Shadow

जीएसटी : भ्रम, कारण औैर निवारण

अंतत: एक लंबी प्रक्रिया के बाद भारत में भी जीएसटी लागू हो ही गया। भारत में इसका आगमन बहुत ही आसान नहीं रहा। इसका आना एक लंबी बातचीत के बाद ही संभव हो सका है। इसकी राह में बाधाएं कम नहीं थी। राजनीतिक कारण जहां एक ओर थे तो दूसरी ओर सामाजिक अवधारणाएं भी इसके मार्ग मेंं थीं। जीएसटी की राह किस प्रकार सुगम हुई, इस पर नजर डालता एक आलेख

द्य संपादकीय डेस्क

रीब बाइस तेईस साल पहले भारत के इन डायरेक्ट टैक्स स्ट्रञ्चचर पर नरसिम्हा राव सरकार ने एक समिति का गठन किया था, अमरेश बागची कमेटी। बागची साहब ने अपनी रिपोर्ट में भारत के टैक्स स्ट्रञ्चचर को दुनिया का सबसे काम्प्लेक्स स्ट्रञ्चचर बताया था। इररेशनल, इलोजिकल, रिग्रेसिव उनके अन्य शब्द थे। इसका सबसे बड़ा कारण था कैस्केडिंग इफेक्ट ऑफ़ टैक्सेज।
तीन अलग अलग तरह का कैस्केडिंग इफेक्ट।
1. भारत में संघीय शासन प्रणाली है। केंद्र आँर राज्य है। दोनों ही व्यापार पर टैक्स लगाते हैं। मैन्युफेञ्चचरिंग पर एक्साइज केंद्र लगाता है , सर्विस टैक्स केंद्र वसूलता है , तो रिटेल / ट्रेड यानी खरीदी बिक्री पर टैक्स राज्य लगाते हैं। एक कंपनी जो माना कि स्टील से कुछ बर्तन बनाती है। वो अपने उत्पादन पर पहले एक्साइज ड्यूटी देती है। मान लीजिए 100 रूपये किसी बर्तन की कीमत है और उस पर एक्साइज ड्यूटी 12 प्रतिशत है। किसी वितरक ने कंपनी से बर्तन खऱीदा और उस पर सेल्स टैक्स चुकाया। जोकि कह लीजिये 5त्न है। ये 5 प्रतिशत टैक्स 100 रूपये कीमत पर नहीं बल्कि 112 रूपये पर लगता है। बर्तन की अपनी कीमत और उस पर एक्साइज ड्यूटी जोड़कर सेल्स टैक्स लगता है।
तो 12 रूपये की एक्साइज ड्यूटी पर लगे सेल्स टैक्स की वजह से बर्तन 60 पैसे ज्यादा महंगा हो गया।
2. यही कंपनी अपना कच्चा माल स्टील किसी और कंपनी से लेती होगी। मान लीजिये एक बर्तन के लिए करीब 50 रूपये का स्टील लगा। जिसे जब खऱीदा गया तो उस पर भी सेल्स टैक्स और एक्साइज ड्यूटी दोनों ही कंपनी ने दी। स्टील बेचने वाली कंपनी ने कहीं किसी खदान से लोहा खऱीदा होगा उस पर सेल्स टैक्स और एक्साइज ड्यूटी दी होगी। माल एक जगह से दूसरी जगह यानी शहर ले जाने में अगर चुंगी भी पड़ी होगी तो ये सभी टैक्स जुड़ते गए , जो लोहा 10 रूपये का था उस पर सेल्स टैक्स एक्साइज पड़कर 12 रुपया हुआ। स्टील वाली कंपनी ने जब बर्तन वाली कंपनी को 50 रूपये का बेचा तब पहले के टैक्स पर टैक्स लगा कर बेचा। लोहे पर टैक्स, स्टील पर टैक्स , फिर बर्तन पर टैक्स।
सोचने की बात है , जो बर्तन एक ग्राहक खरीदेगा, वो न जाने कितने टैक्स दे देकर गुजरा होगा। हो सकता है राज्य सरकार ने दया दिखाते हुए बर्तन पर टैक्स 2 प्रतिशत कर दिया हो , लेकिन पहले ही उस पर इतना टैक्स लग चुका था जिसकी दर 30 प्रतिशत या उससे ज्यादा हो सकती है।
3. एक पंजाब के व्यापारी ने केरल से शर्ट मंगाई 100 रूपये की, जिस पर सेंट्रल सेल्स टैक्स 10 प्रतिशत भरा। व्यापारी को 110 रूपये की शर्ट पड़ी। उस पर उसने 10 रूपये अपना मार्जिन लगाया और ग्राहक को 120 रूपये और 5 प्रतिशत सेल्स टैक्स में बेचा। ग्राहक को 126 रूपये की कमीज पड़ी।
अब अगर व्यापारी को इनपुट टैक्स क्रेडिट होता तो वो ग्राहक को शर्ट 125 रूपये में देता।
आज जीएसटरी की दरों को लेकर इतना उबाल है। लोग 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत जितनी ऊँची दरों पर एतराज कर रहे हैं लेकिन नहीं जानते कि कहने को पहले सेल्स टैक्स 2 प्रतिशत भी हो, तो भी हम करीब 18-28प्रतिशत टैक्स दे ही चुके होते हैं।
सरकार को जब इस कैस्केडिंग के जरिये इतनी कमाई हो रही थी फिर उसे सुधार की जरूरत क्यों पड़ी ?
