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नीतीश कुमार के वक्तव्य और व्यवहारों को कैसे देखें


अवधेश कुमार
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गंभीर नेता माने जाते रहे हैं। इन दिनों उनके वक्तव्य और व्यवहार लोगों को हैरत में डाल रहे हैं। विरोधियों की छोड़िए उनके समर्थक और निकटतम भी प्रश्न उठा रहे हैं कि वाकई यह नीतीश कुमार ही हैं? पिछले दिनों विधानसभा के अंदर के दो प्रसंगों ने पूरे देश में उनकी छवि को मटियामेट किया है। जनसंख्या नियंत्रण पर बोलते हुए उन्होंने पति-पत्नी के यौन रिश्ते को हाथों और चेहरे से इशारा करते हुए ऐसी शब्दावलियों का प्रयोग किया जिनकी हम आप कल्पना नहीं कर सकते। व्यक्तिगत बातचीत में उस तरह की भाषा बोली जाए तो अनदेखी की जा सकती है लेकिन सार्वजनिक रूप से और वह भी विधानसभा के अंदर कतई नहीं। हंगामा होने पर उन्होंने क्षमा याचना की और कहा कि मैं स्वयं अपनी निंदा करता हूं। हालांकि उस वक्तव्य में भी क्षमायाचना या आत्मनिंदा जैसे अफसोस का हाव-भाव नहीं था। उसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के विधानसभा में भाषण के बीच उठकर उन्होंने आम गली मोहल्लों के झगड़े सदृश अपमानजनक भाषाएं बोलीं। जीतनराम मांझी 75 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव एवं जाति आधारित गणना रिपोर्ट पर बात रख रहे थे। जाति आधारित गणना पर राज्य भर में उठ रहे सन्देह को उन्होंने शालीन भाषा में प्रकट किया। सरकार की नीतियों की विपक्ष आलोचना करता है। सरकार उसे मान्य संसदीय भाषा के तहत उत्तर देती है। नीतीश जी का हमला इन सबसे परे था। भाषण के बीच में उठकर तमतमाते हुए बोलने लगे अरे, इसको कुछो आता है, इ त हमारी मूर्खता थी कि हमने उसको मुख्यमंत्री बना दिया……। इस पर उन्होंने अफसोस भी प्रकट नहीं किया।
नीतीश जी के दिए जा रहे वक्तव्यों और व्यवहार सामान्य तौर पर समझ में आने वाले नहीं है। जब से वे भाजपा से अलग हुए मीडिया के समक्ष उनके बयानों , मंच के भाषणों के साथ विधानसभा के अंदर के व्यवहारों को थोड़े ध्यान से देखिए आप अपने आप से प्रश्न करने लगेंगे। जब भी पत्रकार विपक्ष की आलोचना पर उनसे प्रश्न करेंगे वो बोलते हैं,…आरे बोलने न दीजिए, उ सब तो बोलबे करेगा, लोग जानता नहीं है कि उ सब क्या है। ऐसे बयान देते समय उनके चेहरे पर झेंप मिटाने का भाव दिखता है, आत्मविश्वास नहीं। विधानसभा में उनका तमतमाना और गुस्से में बीच-बीच में खड़ा होकर बोलना आम हो गया है। 17 वर्षों के आसपास मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले व्यक्ति से हमेशा आत्मनियंत्रित एवं शत प्रतिशत संतुलित व्यवहार की अपेक्षा स्वभाविक होती है। यह दुखद है किंतु स्वीकारना पड़ेगा कि नीतीश जी न संतुलन रख पा रहे हैं न अपने पर नियंत्रण। मोतिहारी में केंद्रीय विश्वविद्यालय के समारोह में राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू उपस्थित थीं ।अपने भाषण में नितीश जी ने कहा कि जब यह राष्ट्रपति नहीं थीं तो मेरे पास काम लेकर आतीं थीं। राष्ट्रपति के मंच पर रहते हुए ऐसा बोलने को आप क्या कहेंगे? ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे उनके संतुलित और आंतरिक रुप से स्वस्थ होने पर प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं।
इस समय उनके कई वीडियो वायरल हैं। जिनमें दो की चर्चा प्रासंगिक होगी। एक जनता दरबार का है जहां गृह मंत्रालय से संबंधित समस्या आती है। वे अधिकारियों को कहते हैं कि गृहमंत्री को फोन लगाइए जबकि गृह मंत्रालय उनके पास है। अधिकारी कभी किसी मंत्री को फोन लगाते हैं तो कभी किसी अधिकारी को। वह पूछते हैं कि किसे लगाया और कहते हैं , हेत्तोरी के, काटिए….। दूसरा वीडियो एक मंत्री के पिता की मृत्यु पर पुष्पांजलि का है। वो पुष्प उठाते हैं और शव पर डालने की बजाय मंत्री के शरीर पर डाल देते हैं। ये दो घटनाएं क्या बतातीं हैं? इसका निष्कर्ष आप स्वयं निकालिए कि नीतीश जी इस समय किस