गणि राजेन्द्र विजय –
अक्षय तृतीया भारतीय संस्कृृति एवं परम्परा का एक अनूठा एवं इन्द्रधनुषी त्यौहार है। न केवल जैन परम्परा में बल्कि सनातन परम्परा में यह एक महत्वपूर्ण त्यौहार है, इस त्यौहार के साथ-साथ एक अबूझा मांगलिक एवं शुभ दिन भी है, जब बिना किसी मुहूर्त के विवाह एवं मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं। विभिन्न सांस्कृतिक ढांचांे में ढली अक्षय तृतीया परम्पराओं के गुलाल से सराबोर है। रास्ते चाहे कितने ही भिन्न हों पर इस पर्व त्यौहार के प्रति सभी जाति, वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय और धर्मों का आदर-भाव अभिन्नता में एकता प्रिय संदेश दे रहा है।
अक्षय तृतीया तप, त्याग और संयम का प्रतीक पर्व है। इसका सम्बन्ध आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव के युग और उनके कठोर तप से जुड़ा हुआ है। जैन इतिहास और परम्परा में चली आ रही वर्षीतप की साधना और प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ का पारणा निस्संदेह ढेर सारे तथ्यों को उद्घाटित करता है। यह ऋषभ की दीर्घ तपस्या के समापन का दिन है। यों तो इस दिन देशभर में आचार्यों और मुनियों के सान्निध्य में अनेक आयोजन होते हैं और वर्षभर एकांतर तप करने वाले तपस्वी भाई-बहिन इस दिन अपनी तपस्या की पूर्णाहूति यानी समापन करते हैं। इसका मुख्य आयोजन हस्तिनापुर(जिला मेरठ- उत्तर प्रदेश) में श्री शांतिनाथ जैन मन्दिर में एवं प्राचीन नसियांजी, जो भगवान ऋषभ के पारणे का मूल स्थल पर आयोजित होता है, वहां पर देशभर से हजारों तपस्वी एकत्र होते हैं और अपनी तपस्या का पारणा करते हैं। इस वर्ष वहां आचार्य श्रीमद् विजय वसन्तसूरिजी अपने पचासवें वर्षीतप का पारणा का तप का एक नया इतिहास रचेंगे, संभवतः यह पहला अवसर होगा जब किसी आचार्य के पचासवें वर्षीतप का पारणा के दृश्य के हजारों श्रद्धालु साक्षी बनेंगे।
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का नाम है ऋषभ। वे सम्राट से संन्यासी बने, उनके प्रति जनता में गहरा आदर भाव था। यही कारण रहा कि उनके प्रजाजनों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान ऋषभदेव को भिक्षा में भोजन की भी आवश्यकता होगी। भगवान प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा करते हुए घर-घर में घूमते, लेकिन अज्ञानता के सघन आवरण के कारण कोई भी उन्हें भोजन उपहृत नहीं करता। लोग उन्हें आदर के साथ हाथी, घोड़े, रथ, रत्नाभूषण, रत्न जड़ित पादुकाएं ग्रहण करने की प्रार्थना करते। उनका मत था कि वे अपने सृजनहार को अपने पास की सबसे बड़ी एवं कीमती वस्तु उपहृत करें। इस तरह बिना आहार के भगवान ऋषभ की तपस्या के बारह महीने पूरे हो गए। इस क्रम में आप पादविहार करते हुए हस्तिनापुर पधारते हैं। आपका प्रपौत्र श्रेयांस कुमार राजमहल के गवाक्ष में बैठा सड़क के दृश्य को देख रहा है। अचानक उसकी नजरें सड़क पर भिक्षा की गवेषणा में नंगे पैर घूमते अपने संसारपक्षीय परदादा भगवान ऋषभदेव पर पड़ती है। उसे अनुभव होता है कि भगवान हस्तिनापुर की सड़कों पर क्यों घूम रहे हैं। वह दिन होता है बैशाख शुक्ला-3 का, अक्षय तृतीया का । या यों कहें भगवान ऋषभ की बारह महीने की तपस्या की पूर्णता का दिन। राजकुमार श्रेयांस को इस बात का अनुताप भी होता है कि अज्ञानता के कारण भगवान को इतने कष्ट उठाने पड़े और तपश्चर्या से गुजरना पड़ा। वह तत्काल गवाक्ष से उतरकर महलों से नीचे आकर भगवान के चरणों में नतमस्तक होता है और आप श्री को भिक्षा के लिए राजमहल में पधारने की विनती करता है। भगवान ने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथों इक्षुरस का सुपात्र दान लेकर एक नई परम्परा की शुरूआत की। इन अप्रत्याशित क्षणों के साक्षी बनकर देवलोक से समागत देवतागण भी अहोदानं-अहोदानं की ध्वनि प्रकट करते हुए पांच प्रकार के द्रव्यों की वर्षा की। कहा जा सकता है कि इस महत्वपूर्ण प्रसंग से जुड़कर बैसाख शुक्ल तीज का दिन जिसे अक्षय तृतीया का सम्बोधन भी प्राप्त हुआ एक दृष्टि से धर्म क्षेत्र में नयी सोच के दर्शन कराने वाला दिन बन गया। यही सन्दर्भ तपस्या और साधना का शुभ मुहूर्त बन गया।
