भारत एक कृषि प्रधान और अनाज के मामले में आत्मनिर्भर देश है। अनाज भंडारण आज भी हमारे देश में एक विकट समस्या ही है और भंडारण की समुचित व्यवस्था न होने के कारण बहुत सा अनाज खराब हो जाता है। अन्न को वैसे भी भारतीय संस्कृति में ब्रह्म का दर्जा दिया गया है। आइए हम जानते हैं कि प्राचीन समय में हमारे यहाँ के किसान किस प्रकार से बुआई-कटाई से ले कर अनाज के भण्डारण तक की समुचित व्यवस्था करते थे, जिसे आज भी अपनाये जाने की आवश्यकता है, ताकि अनाज को खराब या बर्बाद होने से बचाया जा सके।प्राचीन समय से ही हमारी कृषि, पशुपालन के साथ ही हमारे देश की अनाज भंडारण व्यवस्था बहुत ही विकसित और उन्नत थी।सिंधु घाटी सभ्यता में अन्न भंडार हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के शहरों में पाए गए थे। वास्तव में, सच तो यह है कि
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से पता चला कि साढ़े चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यता में गेहूं की खेती हो रही थी और उस समय तब गेहूं के भंडारण की भी क्षमता प्राप्त कर ली गई थी। जानकारी मिलती है कि 2600 ईसा पूर्व आते आते नगरों की शुरुआत हो गई थी और इसी काल में लोगों ने बड़ी-बड़ी दीवारें और चारदीवारी बनाकर अनाज के भंडारण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। यहाँ तक कि मिट्टी के बर्तन बनना भी अब तक शुरू हो चुके थे। वास्तव में, हमारी प्राचीन सभ्यता आहड़ (सभ्यता-संस्कृति) में अनाज रखने के बड़े मृदभांड (मिट्टी से बने बरतन) प्राप्त हुए हैं। इन मृदभांडों को ‘गोरे बंकोठ’ कहा जाता था। वैसे कालीबंगा पुरास्थल में ‘जुते हुए खेत’ मिले हैं। समय,काल व परिस्थितियों के साथ साथ हमारे देश की प्राचीन संस्कृति, धार्मिक परम्परा व रीति रिवाजों में आमूल चूल परिवर्तन आए हैं। लेकिन गांवों में आज भी कई रीति रिवाज व परम्पराएं सदियों से चली आ रही है। अनाज भंडारण परंपरा भी इनमें से एक है। अनाज भंडारण के लिए प्राचीन समय में टोकरियों, बोरियों और जार, मृदभांड आदि का उपयोग किया जाता था। कुछ समुदायों के पास एक अलग गोदाम(मिट्टी, गोबर, चिकनी मिट्टी, के लेप से बना) होता था जहां वे एक बड़े ढेर में अनाज रखते थे। प्राचीन काल में और आज भी बहुत से गांवों में बाजरा, गेहूं, मोंठ, मूंग व अन्य अनाजों को गोबर, चिकनी मिट्टी व लकड़ियों, घास-फूस से बनी कोठियों जिन्हें राजस्थान के ग्रामीण इलाकों विशेषकर चूरू,झुंझुनूं, सीकर(शेखावाटी) में ‘कोठी’ या ‘कुठला’ के नाम से जाना जाता है, में वर्षों तक सुरक्षित भंडारण किया जाता था। कोठी के अनाज में राख मिलाकर कीट-कीटाणुओं से बचाकर रखा जाता है। वहीं इसके निचले हिस्से में एक छेद रखा जाता है, जिससे अनाज को आवश्यकतानुसार उपयोग में लिया जाता है। कोठी के ऊपर के भाग से अनाज को रखा जाता है। राजस्थान के गांवों में आज भी अनेक स्थानों पर इन मिट्टी, गोबर, चिकनी मिट्टी के लेप से बनी कोठियों तीज- त्यौहारों व विभिन्न अवसरों पर इन पर मांडने(पशु-पक्षी,फूल-पत्तियाँ, बेल, मोर,रंगोली, हाथी अल्पना) बनाए जाते हैं। इस झोपड़ीनुमा अनाज कोठी(कुठला) को घास से ढ़ककर इसकी साज-सज्जा की जाती थी। आकृति में यह बीच में से पेट की तरह मोटा, और ऊपर व नीचे से पतला रखा जाता था और इसका आधार जमीन पर टिका रहता था। राजस्थान के चूरू, सीकर, झुंझुनूं जिलों के साथ सरदारशहर(चूरू) में आज भी मिट्टी से बने कुठले देखने को मिल जायेंगे। वैसे प्राचीन समय में ‘ओबरी’ या ‘ओबरों’ में भी अनाज रखा जाता था लेकिन ओबरी में चार या पांच पाये होते हैं और ये पाये अंदर से थोथे (यानी कि खाली) रखे जाते थे और इनमें अनाज भर दिया जाता था। ओबरी के एक किवाड़(लकड़ी) भी रखा जाता था। प्राचीन समय में ओबरियों,कुठलों में
बारिश व आंधी में भी अनाज सुरक्षित रहता है। चूहों से व अन्य जीव-जंतुओं से भी अनाज की सुरक्षा होती थी।
