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भगवान् महावीर अवतरणपर्व –वि.सं.२०८०

वे राजकुल में जन्मे थे, पर राज्य नहीं किया। कोई युद्ध उन्होंने नहीं जीते। न सेना बनाई। न पराक्रम दिखाया। न शक्ति प्रदर्शन किया। कोई चींटी तक उन्होंने नहीं मारी फिर भी “महावीर” कहलाए। है न अद्भुत बात!
वस्तुत: बाहरी शत्रुओं को परास्त करने से अधिक कठिन है भीतरी शत्रुओं को परास्त करना। क्रांति के लिए बाहरी व्यवस्थाओं से पहले खुद की व्यवस्था को बदलना पड़ता है। पहली क्रांति स्वयं में घटित करनी होती है तब जाकर समाज जीवन में क्रान्ति घटित होती है। स्वयं के आचरण, व्यवहार और शील में परिवर्तन लाए बिना समाज में परिवर्तन करने का स्वप्न देखना–दिखाना छल और पाखण्ड है। दुश्मनों को बाहर ही बाहर ढूँढने के चक्कर में हम भीतर छुपे बैठे दुश्मनों को देखना भूल जाते हैं। उनका ख्याल ही नहीं आता। हमारे “अरि” बाहर ही नहीं होते। हमारे भीतर रहकर भी उपद्रव मचाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, अभिमान …और भी न जाने कौन–कौन!
इनको पूर्णत: परास्त कर वह “महावीर” बना। आन्तरिक अरिगण का शमन कर वह “अरिहन्त” कहलाया। वासनाओं को जीत कर वह “जयी” कहलाया।

भगवान् महावीर के दिखाए मार्ग पर चल कर कोटि–कोटि मनुष्यों ने मानव–मूल्यों की प्रतिष्ठा की। मनुष्य के आर्यत्व की रक्षा की। धर्म की जड़ सदा हरी रखी। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, ब्रह्मचर्य जैसे जीवन मूल्यों को धर्म की कसौटी बनाया।

जैनाचार्यों ने “एकम् सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति” जैसी लोकतांत्रिक वैदिकी अवधारणा को “अनेकान्तवाद” का सुन्दर स्वरूप प्रदान कर भारतीय चिंतन के मूल चरित्र को स्वर दिया। सत्य के अनुसंधान के सभी मार्गों को उन्होंने स्वीकृति प्रदान की।

जैन साहित्य का पहला सूत्रग्रंथ ईसा की दूसरी शताब्दी में लिखा गया। और यह जैन धर्म का पहला संस्कृत ग्रंथ भी था। इससे पूर्व का जैन साहित्य प्राकृत भाषा में रचा गया था। “मोक्षशास्त्र” के नाम से प्रसिद्ध यह ग्रंथ “तत्वार्थ सूत्र” के नाम से भी विख्यात है। इसके रचयिता के बारे में रोचक तथ्य यह है कि दिगम्बर इन्हें “उमा स्वामी” के नाम से और श्वेताम्बर “उमा स्वाति” के नाम से जानते हैं। दोनों ही संप्रदायों में इस ग्रंथ की बड़ी मान्यता है, दोनों ही मतों के आचार्यों ने इसकी टीकाएं लिखी।
अनेक विलक्षण और चित्त को चमत्कृत कर देने वाले सूत्र इस ग्रंथ में है। उदाहरण के लिए भारतीय वाङ्मय के श्रेष्ठतम सूत्रों में से एक और अतिप्रसिद्ध उक्ति –”परस्परोपग्रहो जीवानाम्”– इसी ग्रंथ का सूत्र है। (अध्याय 5/ 21)
संसार में समरसता का भाव जगाने वाला तत्व तथा प्राणी विज्ञान की शाखा “इकोलॉजी” का सत्व इस सूत्र में देखा जा सकता है कि, “प्रत्येक जीव एक दूसरे का उपग्रह कर उसका उपकार करते हैं। सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणि एक दूसरे पर निर्भर हैं।”

ऐसे महाप्रभु को अवतरण पर्व पर स्मरण करते हुए “उत्तराध्यन सूत्र” की एक सुंदर कविता प्रस्तुत है–
जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं।
विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयइ।।
एवं धम्मं विउक्कम्मं अहम्मं पडिवज्जिया।
बाले मच्चुमुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई।।
[अध्याय 5 /14वीं–15वीं गाथा]
अर्थात् जैसे कोई मूर्ख गाड़ीवाला जानबूझकर अच्छे मार्ग को छोड़कर उबड़–खाबड़ रास्ते पर गाड़ी चलाता है और उसकी धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य धर्म का साथ छोड़, अधर्म का हाथ पकड़कर मृत्यु के मुख में चला आता है। और जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
धर्मावतार भगवान् महावीर को बारम्बार प्रणाम।
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इन्दुशेखर तत्पुरुष

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