क्योंकि अंत में नुकसान भी देश को ही हो रहा था। सबसे बड़ा नुकसान निर्यात में था। कोई भी कंपनी जो अपने माल को विदेशो को निर्यात करना चाहती थी उसे कच्चा माल खरीदने में , अर्ध निर्मित कच्चे माल में टैक्स पर टैक्स देना पड़ता था। जिसके नतीजे में विदेशी बाजार में उसके माल की कीमत उसके प्रतिद्वंदियों से ज्यादा होती थी। निर्यात में लगी कंपनियों को टैक्स के कैस्केडिंग इफेक्ट की वजह से प्राइसिंग एडवांटेज नहीं मिलता। वहीं दूसरी तरफ घरेलू खपत में लगी कम्पनियाँ आयातित वस्तुओ के सामने टिेेक नहीं पाती।
दोनों ही दशाओ में लागत का जब एक बड़ा हिस्सा टैक्स में जा रहा हो तो उत्पाद की फ़ाइनल कीमत पर कंट्रोल नहीं रहता।
और फिर केंद्र सरकार को, प्रदेश सरकारों को टैक्स में विभिन्न तरह की छूट देनी पड़ती है। ताकि एक्सपोर्ट के लिए कम्पनियाँ प्रतिस्पर्धा में बनी रहें। या आयात के सामने घरेलू कम्पनियाँ टिक सकें।
और जब टैक्स एक्जम्प्शन शुरू होते हैं तो प्रदेशो में आपसी प्रतियोगिता शुरू होती है। कई राज्य अपने यहाँ लगने वाले उद्योगों को सस्ती जमीन के अलावा सेल्स टैक्स में छूट का भी वादा करते हैं। या अपने पडोसी राज्य की तुलना में बहुत सी वस्तुओ का टैक्स रेट कम रखते हैं। उदाहरण है कारो के दाम। लोग बगल के प्रदेश से कार या बाइक खरीदते हैं क्योंकि उधर सस्ती मिल जाती है। पेट्रोल डीजल के दाम हर प्रदेश में अलग मिलेंगे। इसी तरह कंपनियों को जीएसटी बचाने के लिए तकरीबन हर प्रदेश में वेयर हॉउस बनाने पड़ते हैं। जहाँ वो अपना माल स्टॉक करके रखते हैं। अंत में सञ्जाी को लालच तो रहता ही है कि या तो टैक्स वसूल करके दबा लो सरकार को मत दो। या बिना बिल के सामान बेचो टैक्स का झंझट ही नहीं।
2000 के दशक में इन सबसे छुटकारा पाने के लिए वैट यानि वैल्यू एडेड टैक्स की शुरुआत हुई। लेकिन ये वैट तभी प्रभावी था जब पूरा व्यापार एक ही प्रदेश में हो। तब टैक्स इनपुट की सुविधा हासिल थी।
लेकिन अगर माल दूसरे प्रदेश में बेचा जाये तब वैट की जगह ष्टस्ञ्ज लगता है और इनपुट टैक्स की सुविधा समाप्त।
ये वजहें हैं की सरकार एक देश एक टैक्स की ओर जाना चाहती है यानि जीएसटी की ओर।
विवाद कहां और क्या है

पिछली पोस्ट में मैंने लिखा कि कैसे टैक्स के कैस्केडिंग इफेक्ट की वजह से वस्तुएं महँगी थी, भले दिखावे को कोई राज्य उन पर कमसेकम सेल्स टैक्स लगाए।
ये कैस्केडिंग इम्पोर्ट एक्सपोर्ट देसी खपत सभी को प्रभावित कर रही थी। इसके बुरे नतीजे सभी को दिख रहे थे।
जब लगभग समूचा विश्व जीएसटी की तरफ बढ़ चुका था , हम करीब 60 सालों तक पुरानी टैक्स व्यवस्था को ही ढोते रहे। 2000 के दशक में हमने सेल्स टैक्स की जगह वैट प्रणाली इंट्रोड्यूस की। लेकिन वो पूरे देश के लिए नहीं थी। सिर्फ राज्य के लिए थी। अंतर्राजीय सेल्स में वैट की जगह यीएसटी बरकऱार था। एक्साइज ड्यूटी , कस्टम ड्यूटी , लक्जरी टैक्स सर्विस टैक्स अपनी जगह लग रहे थे।
फिर वैट की भी एक दर नहीं थी, चार दरें थीं। स्टील का बर्तन अगर उत्तर प्रदेश में 5 प्रतिशत वैट पर होता तो वही बर्तन कर्णाटक में 14 प्रतिशत वैट पर हो सकता था। राज्यों को अधिकार था की वो वस्तुओ पर अपने मुताबिक वैट की दर लगा सकें।
यानि वैट सिर्फ एक इंटर मीडियरी कदम था। वह समाधान नहीं था। साठ सालों के बाद भी देश एक टैक्स की मंजिल नहीं पा सका था।
एक देश एक टैक्स यानि कि टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन सरल होता , कंपनियों की टैक्स देने की कम्प्लायंस बढ़ती , ज्यादा से ज्यादा कम्पनियाँ , व्यापारी टैक्स ब्रैकेट में आते , प्रोडक्शन कास्ट कम होती , सभी की जिंदगी आसान होती।
जीएसटी के लिए 2006 में कांग्रेस सरकार ने गंभीर कोशिशें शुरू की। 2010 से त्रस्ञ्ज लागू करने का लक्ष्य रखा गया। और जैसे देश में तूफान आ गया। बीजेपी , राज्यों , व्यापारियों , कंपनियों ने चौतरफा आलोचना शुरू की। जीएसटी को सपोर्ट से ज्यादा विरोध का सामना करना पड़ रहा था।
कैसा विरोधाभास है, जो बीजेपी कल विरोध कर रही थी, आज वही इसे लागू कर रही है। तमाम राज्य जैसे गुजरात के मु0 मंत्री मोदी जी (उस समय) , महाराष्ट्र , केरल उस समय जीएसटी के प्रबल विरोध में थे।
तमाम ज्ञात फायदों के बाद भी जीएसटी का इतना विरोध क्यों था , आखिर ये कन्फ्लिक्ट क्यों था।
भारत का ढांचा संघीय है। संविधान केंद्र को शासन के अधिकार देता है तो राज्यों को भी देता है। संविधान के मुताबिक डायरेक्ट टैक्स केंद्र लगाता है। इनडायरेक्ट टैक्स में सर्विस टैक्स , एक्साइज ड्यूटी केंद्र लगाता है , तो थोक और खुदरा बिक्री पर लगने वाला वैट / सीएसटी राज्यों के पास जाता है।
किसी भी राज्य के लिए उसे प्राप्त होने वाले रेवेन्यू का लगभग 75-80प्रतिशत हिस्सा इनडायरेक्ट टैक्सेज से आता है। जिससे कोई भी राज्य सरकार जनकल्याणकारी योजनाएं चलाती है। संविधान हर राज्य को अधिकार देता है कि वो किसी भी वस्तु पर टैक्स दर निर्धारित करे , छूट दे। कांग्रेस जो जीएसटी का प्रारूप ला रही थी उसमे राज्यों के अधिकार सीमित थे। सिंगल जीएसटी था , जो केंद्र को मिलता और केंद्र उसमे राज्यों को उनका हिस्सा देता। अभी बीजेपी जो जीएसटी लायी है वो डुअल जीएसटीहै, एसजीएसटी और सीजीएसटी. रेट भी एक की जगह 4 हैं। मुख्य बात ये थी कि कांग्रेसी जीएसटी में वस्तुओ पर टैक्स दर निर्धारित करने का राज्य का अधिकार खत्म हो जाता।
किसी भी राज्य जिसकी आय का मुख्य स्रोत्र ही ये टैक्स हो उनके लिए इसे छोडऩा बहुत मुश्किल है। तमिलनाडु में कभी बच्चो को स्कूल लाने के लिए मिडडे मील योजना शुरू की। सभी ने आलोचना की। सवाल उठे इसका पैसा कैसे आएगा। केंद्र सपोर्ट नहीं कर रहा था।
तत्कालीन सरकार ने कई वस्तुओ पर टैक्स दर बढ़ाई और उससे हुई अतिरिक्त आमदनी से मिड डे मील योजना को सपोर्ट किया। आज मिड डे मील योजना केंद्र और हर राज्य सरकार चला रही है। राज्य के अनूठे प्रयोग का ये एक उदाहरण है।
इसी तरह 80 के दशक में ही महाराष्ट्र ने सूखे के बाद किसानो को रोजगार देने के लिए रोजगार गारंटी एक्ट बनाया। जिसका पैसा प्रोफेशनल टैक्स एवं मौजूदा टैक्स दरों को बढाकर जुटाया। यही अधिनियम आगे चलकर मनरेगा का आधार बना।
ऐसी स्थिति में कोई भी राज्य टैक्स दर निर्धारित करने का अधिकार क्यों छोड़ेगा। अपने हाथ पैर क्यों काटेगा। यही कारण है कि जीएसटी में कई स्लैब बने , टैक्स दरों के बैंड बन रहे हैं। शराब और पेट्रोलियम उत्पाद जीएसटी से बाहर रखे गए हैं। राज्य इन पर पहले की तरह कंट्रोल रखेंगे। क्योंकि लगभग हर राज्य के लिए ये दोनों तेल और शराब आय के मुख्य सोर्स हैं।
कैस्केडिंग इफेक्ट जिसपर पहली पोस्ट पूर्णतया आधारित थी , उसका असल फायदा तो राज्यों को ही था। टैक्स पर टैक्स लगता जाता तो उसका अंतिम फायदा तो राज्य को ही था। क्योंकि ये इफेक्ट सेल्स टैक्स या सीएसटी में ही था।
और ये पैसा जैसे राज्य सरकारों के मुंह में खून लगा रहा था। राज्य इस अतिरिक्त आमदनी को गंवाने को तैयार नहीं थे। जीएसटी लाइए लेकिन हर राज्य की शर्त थी कि उसे होने वाली आमदनी में कमी न होने पाए। जितना पैसा उसे सेल्स टैक्स से मिल रहा है , उससे एक पैसा कम किसी राज्य को मंजूर नहीं था।
कांग्रेस ने राज्यों को मनाने की बहुत कोशिशें की। पांच साल तक किसी भी घाटे को दूर करने की पेशकश हुई। जिसे बीजेपी सरकार ने भी अपनी नीति बनाया।
इस नीति को न्यूट्रल रेवेन्यू फार्मूला भी कहा जाता है।
अब इस मांग को स्वीकार करने का अर्थ था जीएसटी टैक्स को ऊँची दर पर लगाना। कैस्केडिंग की वजह से इफेक्टिव टैक्स रेट 30 प्रतिशत तक जाता था। अगर जीएसटी 12 प्रतिशत पर आता तो निश्चित था हर राज्य के राजस्व में भारी कमी आती और केंद्र के लिए उसे पूरा करना असंभव होता जाता।
इस दर को निर्धारित करने का कोई सटीक फार्मूला भी नहीं था। अनुमान थ , तमाम थिंक टैंक, संसथान इस काम पर लगे थे। जिन्होंने अंत में अपनी एक रिपोर्ट में जीएसटी की टैक्स दर 26 प्रतिशत करने का सुझाव दिया।
26प्रतिशत का अर्थ था कि जनता, कंपनियों का विद्रोह, इन्फ्लेशन आसमान पर। अर्थव्यवस्था जमीन पर।
जीएसटी कई देशो में बहुत कम दरों पर है। जैसे न्यूजीलैंड में 10 प्रतिशत जीएसटी लगता था , अब 15 प्रतिशत हुआ है। इसका कारण है कि जितनी ज्यादा वस्तुएं जीएसटी के दायरे में होंगी, जीएसटी की दर उतनी कम रखी जा सकेगी। लेकिन भारत में ऐसा होना मुमकिन नहीं। खाने पीने दूध सब्जी न जानेजाने कितनी चीजों पर टैक्स न लगा है न लग सकता है। फिर सरकार क्या करे? टैक्स रेट कैसे निर्धारित हो। ज्यादा करे तो परेशानी , कम रखे और ज्यादा से ज्यादा चीजों पर टैक्स लगाए तो परेशानी।
