आपको स्मरण होगा कि कश्मीर में 8 जुलाई 2016 को आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कुछ माह तक दक्षिण कश्मीर में अलगाववादियों के आह्वान पर संपूर्ण बंद के साथ हिंसक आंदोलन भी हुए।
उसी संदर्भ में सितंबर 2016 को देश के विभिन्न विपक्षी राजनैतिक दलों के नेता सीताराम येचूरी , डी राजा, असदुद्दीन ओवैसी, राजनारायण यादव आदि शरद यादव के नेतृत्व में कश्मीरी अलगाववादियों से मिलने के लिए श्रीनगर गए थे । परंतु मुख्य नज़रबंद व बंदी अलगाववादी नेताओ मौ.फारुक उमर, अली शाह गिलानी, मो.यासीन मालिक व शब्बीर शाह एवं अब्दुल गनी भट्ट सभी ने इन नेताओं से मिलने को मना कर दिया था । ये वही अलगाववादी नेता है जो ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगवाते है और भारतीय सैनिकों पर हमले भी करवाते रहते है । यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इनके द्वारा भड़काये गए उग्रवादियों के ही भयावह अत्याचारों से सन् 90 के दशक में कश्मीरी हिंदुओं का उत्पीड़न हुआ व उनको वहां से भागने को विवश किया था । जबकि देश के नागरिकों द्वारा दिए जा रहें भारी राजस्व से मुख्य धारा में लाने के लिये कश्मीरियों, अलगाववादियों व आतंकियों पर 1947 से ही अरबो रुपया बहाया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त इन अलगाववादियों को सरकारी सहायता का गोरखधंधा 1989 में आरम्भ की गई 2 योजनाओं में आवंटित धन के घोटालों से भी हो रहा है । इन घोटाले की अधिकृत जानकारी कैग (सीएजी) द्वारा मार्च 2016 में प्रकाशित 162 पेज की रिपोर्ट से हुआ है । अशांत राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा सुरक्षा संबंधी व्यय योजना ( एसआरई-पी) व पुलिस कर्मियों और विस्थापितों के पुनर्वास व सहायता के लिए बनाई गयी दूसरी योजना (एसआरई-आरआर) के अन्तर्गत जम्मू -कश्मीर को भारत सरकार ने क्रमशः रु. 4735.51 व रु. 2472.45 करोड़ की आर्थिक सहायता दी गई थी । परंतु इन दोनों योजनाओं का अधिकांश धन अलगाववादियों की विदेश यात्राओं, सुरक्षा, फाइव स्टार होटल सुविधा, सरकारी कारें, निवास व कार्यालय और स्वास्थ आदि पर व्यय हुआ । यह भी कहना गलत नहीं होगा कि इन अलगाववादियों को मिली सरकारी सहायता से ही आतंकियों को पोषित किया जाता आ रहा है। इस आतंकवाद के कारण लगभग पिछले 35 वर्षों में 5462 सुरक्षाकर्मियों व 16725 निर्दोष नागरिको की हत्याऐं हुई । पिछले 6 वर्षो से अलगाववादियों पर 100 करोड़ रुपया प्रति वर्ष केंद्र व राज्य सरकार द्वारा व्यय के समाचार आये है । वह संभवतः उपरोक्त योजनाओं के घोटाले से अलग हो । फिर भी राष्ट्रीय अस्मिता को ठुकराने वाले ये कश्मीरी अलगाववादी अपनी भारतविरोधी गतिविधियों में सक्रिय रह कर पाकिस्तान व अन्य आतंकवादी संगठनों का साथ देने में कोई संकोच नहीं करते ।क्या यह सब इनके भारत विरोधी होने का कोई “पुरस्कार” है जिससे “भारत तेरे टुकड़े होंगे” या “भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहेगी” जैसी दूषित देशद्रोही मानसिकता पनपती है ? इतिहास से समझा जा सकता है कि मनुष्य की प्रवृति जो मूलतः उसके धर्म/पंथ से निर्धारित होती है, को कुछ काल के लिए ही दबाया जा सकता है परंतु लम्बे समय तक यह संभव नहीं । सामान्यतः अलगाववाद से उत्पन्न आतंकवाद का मुख्य कारण मानवता के स्थान पर अपने पंथ/धर्म को श्रेष्ठ मान लेने की मूर्खता है ।
यह विचित्र ही है कि हमारे राजनेता व सरकारें इतनी अंधी हो गई , कि वह दीमक की तरह देश को खोखला करने वाले अलगाववादियों व आतंकियों के प्रति बिलकुल निश्चिन्त है । जबकि यह सर्वविदित है कि पिछले लगभग 35 वर्षो से हमारा देश मज़हबी आतंकवाद “जिहाद” से पीड़ित है । इस्लामिक “जिहाद” को पुरे देश में फैलाने के लिए आतंकियों ने कश्मीर को आधार बना कर देश के विभिन्न स्थानों के आतंकियों से मिलकर अपने नेटवर्क को जिस प्रकार बढ़ाया है उसमें इन अलगाववादियों की मुख्य भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । इन आतंकियों के नेटवर्क को गुप्तचर विभागों की अनेक फाइलों में ढूंढा जा सकता है । परंतु अकर्मण्यता की स्थिति में आतंकियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही न होने से इनके हौसले