स्थानीय भाषा में इन्हें ‘कोठ्यार'(अनाज भंडारण गृह) कहा जाता है। वैसे आज भी गांव घरों में शादी-ब्याह में मिठाई रखे जाने वाले कमरों, स्थान को भी कोठ्यार कहा जाता है। राजस्थान ही नहीं पहाड़ी क्षेत्रों में भी इनमें(कुठलों, कोठ्यारों, ओबरों) धान, गेंहू, कोदू, झंगोरा, चौलाई या दालें सुरक्षित रखी जाती है। पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हें (कोठ्यार) ‘कोल्ड स्टोर’ भी कहा जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों व राजस्थानी क्षेत्र के कोठ्यार में फर्क सिर्फ़ इतना होता है कि राजस्थान में ये मुल्तानी मिट्टी, गोबर, घास फूस,हल्की लकड़ी के बने होते हैं जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में ये कोठार देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में भी इन पर शानदार नक्काशी की जाती है। इन कोठ्यार की भंडारण क्षमता भी अद्भुत होती है, क्योंकि देखने में बहुत छोटे दिखने के बावजूद इनमें काफी मात्रा में अनाज का भंडारण किया जा सकता है। इन कोठ्यारों का दरवाजा बहुत ही छोटा-सा होता है और ताला भी होता है। ताला खोलने के लिए एक लंबी छड़नुमा आकर की चाबी होती है। इन कोठ्यारों का ताला खोलना हर किसी की वश की बात नहीं होती है और ताला बड़ी तरकीब के साथ खोलना होता है। कोठ्यार या कोठार अथवा कुठार की सबसे खास बात यह होती है कि इसके दरवाजे से मुख्य घर से एक सांगल/चेन बंधी रहती है और उसमे बीच-बीच में घंटियां भी बंधी रहती हैं ताकि यदि कोई चोर चोरी करने के इरादे से कुठार में घुसने की कोशिश भी करेगा तो घर के लोगों को पता चल जाता है कि चोरी होने वाली है। इस प्रकार से सुरक्षा की ये अनोखी तरकीब होती थी लेकिन आज कुठार बहुत कम देखने को मिलते हैं। वास्तव में प्राचीन समय में, अनाज, खाद्यान्न आदि के भंडारण का जो तरीका हमारे बुजुर्गों ने ईजाद किया था वो आज तक भी बड़े से बड़े इंजीनियर और विज्ञान भी नहीं कर पाया हैं। लकड़ी के इस भंडार गृह में न तो कीड़े पड़ने की संभावना रहती है न कोई फफूंद, शैवाल लगने की। वास्तव में इन भंडार गृहों में कुठार हमारी लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलती थी लेकिन आज गांव घरों में ये नहीं बचे हैं। आज इनके स्थान पर लोहे की टंकियां, कंक्रीट के बने गोदाम आ गये हैं। प्राचीन (आदिम अन्न भंडार) प्रायः मिट्टी के बर्तनों से बनाए जाते हैं। भंडारित अनाज को चूहों और अन्य जानवरों से और बारिश के पानी से दूर रखने के लिए अनाज को अक्सर जमीन के ऊपर बनाया जाता था। उस समय अनाज को धूप में सुखाया जाता था। वैसे यहां यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि बिहार की राजधानी पटना में प्रसिद्ध ‘गोलघर’ स्तूप (अनाज भंडारण हेतु) स्थित है जो कि लगभग 125 मीटर व्यास का है और जिसकी ऊंचाई 29 मीटर है। विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1770 में आई भयंकर सूखे के दौरान लगभग एक करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए थे। तब के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने गोलघर के निर्माण की योजना बनाई थी, ब्रिटिश इंजिनियर कप्तान जॉन गार्स्टिन ने अनाज के (ब्रिटिश फौज के लिए) भंडारण के लिए इस गोल ढांचे का निर्माण 20 जनवरी 1784 को शुरु करवाया था। इसका निर्माण कार्य ब्रिटिश राज में 20 जुलाई 1786 को संपन्न हुआ था। इसमें एक साथ 140000 टन अनाज़ रखा जा सकता है। अनाज भंडारण का यह बहुत बड़ा स्तूप अपने आप में अद्भुत व अनोखा है, क्योंकि कि इसमें कोई स्तंभ नहीं है और इसकी दीवारें आधार में 3.6 मीटर मोटी हैं। गोलघर के शिखर पर लगभग तीन मीटर तक ईंट की जगह पत्थरों का प्रयोग किया गया है। गोलघर के शीर्ष पर दो फीट 7 इंच व्यास का छिद्र अनाज डालने के लिये छोड़ा गया था, जिसे बाद में भर दिया गया। इसमें 145 सीढ़ियां भी बनी हुई हैं। विकिपीडिया से जानकारी मिलती है कि गोलघर के अंदर एक आवाज 27-32 बार प्रतिध्वनित होती है। यह अपने आप में स्थापत्य कला भी अद्वितीय व अनोखा नमूना है। अंत में, यही कहूंगा कि आज हमारी सनातन संस्कृति-सभ्यता में निहित हमारी परंपराओं, विभिन्न व्यवस्थाओं, पुरातन तकनीकों जिसमें अनाज भंडारण तकनीक/व्यवस्था भी शामिल है, को सहेज कर रखने की जरूरत है, क्योंकि ये धीरे धीरे विलुप्ति/समाप्ति की कगार पर पहुंच गई हैं।सुनील कुमार महला,स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार