जावेद अनीस
बाहुबली भारतीय सिने इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई है. यह देसी फैंटेसी से भरपूर एक भव्य फिल्म है जो अपने प्रस्तुतिकरण,बेहतरीन टेक्नोलॉजी, विजुअल इफेक्ट्स और सिनेमाई कल्पनाशीलता से दर्शकों को विस्मित करती है। एस.एस. राजामौली के निर्देशन में बनी यह फिल्म भारत की सबसे ज्यादा कमाने वाली फिल्म बन चुकी है। बाहुबली के दूसरे हिस्से के कमाई का आंकड़ा 1,000 करोड़ रुपये के पार पहुंच चूका है। बाहुबली एक ऐसी अखिल भारतीय फिल्म बन गयी है जिसको लेकर पूरे भारत में एकसमान दीवानगी देखी गयी लेकिन इसी के साथ ही बाहुबली को हिंदुत्व को पर्दे पर जिंदा करने करने वाली एक ऐसी फिल्म के तौर पर भी पेश किया जा रहा है जिसने प्राचीन भारत के गौरव को दुनिया के सामने रखा है।
एक ऐसे समय में जब भारत में दक्षिणपंथी विचारधारा का वर्चस्व अपने उरूज पर है, बाहुबली को इस खास समय का बाइप्रोडक्ट बताया जा रहा है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने फेसबुक पर लिखा ‘मनमोहन की जगह मोदी, अखिलेश की जगह योगी और अब दबंग की जगह बाहुबली… देश बदल रहा है।Ó
बाहुबली को लेकर सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात इसके रचियताओं का आत्मविश्वास है, रामायण और महाभारत की फ्य़ूजऩ नुमा कहानी जिसे पहले भी अलग- अलग रूपों में असंख्य बार दोहराया जा च़का है। भारी-भरकम बजट और रीजनल सिनेमा के कलाकार।उसपर भी फिल्म को दो हिस्सों में बनाने का निर्णय।
इसकी कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है जिसे तकनीक, एनिमेशन और भव्यता के साथ परदे पर पेश किया गया है। इस कहानी में वो सब कुछ है जिसे हम भारतीय सुनने को आदि रहे हैं, यहाँ राज सिंहासन की लड़ाई, साजिशें, छल–कपट, वफादारी, युद्ध ,हत्याएँ, बहादुरी, कायरता, वायदे, जातीय श्रेष्ठता सब कुछ है। राजामौली अपनी इस फिल्म से हमारी पीढिय़ों की कल्पनाओं को अपने सिनेमाई ताकत से मानो जमीन पर उतार देते हैं।
तेलुगू सिनेमा जिसे टॉलीवुड भी कहा जाता है की एक फिल्म ने बॉलीवुड को झकझोर दिया है। एक रीजनल भाषा की फिल्म के लिए पूरे देश भर में एक समान दीवानगी का देखा जाना सचमुच अद्भुत है। बाहुबली की सफलता बॉलीवुड के सूरमाओं के लिए यकीनन आंखें खोल देने वाली होगी। रामगोपाल वर्मा ने तो कहा भी है कि ‘भारतीय सिनेमा की चर्चा होगी तो बाहुबली के पहले और बाहुबली के बाद का जिक्र होगा।Ó
ऐसे में सवाल उठता है कि इस फिल्म में ऐसा क्या है जो भारतीय जनमानस की चेतना को छूती है और एक साथ पूरे भारत की पसंद बन जाती है? बारीकी से देखा जाये तो इस फिल्म में पुराने सामंतवादी विचारों और मूल्यों को महिमामंडित किया गया है और राजतंत्र, जातिवाद, पुरुष-प्रधान सोच व राजसी हिंसा का भव्य प्रदर्शन किया गया है। यह फिल्म क्षत्रिय गौरव का रोब दिखाती है और कटप्पा के सामंती सत्यनिष्ठïा को एक आदर्श के तौर पर पेश करती है जो अपने जातिगत गुलामी के लिए अभिशप्त है ।
2015 में जब ‘बाहुबली भाग एकÓ आई थी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्यÓ द्वारा Óबाहुबली से खलबलीÓ नाम से एक कवर स्टोरी प्रकाशित की गयी थी। भारतीय सिनेमा का नया अध्याय नाम से लिखे गए इसी अंक के संपादकीय में कहा गया था कि ‘बाहुबली वास्तव में हिन्दू फिल्म है…इसे सिर्फ फिल्म की तरह नहीं देखा जाना चाहिए यह तो भारतीय प्रतीकों, मिथकों, किंवदंतियों के रहस्य लोक की यात्रा है।Ó इस साल ‘बाहुबली भाग दोÓ आने के बाद ‘पांचजन्यÓ में एक बार फिर ‘मिथक बना इतिहासÓ नाम से कवर स्टोरी प्रकाशित की गयी है जिसमें बाहुबली-2 को भारतीय सनातन परंपराओं और धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षाओं से ओतप्रोत एक ऐसा महाकाव्य बताया गया है जो की सिनेमा की सीमा से बाहर की कोई चीज है और जो संपूर्ण विश्व को संबोधित करती है।
