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श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग

परशुरामजी माता-पिता से उऋण हो गए किन्तु अपने गुरु से उऋण क्यों नहीं हो सके?

श्रीरामचरितमानस का श्रवण, पारायण और सुनाने के बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी ने अत्यन्त गम्भीर बात बालकाण्ड में स्पष्ट कर दी है। श्रीरामचरितमानस के प्रसंग स्वयं कथा करने वाले को अच्छी तरह समझकर कहना चाहिए। श्रीरामकथा श्रवण करने वाले को श्रद्धा भक्ति एवं रुचि से समझना चाहिए? यदि कथा सुनाने वाले और श्रवणकर्ता भक्तों में तालमेल नहीं है तो इस पवित्र कथा का फल (लाभ) प्राप्त कभी भी नहीं होता है यथा-
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।।
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनहिं समुझि सचेता।।
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलिमल रहित सुमंगल भागी।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १५-५-६
तुलसीदासजी कहते हैं कि उनकी कविता श्रीशिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है। जो इस कथा को प्रेमसहित एवं सावधानी के साथ समझ बुझकर कहें-सुनेंगे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुन्दर कल्याण के भागी होकर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जाएंगे।
इतना कहने के बाद भी गो. तुलसीदासजी ने पुन: कहा है-
समुझि बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी।।
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १२-४
मेरी अनेक प्रकार की विनती समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं। इस कड़ी में लक्ष्मण-परशुरामजी के कुछ संवाद में उनके बीच में कुछ प्रसंगों को संकेतात्मक दोहे-चौपाइयों में गोस्वामी तुलसीदासजी ने वर्णन किया है जिसमें कुछ अन्तर्कथाएँ भी छुपी हुई है। उसे ठीक-ठीक समझने पर पाठकों को ज्ञान, भक्ति, श्रद्धा में मानस द्वारा जीवन में सुख-शांति की निश्चित प्राप्ति होगी।
श्रीराम द्वारा शिवजी के धनुष को भंग (तोड़ने पर) होने के पश्चात् परशुरामजी बड़े क्रोधपूर्वक जनकजी की सभा में पूछते हैं कि इस शिवजी के धनुष को किसने तोड़ा?
कौसिक का छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार में अकरून कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
उत्तर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौशिक सील तुम्हारे।।
नत एहि कांहि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेऊँ श्रम थोरें।।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड जी कें।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २७५-३, ४, २७६-१
विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधू लोग (सज्जन पुरुष) नहीं गिनते हैं तब परशुरामजी बोले- तीखी धार का कुठार और मैं दया रहित, क्रोधी तथा गुरु द्रोही एवं अपराधी मेरे सामने उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ तो हे विश्वामित्र केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से, नहीं तो इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े से परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता है? वह संसार में प्रसिद्ध है। आप अपने माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण (ऋण चुका देना) हो ही गये, अब गुरु का ऋण रहा है जिसका भी जी में बड़ा सोच हो रहा है।
