28.5.12
” किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक टांड़ ( LoFT ) ही भारत और अरब देशों के समग्र देशी साहित्य के बराबर मूल्यवान है. …….मुझे लगता है कि पूर्व के लेखक साहित्य के जिस क्षेत्र में सर्वोच्च हैं, वह क्षेत्र काव्य का है. पर मुझे अभी तक ऐसा एक भी पूर्वी विद्वान नहीं मिला है जो यह कह सके कि महान यूरोपीय राष्ट्रों की कविता के साथ अरबी और संस्कृत काव्य की तुलना की जा सकती है. …………मेरा तो यह मानना है कि संस्कृत में लिखे गए समग्र साहित्य में संकलित ज्ञान का ब्रिटेन की प्राथमिक शालाओं में प्रयुक्त छोटे से लेखों से भी कम मूल्य है. ”
मैकाले
“……..यदि सरकार भारत की वर्त्तमान शिक्षा पद्यतियों को ज्यों का त्यों बनाए रखने के पक्ष में है तो मुझे समिति के अध्यक्ष पद से निवृत्त होने की अनुमति दें. मुझे लगता है कि भारतीय शिक्षा पद्यति भ्रामक है, इसलिए हमें अपनी ही मान्यताओं पर दृढ रहना चाहिए . ……….वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें सार्वजनिक शिक्षा मंडल जैसा प्रतिष्ठापूर्ण नाम धारण करने का कोई अधिकार नहीं है .”
मैकाले
परन्तु मैकाले की साम्राज्यवादी शोषक बुद्धि में तो कुछ और ही गणित चल रहा था, उसने भारत के प्रति आग उगलते हुए और तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति रोष प्रकट करते हुए अपना वक्तव्य दिया – “……..हास्यास्पद इतिहास (पुराणेतिहास ), मूर्खतापूर्ण आध्यात्म शास्त्र, विवेक बुद्धि के लिए अग्राह्य धर्मशास्त्र के बोझ से लदी हुयी, शिक्षण काल में अन्य लोगों पर निर्भर और इस शिक्षा को प्राप्त करने के पश्चात या तो भूखों मरने या जीवन भर दूसरों के सहारे जीने की विवशता वाले …और इस प्रकार विवश बना देने वाले निर्मूल्य विद्वानों की श्रेणियां तैयार करने वाले शिक्षण में धन का दुर्व्यय ही किया जा रहा है ………….यदि अपनी समग्र कार्य पद्यति बदली नहीं जाती तो मैं संस्था के लिए सर्वथा निरुपयोगी ही नहीं अपितु अवरोध बन जाऊंगा. अतः मैं इस संस्था के सभी उत्तरदायित्वों से मुक्त होना चाहता हूँ.”
शिक्षा नीति बदल दी गई. युवक वीर्यहीन हो रहे हैं और युवतियां UNO के UDHR के अनुच्छेद २५(२) के प्रोत्साहन एवं संरक्षण में वेश्याएँ बन रही हैं.
मैकाले
थोमस मुनरो (Thomas Munro) ने मद्रास रेजीडेंसी में साक्षरता जानने के लिए १८२३ में सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ शत% साक्षरता थी.
उस युग में समाज को शिक्षित करने का दायित्व ब्राह्मणों पर ही था. जो दलित और पिछड़ा समाज शिक्षक ब्राह्मणों का भिक्षा देकर भरण पोषण करता था और बदले में जो ब्राह्मण तथाकथित दलित समाज की संतति को सम्प्रभु बनाता था, आज वही दलित और पिछड़ा समाज ब्राह्मणों का शत्रु बन गया है. लेकिन जिस एलिजाबेथ ने उनके सम्प्रभु बनाने वाले गुरुकुलों को नष्ट कर, उनकी सकल सम्पदा लूट कर और प्रताड़ित कर उन्हें बलिपशु बना लिया है, उसके विरुद्ध वे कुछ नहीं बोल सकते! क्या ब्राह्मणों को नष्ट कर दलित व पिछड़ा समाज अपना अस्तित्व बचा पायेगा?