बहुत बढ़ गए है । सत्ता के लालच में कोई भी शासन-प्रशासन इस फैलती हुई जिहादी जड़ को संज्ञान में ही नहीं लेता ? क्योंकि हमारे राजनेताओं की प्राथमिकता “देश की सत्ता” पाने के लिए राजनीति करने की है न कि “देश की संप्रभुता ” की रक्षा के लिए ? इस आतंकवाद के लिए हमारी सरकार बार बार केवल पाकिस्तान को दोष देती है पर यह नहीं सोचती की पहले अपने ही घर में पल रहें सापों को दूध पिलाना बंद करके उनके विष को नष्ट किया जाय। जिस प्रकार दीमक प्रायः दिखाई नहीं देती, वह पेड़ को अंदर ही अंदर चुपचाप खोखला करती रहती है और पता जब चलता है, जब पेड़ अचानक गिरता है । कुछ यही हाल अलगाववादियों व आतंकवादियों का भी है उनको पोषित करने वाली अनेक सहायतायें भी चुपचाप पुरे देश में आतंकवाद का विस्तार करने में लगी हुई है।अतः केंद्र सरकार को समस्त ऐसी योजनाओं पर रोक लगा कर इन देशद्रोही अलगाववादियों के “प्रिवीपर्स” बंद करके काला पानी के समान कठोर सजा देनी होगी तभी इन देशद्रोहियों में भय व्याप्त होगा और इस्लामिक आतंकवाद से मुक्ति मिल सकेगी ? अन्यथा वार्तायें चाहे पाकिस्तान से हो या अलगाववादियों से सब व्यर्थ होती रहेगी और समाज व राष्ट्र को जिहादरुपी दीमक अंदर ही अंदर खोखला करती रहेगी।
अतः जिन पाकपरस्त देशद्रोही अलगाववादियों /आतंकवादियों से केवल गोली की बात करनी चाहिये उनसे वार्ताओं का कोई औचित्य ही नहीं । ऐसे में विभिन्न राष्ट्रीय नेता उनसे वार्ता करके क्या सन्देश देना चाहते थे ? क्या इन नेताओं ने कभी उन लाखो विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा को जानने का प्रयास किया है जो 27 वर्षो से नारकीय जीवन जीने को विवश है ? क्या इनमें से कोई कारगिल युद्ध (1999 ) के वीर कैप्टन सौरभ कालिया व विक्रम वत्रा आदि के घर उनके बुजूर्ग माता-पिता के दर्द को सुनने गया ? कौन-कौन नेता उन वीर सैनिकों हेमराज व सुधाकर सिंह आदि के घर गए जिनके सीमा पर सिर काटे गये (08.01.2013) और किसने उन हज़ारो सैनिको के परिवारों के प्रति कोई संवेदना व्यक्त करी जो सीमाओं व कश्मीर घाटी में आतंकियों की गोलियों का शिकार बनें ? क्या कोई ऐसा नेता है जो यह दावा कर सकें कि 35 वर्षों में देश के उन हज़ारो परिवारों के प्रति कभी कोई संवेदना व्यक्त करी हो या उनका कुशलक्षेम जाना हो जिनके प्रियजन आतंकवादी घटनाओं में काल का ग्रास बनें या जिहाद की भेंट चढ़ायें गये ?
बड़ा खेद होता है जब इन विपक्षी नेताओं में अनेक आतंकवादी घटनाओं में पीड़ित व विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा के प्रति कोई भाव ही नहीं जागता बल्कि उनकी दुर्दशा के जिम्मेदार अलगाववादियों से वार्तालाप करके मुसलमानों को ही संतुष्ट करना चाहते है । अनेक बार यह आवाज उठाई जाती है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा ) को कश्मीर से हटा लिया जायें क्योंकि वहां सेनाओं के कारण सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है । परन्तु क्या वहां के आम नागरिको की सुरक्षा की कोई गारंटी लेगा ? बात-बात पर सेना को कोसने के पीछे केवल एक ही मंशा होती है कि भारत सरकार कश्मीरियों का उत्पीड़न कर रही है । जबकि यह कहने का कोई साहस नहीं करता कि 2010 के समाचारों के अनुसार बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश से प्रति व्यक्ति ग्यारह गुना अधिक वार्षिक सहायता वहां के लोगों की भारत सरकार ही करती है । जिससे अनेक आतंकियों/अलगाववादियों अप्रत्यक्षरूप से मालामाल भी हो रहें है ?
क्या लोकतांत्रिक राजनीति का यही आदर्श है कि केवल तुष्टिकरण के चक्रव्यूह में फंस कर दुर्जनों व दुष्टों को संतुष्ट करते रहो और मातृभूमि पर बलिदान होने वाले सज्जनों के प्रति पीड़ा तो दूर कोई सद्भाव भी न बनाओं ? जिस उदार समाज का ये विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता नेतृत्व करते है क्या उनके कष्टों व दुखों के प्रति इन नेताओं का कोई दायित्व नहीं बनता ? बहिष्कार होना चाहिये ऐसे अवसरवादी व संवेदनहीन नेताओं का जो अपनी नकारात्मक भूमिका से देश की राजनीति को ही शर्मसार करके आतंकवाद से पीड़ित समाज के मानवीय मूल्यों की रक्षार्थ उदासीन रहते है।
विनोद कुमार सर्वोदय
गाज़ियाबाद