अवस्था से गुजर रहे हैं? कोई संतुलित मस्तिष्क का व्यक्तित्व इस तरह का व्यवहार नहीं कर सकता। जनसंख्या नियंत्रण पर पति-पत्नी के यौन संबंधों का वैसा वक्तव्य न विधानसभा में किसी ने दिया होगा और न शायद आगे देगा। आप स्वयं अपनी निंदा कर लीजिए, माफी मांग लीजिए वैसे शर्मनाक वक्तव्य की गलती खत्म नहीं हो जाती। जीतनराम मांझी जैसे वरिष्ठ नेता को अपमानित करने का प्रसंग बिहार विधानसभा के इतिहास का ऐसा अध्याय बन गया है जिसकी चर्चा वर्षों तक होगी। उसमें नीतीश जी का नाम किस तरह लिया जाएगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
बिहार में अब नीतीश जी को लेकर अनेक व्यंगात्मक और कटाक्षात्मक गीत, कहावतें, मुहावरे बन गए हैं। एक समय उनके नाम के साथ सुशासन और बिहार को सम्मान दिलाने वाले गीत बनते थे। यह अपने आप हुआ नहीं है। नीतीश जी के गंभीर घोरसमर्थक भी व्यक्तिगत बातचीत में कहने लगे हैं कि अब उनके सोच और व्यवहार की गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। यह विचार करना पड़ेगा कि ऐसी स्थिति आई क्यों? नीतीश जी से ज्यादा उम्र के लोग अभी भी राजनीति में है। इसलिए विरोधियों और समर्थकों का यह कहना कि वह संतुलन रखने के उम्र को पार कर गए हैं सही नहीं है। क्या यह वर्तमान गठबंधन के भीतर असहज माहौल और व्यवहार की परिणति है? 2017 में जब नितीश जी राजद से अलग हुए थे, उन्होंने जो कारण बताया या उनके लोगों ने जो वक्तव्य दिये उन्हें याद करिए। लालू जी की अपनी राजनीतिक स्थिति सशक्त करने तथा पुलिस प्रशासन को व्यक्तिगत रूप से हैंडल करने के कारण नीतीश कुमार और उनके लोग परेशान हो गए थे। कानून और व्यवस्था के मामले में भी पुलिस प्रशासन पर इनका शत- प्रतिशत नियंत्रण नहीं था। कई बार लालू जी के यहां के आदेश क्रियान्वित हो जाने के बाद मुख्यमंत्री को पता चलता था। राजद के मंत्री मुख्यमंत्री के निर्देशों से ज्यादा लालू जी के निर्देशों पर काम करते थे। भाजपा के साथ गठबंधन में स्थिति बिल्कुल अलग थी। पूरा मंत्रिमंडल और भाजपा विधानमंडल नीतीश जी को ही नेता मानकर काम करता था। राज्य स्तर पर किसी नेता या मंत्री का ऐसा बयान आ गया जो नीतीश जी के लिए असामान्य हो तो केंद्रीय नेतृत्व से मामला सुलझ जाता था। उस समय नीतीश गठबंधन के सर्वमान्य और सर्वप्रभावी नेता थे। लंबे समय इस हैसियत में काम करने के बाद ऐसे गठबंधन में स्वयं को समायोजित करना संभव नहीं होता जहां मुख्यमंत्री रहते हुए भी सर्वमान्य और सर्वप्रभावी नेता की स्थिति नहीं हो। 2017 में वैसी स्थिति थी कि वे वापस भाजपा के साथ आ गए। अरुण जेटली जीवित थे इस कारण आरंभ में हिचकिचाहट दिखाते हुए भी भाजपा के साथ सरकार बन गई। अब वह जिस सीमा तक चले गए उसमें वापसी कठिन है। बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले बताते हैं कि लालू यादव और उनके परिवार के लोग मानते हैं कि नीतीश साथ हैं किंतु वे दिल से किसी के नहीं हो सकते। लालू जी कई बार बोल चुके हैं कि नीतीश के पेट में दांत है। साथ रहते हुए भी राजद की अपनी राजनीति कवायद समानांतर चलती है। बड़ा दल होने के कारण उनके मंत्रियों और नेताओं का व्यवहार भी नीतीश जी को असामान्य बनाने के लिए पर्याप्त हैं। बिहार के गांव-गांव में लोग बता रहे हैं कि उनके यहां जाति आधारित गणना करने कोई आया नहीं। फिर यह रिपोर्ट कैसे तैयार हो गई? क्या यह समाचार नीतीश जी और उनके रणनीतिकारों के पास नहीं पहुंचता है? उन्हें भी इसका आभास हुआ होगा कि जाति आधारित गणना का उनके राजनीतिक साझेदार ने अपनी राजनीतिक दृष्टि से उपयोग किया है। वे अपने आदेश से हुई गणना को नकार भी नहीं सकते। वह इस पर न कुछ बोल सकते हैं और न सरकार से अलग हो सकते हैं। ऐसे में झुंझलाहट, तमतमाहट, चिड़चिड़ाहट,गुस्सा और संतुलन खो जाने की स्थिति स्वाभाविक होती है। यह केवल मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार की नहीं बिहार की त्रासदी है।

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