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क्रिकेट में बेटियों का दमदार प्रदर्शन, बदलेगी खेलों की दुनिया

आर.के.सिन्हा

सारा देश भारतीय महिला क्रिकेट टीम की आईसीसी विश्व कप में शानदार प्रदर्शन से गर्व महसूस कर रहा है। अब विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी के साथ मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, झूलन गोस्वामी, स्मृति मंधाना वगैरह के नाम भी देश के कोने-कोने में लिया जाने लगेगा। इन खिलाड़ियों के नामों से भी देशवासी अब परिचित हो गए हैं।इस प्रदर्शन से भारत की महिला क्रिकेट का चेहरा भी हमेशा-हमेशा के लिए बदल जाएगा। अब देशभर के स्कूलों-कालेजों में पढ़ने वाली हजारों-लाखों लड़कियां क्रिकेट में करियर तलाशने लगेंगी। अभी से ही सारे भारत में महिला क्रिकेट के प्रति उत्सुकता बढ़ गई है। जरा याद कीजिए कि किस तरह से 1983 में कपिलदेव की कप्तानी वाली टीम ने वेस्ट इंडीज को मात दी थी, विश्व कप के फाइनल में। उस जीत के बाद देश में क्रिकेट ने धर्म का रूप ले लिया। क्रिकेट सारे देश को जोड़ने लगी। क्रिकेट देश का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल बन गया। विश्व कप में भारतीय बेटियों ने जिस तरह का जुझारूपन दिखाया, उससे साफ है कि इनके इरादे पक्के हैं। अब ये आगे भी विजय के मार्ग पर बढ़ती रहेंगी।

बुलंदी पर बेटियां

आप गौर करें कि खेलों की दुनिया में भारतीय बेटियां लगातार आगे आकर बुलंदियों को छू रही हैं। पिछले रियो ओलंपिक खेलों में पी.वी.सिंधु और साक्षी मलिक ने पदक जीते। रियो ओलंपिक खेलों का श्रीगणेश होने के बाद पहले दस दिनों तक भारतीय कैंप में सूखा सा ही रहा। लेकिन, इन दोनों ने पदक जीतकर देश को आख़िरकार कुछ सुकून दिया। क्रिकेट टीम की हरमनप्रीत कौर और साक्षी मलिक का संबंध पंजाब और हरियाणा से है। वैसे तो ये दोनों राज्य कन्या भ्रूण हत्याओं के लिए बदनाम हैं। इन दोनों की शानदार उपलब्धियों के बाद बेशक इन दोनों राज्यों में लड़कियों को लेकर समाज का रवैया बदलेगा।पर इन कुछेक उपलब्धियों से भी इतराने की जरूरत भी नहीं है। अभी खेलों की दुनिया में ठोस प्रयास करने की आवशयकता है। अभी देखने में आ रहा है कि खेलों की दुनिया में सभी राज्यों की बराबर भागदेरी नहीं हो पा रही है। उदाहरण के रूप में देश ने देखा था कि कई बड़े राज्यों से रियो खेलों में कोई भी खिलाड़ी नहीं गया। इस लिहाज से गुजरात और बिहार का नाम लिया जा सकता है। रियो ओलंपिक खेलों में गई भारतीय टोली में 66 पुरुष और 54 महिलाएं थे। हिन्दी भाषी प्रदेशों से हरियाणा 23, उत्तर प्रदेश 8, राजस्थान 3, मध्य प्रदेश 2, उत्तराखंड 2, जम्मू-कश्मीर 1, छतीसगढ़1,झारखंड 3 और दिल्ली से 1 खिलाड़ी गया। पंजाब को भी हिन्दी भाषी राज्य माना जाए तो वहां से 14 खिलाड़ी थे। दिल्ली में विश्व स्तरीय खेल सुविधाएं हैं। साल 2012 में कॉमनवेल्थ खेल हुए थे। तब तमाम नए स्टेडियम बने। कुछ को तो नए सिरे से तैयार किया गया। जरा देख लीजिए कभी इनमें जाकर कि इनमें कितने खिलाड़ी रोज खेलने आते हैं। दिल्ली से मात्र एक रियो खिलाड़ी है। यानी जिस शहर में सब कुछ है, वहां पर खेलने वाले नहीं हैं। मुंबई से भी रियो गई भारतीय टोली में हॉकी खिलाड़ी देवेन्द्र वाल्मिकी थे। ये उदाहरण बहुत कुछ कहते हैं। ओलंपिक या दूसरी अहम प्रतियोगिताओं में पदक तब आएंगे जब देश में खेलों की संस्कृति विकसित होगी। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने के साथ-साथ खेलने के लिए मैदान में लेकर जाएंगे। याद रख लीजिए कि स्टेडियम बनाने से खिलाड़ी नहीं बनते। स्टेडियम में पसीना बहाने से उसेन बोल्ट और माइकेल फेल्प निकलते हैं। मुझे लगभग 30 वर्ष पूर्व की एक घटना याद आती है। मैं अमेरिका में था। पेंसिलविनिया से मेरे छोटे भाई ने आग्रह किया कि मैं बिकेंड उसके साथ बिताऊँ। शुक्रवार की रात को मैं पहुँच गया। वह एयरपोर्ट से लेकर घर पहुंचा। बहू काम से लौटी तो उसने चावल-दल-शब्जी बनाकर परोस दिया। मैंने भाई से पूछा कि कोई उम्दा किस्म का भारतीय रेस्टोरेंट है क्या । उसने बताया कि पास के शहर में ४० मील दूर है। मैंने सबको सरप्राइज देने के लिए दूसरे दिन सुबह ही उस रेस्टोरेंट को फ़ोन कर एक लंच का टेबुल बुक करवा लिया । जब मैंने यह घोषणा की कि आज हम लंच के लिए बाहर जा रहे हैं तो सबके चेहरे पर तनाव दिखा। कोई कुछ बोल ही नहीं रहा था। मैंने पूछा कि “यदि जाने का मन नहीं है तो कैंसिल कर देता हूँ। कुछ डालर बर्बाद हो जायेंगे और क्या?” भाई ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं। पर कल चलेंगे। आज तो रकिवा (भतीजा) के स्कूल का सॉकर (फुटबॉल) प्रैक्टिस है । हम सभी को उसे चीयर करने जाना ही होगा। विदेशों में खेलों के प्रति गंभीरता को देखकर मैं दांग रह गया।