जाहिर है बहुत ही खुले तौर पर बाहुबली सीरीज की फिल्मों को हिंदू फिल्म के तौर पर पेश किया जा रहा है और इसके खिलाफ जरा सा भी बोलने वालों को निशाना बनाया जा रहा है। फिल्म समीक्षक एना वेट्टीकाड ने जब अपने रिव्यू में बाहुबली 2 की आलोचना की तो सोशल मीडिया पर उन्हें बुरी तरह से ट्रोल किया गया, उनके खिलाफ सांप्रदायिक जहर उगले गए। उन्हें बहुत ही भद्दी और अश्लील गालियाँ दी गयीं। इसको लेकर एना वेट्टीकाड ने जो चिंता जताई है उस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है, उन्होंने लिखा है कि ‘सोशल मीडिया पर मेरे खिलाफ जो कहा गया वो समाज में आ रहे बदलाव का संकेत है।Ó फिल्मों और फिल्मी सितारों को लेकर फैन्स में एकतरह का जुनून रहता है और समीक्षक जब उनकी पसंदीदा सितारों की फिल्मों पर सवाल खड़े करते हैं तो वो नाराज होते और गाली-गलौज भी करते हैं लेकिन बाहुबली के समर्थक ट्रॉल्स का बर्ताव इससे भी आगे का है।
इस तरह के व्यवहार का जुड़ाव 2014 के भगवा उभार और बॉलीवुड में खान सितारों के वर्चस्व व फिल्मी दुनिया की धर्मनिरपेक्षता से है जो हिंदू कट्टरपंथियों को कभी भी रास नहीं आयी। 2015 में पांचजन्य के ‘बाहुबली से खलबलीÓ वाले अंक में खान अभिनेताओं पर निशाना साधते हुए कहा गया था कि इस फिल्म ने साबित किया है कि खान अभिनेता ही फिल्म हिट होने की गारंटी नहीं हो सकते हैं। इसी साल फरवरी में शाहरुख खान की फिल्म रईस और ऋतिक रोशन की काबिल रिलीज हुई, तो रईस के खिलाफ सोशल मीडिया पर मुहिम चलायी गयी थी और शाहरुख के मुकाबले हिन्दू सुपरस्टार ऋतिक रोशन के फिल्म को तरजीह देने की बात की गयी थी। इस मुहीम में बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने भी बढ-चढ कर हिस्सा लिया था। उन्होंने ट्विटर पर लिखा था जो रईस देश का नहीं, वो रईस किसी काम का नहीं।
2015 में भी ‘दिलवालेÓ के समय भी शाहरुख खान को इसी तरह के अभियानों का सामना करना पड़ा था जिसके पीछे अहिष्णुता के मुद्दे पर दिया गया उनका बयान था कि ‘देश में बढ़ रही असहिष्णुता से उन्हें तकलीफ महसूस होती हैÓ। इसी तरह के अभियान आमिर खान के खिलाफ भी चलाये जा चुके है।
निर्देशक एस. एस राजमौली कि इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे का राज यही है कि उन्होंने इस खास समय और भारतीय जनमानस की ग्रंथि को समझा. देश में बहुसंख्यकवाद का उभार, दक्षिणपंथी खेमे का दिल्ली की सत्ता पर पूर्ण कब्जा और नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना ऐसे समय में बाहुबली को तो आना ही था। राजमौलि ने इस बदलाव को बहुत अच्छे से समझा जहाँ हिंदुत्व की भावना अपने ज्वार पर हैं और भारतीय संस्कृति के वैभवशाली अतीत के पुनरास्थापन की बात हो रही हैं। ना केवल हिंदुत्ववादियों ने बाहुबली सीरीज का जोरदार स्वागत किया है बल्कि इसने भारतीय जनमानस को भी उद्वेलित किया है,यह सही मायने में जनता से कनेक्ट करती है। आज हमारे समाज में गौरक्षा के नाम पर इंसानी कत्ल और संदिग्धों की बिना किसी सुनवाई के एनकाउंटर या फांसी पर चढा देने की सोच हावी है। बाहुबली इसी मानस को खाद-पानी देने का काम करती है।
निश्चित रूप से बाहुबली मौजूदा दौर के उस राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई फिल्म है जहाँ खाने-पीने, लिखने-पने और शादी के निर्णय को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कोशिशें हो रहीं है और अब इसका दायरा फिल्मों तक पहुंच चुका है। हमारी राजनीति और समाज का सांप्रदायिकरण तो पहले ही हो चूका है अब सिनेमा को लेकर भी ऐसी कोशिशें हो रही हैं। बाहुबली ने हिन्दुतत्व और भारत के तथाकथित वैभवशाली अतीत पर फिल्म बनाने की राह खोल दिया है यही इसका दक्षिण दोष है। ठ्ठ