समग्र जैन समाज में अक्षय तृतीया के दिन को अत्यन्त आदर और सम्मान के साथ मनाये जाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। प्रतीकात्मक रूप में इसे वर्ष भर तक एकांतर तप (एक दिन छोड़कर पुनः उपवास) की साधना के साथ मनाये जाने की परम्परा ने विगत कुछ वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। अनेक जैन धर्मावलम्बी अपने-अपने आस्था और विश्वास के केन्द्रों से निर्देशित होकर वर्ष भर की तपाराधना करते हैं और उनकी वार्षिक तपस्या की पूर्णाहूति का दिन अक्षय तृतीया ही होता है।
तपस्या को जैन धर्म साधना में अत्यन्त महत्पूर्ण स्थान दिया जाता है। मोक्ष के चार मार्गों में तपस्या का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। तपस्या आत्मशोधन की महान प्रक्रिया है और इससे जन्म जन्मांतरों के कर्म आवरण समाप्त हो जाते हैं।
जैन समाज में वर्षीतप का प्रचलन इन वर्षों में अच्छी रफ्तार पकड़ रहा है। प्रति वर्ष विभिन्न जैन सम्प्रदायों के आचार्यों की पावन सन्निधि में वर्षीतप के सामूहिक पारणों के साथ-साथ वहां न पहुंच पाने वाले तपस्वी भाई-बहनें अपने-अपने सुविधाजनक स्थानों पर अपनी वार्षिक तपस्या संपन्न करते हैं। ये तपस्वी भाई-बहनें निस्संदेह आत्म उज्ज्वलता की महान उपलब्धि के साथ-साथ जैनधर्म की श्रीवृद्धि में भी योगभूत बनते हैं। वर्षीतप की परम्परा को प्रदर्शन और आडम्बर न जुडे़, न कोई प्रलोभन जुड़े, यह आवश्यक है। अच्छा हो कि तपस्वी भाई-बहनें पूरे वर्ष भर तक कुछ सार्थक संकल्प भी स्वीकार करें ताकि तपस्या के साथ-साथ त्याग, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि से वर्षीतप और तपस्वी दोनों ही भावित हो सकें। हमें सोचना है कि कहीं जीवन मूल्यों की अक्षय परम्परा रूढ़ता का बाना पहनकर सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनकर न रह जाए, क्योंकि अनशन जैसे शब्द की कीमत तो यूं भी राजनीति के साथ जुड़कर बौनी पड़ गयी है। आज अनशन की सिर्फ अपनी मांगों की पूर्ति में समर्थन-सूत्र से ज्यादा क्या कीमत है? वर्षीतप भी प्रलोभन या स्वार्थ सिद्धि का साधन न बने। इसकी साधना से जीवन विकास की सीख हमारे चरित्र की साख बने। हममें अहं नहीं, निर्दोष शिशुभाव जागे। यह आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा बने।
अक्षय तृतीया का पावन पवित्र त्यौहार निश्चित रूप से धर्माराधना, त्याग, तपस्या आदि से पोषित ऐसे अक्षय बीजों को बोने का दिन है जिनसे समयान्तर पर प्राप्त होने वाली फसल न सिर्फ सामाजिक उत्साह को शतगुणित करने वाली होगी वरन अध्यात्म की ऐसी अविरल धारा को गतिमान करने वाली भी होगी जिससे सम्पूर्ण मानवता सिर्फ कुछ वर्षों तक नहीं पीढ़ियों तक स्नात होती रहेगी। अक्षय तृतीया के पवित्र दिन पर हम सब संकल्पित बनें कि जो कुछ प्राप्त है उसे अक्षुण्ण रखते हुए इस अक्षय भंडार को शतगुणित करते रहें। यह त्यौहार हमारे लिए एक सीख बने, प्रेरणा बने और हम अपने आपको सर्वोतमुखी समृद्धि की दिशा में निरंतर गतिमान कर सकें। अच्छे संस्कारों का ग्रहण और गहरापन हमारे संस्कृति बने। प्रस्तुति: ललित गर्ग