिमा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है। सिख धर्म के अंतिम गुरू गोविंद सिंह महाराज द्वारा लिखित दशम ग्रन्थ साहिब में भी शिवोपासना का विशेष वर्णन मिलता है।
भगवान शिव परम कल्याणकारी है। जगदगुरू हैं। वे सर्वोपरि तथा सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं। उन्हांने इस समस्त संसार व सांसारिक घटनाओं का निर्माण किया है। सांसारिक विषय भोगों से मनुष्य बंधा है तथा शिवकृपा से ही वह पापमुक्त हो सकता है। भगवान शिव जब प्रसन्न होते हैं तो साधक को अपनी दिव्य श्क्ति प्रदान करते हैं जिससे अविद्या के अंधकार का नाश हो जाता है और साधक को अपने इष्ट की प्राप्ति होती है।।इसका तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य शिव जी को प्रसन्न करके उनकी कृपा का पात्र नहीं बन जाता तब तक उसे ईश्वरीय साक्षात्कार नहीं हो सकता।
अतः कहा जा सकता है कि ज्ञान और भक्ति इन तीनों के परमार्थ तथा सभी विद्याओं, शास्त्रों , कलाओं और ज्ञान- विज्ञान के प्रवर्तक आशुतोष भगवान शिव की आराधना के बिना साधक अभीष्ट लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। शिवोपासना के द्वारा ही परम तत्व अथव शिवतत्व की प्राप्ति संभव है। भगवान शिव अपने भक्त की आराधना से भी प्रसन्न होकर उसका तत्क्षण परम कल्याणकर देते हैं इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शिव पूजन और व्रत करना चाहिये।
परात्पर सचिचदानंद परमेश्वर शिव एक है। वे विश्वातीत भी हैं और विश्वमय भी । वे गुणातीत और गुणमय भी हैं। भगवान शिव में ही विश्व का विकास संभव है। भगवान शिव शुद्ध, सनातन, विज्ञानानन्दघन, परब्रम्ह हैं उनकी आराधना परम लाभ के लिए ही या उनका पुनीत प्रेम प्राप्त करने के लिए ही करनी चाहिये। सांसारिक हानि- लाभ प्रारब्ध होते हैं इनके लिए चिंता करने की बात नहीं । शिव जी की शरण लेने से कर्म शुभ और निष्काम हो जायेंगे। अत : किसी भी प्रकार के कर्मों की पूर्णता के लिये न तो चिंता करनी चाहिये और नहीं भगवान से उनके नाशार्थ प्रार्थना ही करनी चाहिये। “ऊँ नमः शिवाय” या फिर अपनी जिहवा पर शिव मात्र का स्मरण करने से व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त हो सकता है। अतः परम कल्याणकारी सृष्टिकर्ता व पूरे विश्व के नीति नियंतक भगवान शिव की आराधना तन, मन, धन से एकाग्रचित होकर करनी चाहिये ।
प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

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