मैकाले के इस ईर्ष्यापूर्ण प्रलाप में प्रच्छन्न रूप से यूरोपीय समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं तथा पारिवारिक संघटन की स्पष्ट झलक मिल जाती है. उसने शिक्षा को ज्ञान का नहीं अपितु बड़े गर्व से धनोपार्जन का माध्यम स्वीकार किया है. भारत में परिवार के उत्तरदायित्व यूरोपीय परिवारों से अलग हैं. बल्कि वहाँ तो परिवार की अवधारणा ही भारत से बिलकुल भिन्न है. यहाँ विद्यार्थी को परिवार या समाज पर बोझ नहीं माना जाता बल्कि उत्तरदायित्व समझ कर प्रसन्नता पूर्वक उसका पालन किया जाता है. तभी तो प्राचीन भारत में विश्व के पाँच-पाँच विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों का संचालन बड़ी सफलतापूर्वक किया जाता रहा. इन सारी परम्पराओं को यूरोपीय परिवार या वहाँ के समाज के ढाँचे में रहकर समझ पाना संभव नहीं है. जहाँ तक इतिहास की बात है तो भारतीय पुराणेतिहास से ब्रिटेन के लोगों का क्या लेना-देना ? परन्तु हमारे लिए तो वह गौरवपूर्ण एवं प्रेरणास्पद होने से अत्यंत महत्वपूर्ण है. धर्म और आध्यात्म के प्रति मैकाले के नकारात्मक विचार उसके अपने हैं और नितांत व्यक्तिगत हैं जिन्हें उसने पूरे यूरोपीय समाज पर थोपने का असफल प्रयास किया. उस समय मैकाले भले ही अपनी धूर्तता में सफल रहा पर भारतीय ज्ञान-विज्ञान, कला, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म के प्रति यूरोप के आकर्षण को आज तक समाप्त नहीं कर सका.
इस सम्पूर्ण काल में गुरुकुल प्रणाली के समाप्त होने के पश्चात भारतीय समाज ने अपनी ओर से शिक्षा के स्वरूप पर कभी कोई चिंता प्रकट नहीं की. वह पूरी तरह शासन पर ही निर्भर रहा है. जब जैसा मिल गया तब वैसा स्वीकार कर लिया. भारतीयों की यह आत्मघाती प्रवृत्ति है जिसके दुष्परिणाम भी उसे ही भोगने पड़ रहे हैं. भारतीय समाज को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसे कैसी शिक्षा चाहिए …किसमें उसका कल्याण निहित है …शोषण मूलक शिक्षा या सर्व कल्याणकारी शिक्षा ? यदि उसे अपनी प्राचीन गौरवशाली परम्परा के साथ कल्याणकारी श्रेयस्कर जीवन की चाह है तो शासन का मुंह देखे बिना स्वयं उसे ही आगे आना होगा …एक सर्व कल्याणकारी शैक्षणिक क्रान्ति के लिए .
सुधीजन यदि इच्छुक हों तो वे धर्मपाल की लिखी पुस्तक – “१८ वीं शताब्दी के भारत में विज्ञान एवं तंत्र-ज्ञान ” का अवलोकन कर सकते हैं. इस लेख के लिए उसी पुस्तक से जानकारी ली गयी है.
‘मेरे राज्य में न तो कोई चोर है, न कोई कृपण है, न कोई मदिरा पीनेवाला है, न कोई अनाहिताग्नि (अग्निहोत्र न करनेवाला) है, न कोई अविद्वान् है और न कोई परस्त्रीगामी ही है, फिर कुलटा स्त्री (वैश्या) तो होगी ही कैसे?’
उपनिवेश के बाइबल, कुरान और भारतीय संविधान के समर्थक सभ्य थोमस मैथ्यू कौ हैं? –
अयोध्या प्रसाद त्रिपाठी (सू० स०) फोन: (+९१) ९८६८३२४०२५/९१५२५७९०४१
०१ मार्च. २०१७
http://www.aryavrt.com/muj17w09y-thomas-maitthyu
भवदीय:-
अयोध्या प्रसाद त्रिपाठी (सूचना सचिव), आर्यावर्त सरकार,
७७ खेड़ा खुर्द, दिल्लीः ११० ०८२.
चल दूरभाष: (+९१) ९८६८३२४०२५/९१५२५७९०४१
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