इन चौपाईयों में परशुरामजी लक्ष्मणजी से माता-पिता के प्रति परशुरामजी द्वारा उऋण अर्थात उनका ऋण चुका देने की बात कही गई है तो दूसरी तरफ गुरु के प्रति ऋण न चुका देने का भी संकेत कर रहे हैं। अत: परशुरामजी के माता-पिता के प्रति वे उऋण कैसे हुए तथा किस गुरु का ऋण चुकाना शेष रहा यहाँ जानना आवश्यक है।
परशुरामजी का माता-पिता के प्रति ऋण चुकाना (उऋण) प्रसंग
एक समय की बात है कि परशुरामजी के पिता जमदग्नि ने अपनी पत्नी रेणुका को जल लेने भेजा। वहाँ उसने एक चित्ररथ नामक गन्धर्व एवं गंधर्वी का जल में विहार (रमण) करते हुए देखा, जिसे देखने के पश्चात् वह जल लेकर लौटी तब उन्हें विलम्ब हो गया। इतना ही नहीं वह काम से पीड़ित हो गयी। इधर जमदग्रि ऋषि ने अपने तपोबल से सब कुछ जान लिया तथा उन्हें विलम्ब होने का कारण भी समझ में आ गया। स्त्री को परपुरुष की रति देखना महा-पाप है, अत: उन्होंने अपने सात पुत्रों को एक-एक करके आज्ञा दी कि माता को मार डाले। किन्तु सातों पुत्रों ने इस कार्य को अंगीकार नहीं किया तथा आठवें पुत्र परशुराम को आज्ञा दी कि इन सात भाईयों सहित माता का भी वध कर दो। परशुरामजी ने तुरन्त ही उन सबके सिर काट डाले। इस बात पर उनके पिता जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कहा कि वर माँगों तब इन्होंने कहा कि मेरे सब भाई और माताजी जी उठे और इन्हें यह भी मालूम न हो कि मैंने इन्हें मारा था। ऋषि ने यह सुनकर तथास्तु कहकर सबको जीवित कर दिया।
परन्तु महाभारत के वनपर्व अ. ११६ में वर्णित है कि जमदग्रि का विवाह प्रेसनजित् राजा की कन्या रेणु से हुआ था जिसके गर्भ से पाँच पुत्र हुए, रुमण्यवान् (समवान्), सुषेण, वसु, विश्ववासवसु और परशुराम।
दूसरी कथा वनपर्व में इस प्रकार वर्णित है- एक दिन रेणु स्नान करने के लिए नदी में गई थी। वहाँ उसने राजा चित्ररथ को अपनी स्त्री के साथ जलक्रीड़ा करते देखा और कामवासना से उदिग्न होकर घर आई। जमदग्नि उसकी यह दशा देखकर क्रोधित हुए और उन्होंने चारों पुत्रों को एक-एक करके रेणु का वध करने की आज्ञा दी किन्तु माता के स्नेह को स्मरण करके किसी ने ऐसा नहीं किया। इतने में परशुराम आए। परशुराम ने पिता की आज्ञा पाते ही माता का तथा भाईयों का वध कर दिया। यह देखकर जमदग्रि ने प्रसन्न होकर परशुराम से वर माँगने को कहा। परशुरामजी बोले पहले तो मेरी माता को जीवित कर दीजिए और फिर यह वर दीजिए कि परमायु प्राप्त करूँ और युद्ध में मेरे सामने कोई ठहर नपाए। जमदग्रि ने तथास्तु कहा। वनपर्व ११६ में भी ऐसा वर्णन है कि परशुरामजी ने यह वर माँगे कि माता जीवित हो जाए। उसको वध का स्मरण न रहें। हमको पाप का स्पर्श न हो। सब भाई पुन: होश में आ जाए। युद्ध में कोई उनकी बराबरी न कर सकें। वे दीर्घकाल तक जीवित रहे। ऋषि जमदग्रि उन्हें वांछित सब वर प्रदान कर दिए यथा-
स वब्रे मातुरुत्थानम स्मृतिं च वधस्यवै। पापेन तेन चास्पर्शभ्रातृणां प्रकृतिं तथा १७
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घामायुश्च भारत। ददौ च सर्वान् कामांस्ता जमदग्रि महातपा: १८।।
एक समय की बात है कि परशुरामजी यह सब देखकर पृथ्वी की परिक्रमा करने चले गए। उस समय ऋषि जमदग्रि के कामधेनु गऊ न देने पर क्रोधित होकर राजा कार्त्तवीर्य ने इन्हें मार डाला। तब इनकी स्त्री रेणु ने २१ बार छाती पीटी। इतने में ही परशुरामजी ने आकर माता से सब बात सुनी और क्रोधित होकर यह प्रतिज्ञा की कि वे २१ बार क्षत्रियवंश का नाश करेंगे और वैसा ही उन्होंने किया। तब लक्ष्मणजी कहते इस प्रकार आपने पिता और माता का ऋण तो चुका दिया है किन्तु गुरु का ऋण अभी भी शेष रहा है।
आखिरकार परशुरामजी के गुरु कौन थे? उनका ऋण क्यों नहीं चुका सके?
