डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह इस्राइल-यात्रा एतिहासिक है। एतिहासिक इसलिए कि जिस देश के साथ पिछले 70 साल से हमारे खुले और गोपनीय संबंध रहे हैं, वहां जाने की हिम्मत पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने की है तो वह मोदी ने की है। मोदी के पहले पी.वी. नरसिंहराव ने भी इस्राइल-यात्रा का विचार किया था लेकिन 25 साल पहले के भारत और दक्षिण एशियाई राजनीति का चरित्र कुछ ऐसा था कि राव साहब इस्राइल न जा सके लेकिन उन्होंने इस्राइल को राजनयिक मान्यता देकर भारतीय विदेश नीति के इतिहास में नया अध्याय लिखा। मोदी के इस साहस की सराहना करनी होगी कि उन्होंने सारी झिझक छोड़कर इस्राइल-यात्रा का निर्णय किया। मोदी का यह कदम नरसिंहरावजी की नीतियों को तो शिखर पर पहुंचा ही रहा है, उसके साथ-साथ संघ और जनसंघ की इस्राइल-नीति को भी अमली जामा पहना रहा है। इस्राइल से संकोच करने के पीछे दो तर्क काम कर रहे थे। एक तो भारत के मुसलमानों का नाराज होना और दूसरा अरब देशों से हमारे संबंधों में तनाव पैदा होना ! वास्तव में ये दोनों तर्क बोगस हैं। भारत के मुसलमानों का इस्राइल से क्या लेना-देना है ? वहां जो झगड़ा है, वह इस्लाम और यहूदीवाद के बीच नहीं है। वह मामला धार्मिक नहीं है बल्कि क्षेत्रीय है। धर्म का नहीं है, जमीन का है। फलीस्तीनी लोग कट्टरपंथी इस्लाम को नहीं मानते और इस्राइल की स्थापना करनेवाले कुछ बड़े नेता कम्युनिस्ट थे। भारत के मुसलमान कश्मीरी मुसलमानों का भी समर्थन नहीं करते तो वे फलस्तीनियों के लिए क्यों परेशान होंगे ? इसी प्रकार अरब राष्ट्रों के अपने स्वार्थ हैं। यदि वे इस्राइल से अच्छे संबंध बनानेवाले राष्ट्रों से दुश्मनी करने लगें तो उनका जीना हराम हो जाएगा। अमेरिका तो इस्राइल का सबसे बड़ा संरक्षक है। फिर भी सउदी अरब, जोर्डन, कुवैत, क़तर, संयुक्त अरब अमारात आदि ने अमेरिका के साथ घनघोर घनिष्टता क्यों बढ़ा रखी है ? इसीलिए इस्राइल से सीधे संबंध बढ़ाने में भारत का डर निराधार था।
इस्राइल ने मोदी का स्वागत पोप की तरह क्यों किया ? जाहिर है कि इस्राइल के 41 प्रतिशत हथियारों की खरीद भारत करता है। भारत उसका सबसे बड़ा हथियारों का खरीददार है। अब दोनों के बीच 17 हजार करोड़ रु. के सौदे होने हैं। ट्रंप भी मोदी से तीन बार गले मिले और बेंजामिन नेतन्याहू से भी ! मोदी इन नेताओं से गले नहीं मिलते तो भी ट्रंप और नेतन्याहू मोदी के गले पड़ते। इस्राइल अपना फायदा देख ही रहा है लेकिन भारत का फायदा भी कम नहीं हैं। इस्राइल से भारत को ताजातरीन हथियार तो मिलेंगे ही, आतंकियों की कमर तोड़ने की रणनीति भी मिलेगी, खेती, सिंचाई, जल-रक्षा आदि के क्षेत्र की दुर्लभ तकनीकें भी भारत को सुलभ हो जाएंगी। इस्राइल से भारत की घनिष्टता का यह अर्थ नहीं कि फलस्तीनियों के प्रति भारतीय नीति में कोई बुनियादी परिवर्तन होगा। वास्तव में भारत-इस्राइल घनिष्टता फलस्तीनी समस्या को हल करने में सहायक भी हो सकती है।