जिम्मेदारी अभिभावकों की

भले ही हमारी आबादी बहुत अधिक हो पर खेलों में भागेदारी करने वाली आबादी बहुत कम है। जब तक स्कूलों में खेलों का उम्दा इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित नहीं होगा तब तक बात नहीं बनेगी। पहले गावों के स्कूलों में बढ़िया पक्के क्लासरूम हों या न हों, खेल के मैदान अवश्य ही होते थे। पहले से हालात सुधरे हैं, पर अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। ये बात ठीक है कि हमारे देश के हजारों स्कूलों में तो एक मास्टर जी ही पढ़ा रहे है। वहां से खिलाड़ी कहां से निकलेंगे?

पर एक पक्ष और भी है। अगर आप अभिभावक हैं तो दिल पर हाथ रखकर बताइये कि आप अपने बच्चों को खेलों में करियर बनाने के लिए कितना प्रोत्साहित करते हैं? क्रिकेटर हरमनप्रीत कौर या सायना नेहवाल के अभिभावकों जैसे गिनती के ही उदाहरण मिलेंगे। यानी जिन अभिभावकों के पास सुविधाएं हैं, वो खेलों में आगे बढ़ने को लेकर कतई उत्साह नहीं दिखा रहे।

जब सिंधु रियो ओलंपिक महिला एकल के फाइनल में पहुंची तो सारा देश कहने लगा, ‘चलो, सिल्वर पक्का’। बस यही फर्क है जो हमें अमेरिका या चीन तो छोडिए, केन्या, स्पेन,क्यूबा,बेल्जिम जमैका जैसे छोटे-छोटे देशों से अलग करता है। उन देशों का जब कोई खिलाड़ी फाइनल में पराजित होता है तो वो कहता है, ‘मैं गोल्ड नहीं जीत पाया।’ और हमारे इधर का खिलाड़ी से लेकर सारा देश कहता है, ‘ चलो सिल्वर तो मिल गया। यही काफी है’। यही फर्क है मानसिकता में!

अभी मीडिया में महिला क्रिकेट टीम की जय-जयकार हो रही है, अभी और भी होगी। फोटो खिंचवाए जाएंगे, उन्हें तमाम तरह के पुरस्कार और नौकरियों के ऑफर देकर ये ऋणी देश अपना क़र्ज़ उतारेगा। नेता बयान देकर ताली बटोरेंगे। सब कुछ एक लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट की तरह होगा। देश को खेलों में अपने प्रदर्शन पर ईमानदारी से आत्ममंथन करना होगा। यहाँ सब कुछ एक रूटीन है, एक नाट्यमंच है।और हमारे यहां तो हार को भी सेलिब्रेट किया जाता है। मिल्खा सिंह को लीजिए। वो 1960 के रोम ओलंपिक के फाइनल में 400 मीटर की दौड़ में चौथे स्थान पर रहे। यानी कोई मेडल नहीं जीत सके। इतने साल गुजर जाने के बाद भी वो देश के नायक बने हुए हैं। उन पर फिल्में बनती भी हैं और चलती भी हैं। देश को इस सवाल का जवाब तो खोजना ही होगा कि 57 साल के बाद भी देश में मिल्खा सिंह का रिकार्ड क्यों नहीं टूट रहा? क्या इसके लिए खिलाड़ियों को और उनके अभिभावकों को दोषी नहीं माना जाए?

खेलों में खिलाड़ी या टीम की जीत में कोच और कोचिंग के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। अब देश को चाहिए पुलेला.गोपीचंद या महान फुटबॉल खिलाड़ी डिएगो मारडोना जैसे कोच। ये अपने खिलाड़ियों और टीम में जीत का जज्बा पैदा कर देते हैं। खैर, अभी तो क्रिकेट में भारतीय बेटियों के लाजवाब प्रदर्शन का जशन मनाइये।

(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)

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