आखिरकार परशुरामजी के गुरु कौन थे? उनका गुरु के प्रति क्या ऋण शेष रह गया है? इन बातों का स्पष्ट वृत्तांत इस प्रकार है- भगवान् शंकरजी परशुरामजी के गुरु थे। उन्होंने ही इन्हें प्रसन्न होकर परशुरामजी को परशु दिया था। परशुरामजी ने शंकरजी से अस्त्र विद्या प्राप्त की थी। शंकरजी के पुत्र कार्तिकेय के साथ ही परशुरामजी को भी शंकरजी अस्त्र विद्या सिखाते थे। एक दिन कैलास पर्वत के सर्वोच्च शिखर को बेधकर मानसरोवर तक हंसों के जाने हेतु मार्ग बनाने का आदेश शंकरजी ने परशुराम और कार्तिकेय दोनों को दिया। इस शिखर छेदन करने की आज्ञा का मूल कारण यह था कि कैलास पर्वत के उन्नत शिखर को लांघकर (पाटकर) आने जाने में हंसों को बहुत बड़ा कष्ट होता था। शंकरजी के पुत्र कार्तिकेय यह कार्य करने में असफल रहे किन्तु परशुरामजी ने अपने तीव्र बाणों से कैलास पर्वत के शिखर को बेधकर एक बड़ा छिद्र हंसों के आने-जाने हेतु बना दिया। परशुरामजी की वीरता से प्रसन्न होकर शंकरजी ने उन्हें घर जाने की अनुमति दे दी। किन्तु परशुरामजी ने गुरु दक्षिणा देने का हठ पकड़ लिया। शंकरजी ने कहा यदि तुम्हारा हठ गुरु दक्षिणा देने का है तो मेरे कंठ में पड़ी हुई मुंडों की माला जिसमें एक मुण्ड (सिर) कम है लगाकर (देकर) पूरा कर दो।
परशुराम यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और शंकरजी से पूछा कि हे प्रभो! कौन अपना मुंड सहर्ष कैसे दे सकता है? तब शंकरजी ने कहा शेषनागजी के १००० सिर हैं, उन्हीं में से एक सिर काटकर ले आओ, गुरु दक्षिणा पूर्ण हो जाएगी। बस फिर क्या था? परशुरामजी ने शेषनागजी का एक सिर काटने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु उनकी फुफकार के आगे (सामने) वे अपनी गुरुदक्षिणा पूरी नहीं कर सके। आज वही जब पुन: शेषावतारी लक्ष्मण से बारबार कहते हैं कि-
नत एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।
श्रीरामचरितमानस/बालकाण्ड/२७५
लक्ष्मण उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ अतएव हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े से परिश्रम से गुरु दक्षिणा से उऋण हो जाता।
तब लक्ष्मणजी भी परशुरामजी को चिढ़ा-चिढ़ा कर कह रहे थे कि-
माता पितहि- उरिन भए नीकें। गुरु रिनु रहा सोचु बड़ जी कै।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअव्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २७६-१-२
लक्ष्मणजी ने परशुरामजी से कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसारभर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए हैं, अब गुरु (शंकरजी) का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे आज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँगा।
लक्ष्मणजी शेषावतार हैं, अत: परशुरामजी को संकेतात्मक रूप से चिढ़ा-चिढ़ाकर कह रहे हैं कि अभी भी मेरा सिर काट न सकें तथा अपने गुरु शिवजी से उऋण न हो सके।
श्रीरामकथा कथासागर है जितनी श्रवण की जाएं कम है यथा-
दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।
श्रीरामचरितमानस/उत्तरकाण्ड/९२ (क)
संदर्भ ग्रन्थ : १. श्रीरामचरितमानस, गीता प्रेस गोरखपुर, उ.प्र. २७३००५
२. मानस पीयूष बालकाण्ड खण्ड गीता प्रेस गोरखपुर, उ.प्र. २७३००५
३. गो. तुलसीकृत रामायण- पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र संजीवनी टीका खेमराज श्रीकृष्णदास स्ट्रीम प्रेस, बम्बई-४

 प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता

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