इसीलिए अभी जिस तरह का जीएसटी आया है वो एकदम सरल होने की जगह जटिल हो गया है। चार चार दरें , उस पर से सेस, पेट्रोल डीजल सिन यानी पापी वस्तुएं , सिगरेट, शराब, कोका कोला जीएसटी से बाहर इसीलिए हैं।
यही वादविवाद इतने साल चला है। इसीलिए सरकार इसे अपनी बड़ी विजय मानती है। यही कारण है की जब मोदी सरकार आयी तो सबसे पहले लिए फैसलों में एक ये भी था कि केंद्र को मिलने वाले टैक्सों में राज्यों का हिस्सा 33 प्रतिशत से बढाकर 42 प्रतिशत कर दिया गया था। योजना आयोग को भंग करने के पीछे बड़ी वजह राज्यों के ऊपर से केंद्रीय अंकुश खत्म करना था। यही कारण है कि कांग्रेस जीएसटी कभी नहीं ला पाती। उसके बस का ही नहीं था।
निर्णय लेने वाली सरकार

अभी मैने जीएसटी को लागू किये जाने के पीछे की वजहों के बारे में लिखा। और इन वजहों के बावजूद राज्यों कंपनियों के जीएसटी के पुरजोर विरोध के बारे में लिखा। इस विरोध को दूर करने के लिए सरकार को साधारण जीएसटी को कैसे थोड़ा जटिल करना पड़ा , इसका जिक्र किया।
आखिर केंद्र सरकार जीएसटी को लागू करने के लिए क्यों अड़ी थी। पहले कांग्रेस की सरकार भी थी जो दिखावे को मीटिंग पर मीटिंग कर रही थी लेकिन कोई समाधान दूर दूर तक नहीं था। फिर मोदी सरकार ने इतने राज्यों को कैसे मनाया इतने समझौते क्यों किये? इसके पहले मोदी सरकार ने डिमॉनेटिजेशन किया था जिसका घोषित उद्देश्य काले धन का खात्मा था, करप्शन पर लगाम था।
लेकिन एक सेकेंडरी कहिये या मुख्य उद्देश्य कहिये डिमॉनेटिजेशन का उद्देश्य सरकार के लिए इनकम टैक्स बेस बढ़ाना था। कैशलेस इकॉनमी इसीलिए लायी गयी क्योंकि इससे कम्पनी को अपनी इनकम छिपाना मुश्किल होगा। सब कुछ सामने होगा, कंपनी का भी और किसी व्यक्ति का भी। सबका रिकार्ड होगा।
यही उद्देश्य जीएसटी के पीछे भी है। अपने टैक्स बेस को वाइडर करने का। तमाम व्यापार जो कच्चे बिल पर चलते हैं उन्हें टैक्स के दायरे में लाने का। जीएसटी दरअसल एक चेन है। आईटीसी, इनपुट टैक्स क्रेडिट चेन। जीएसटी एक्ट के मुताबिक किसी कंपनी या व्यापारी को टैक्स इनपुट का लाभ तभी मिलेगा जब उसके सप्लायर ने उसे प्रॉपर इनवॉइस दी हो , जिसमे सप्लायर ने जीएसटी ंपनी पर लगाया हो और बाकायदा सरकार को जमा भी किया हो।
क्यों सरकार जीएसटी को ऑनलाइन कर रही है , सॉफ्टवेयर आधारित बना रही है , शायद अब आप समझें। एक डाटाबेस में सब रिकार्ड रहेंगे , कोई कंपनी टैक्स इनपुट क्लेम करेगी , तो पता चल जायेगा की उसके पहले की कंपनी ने जीएसटी लेकर उसे चुकाया भी है या नहीं। और यही पूरी चेन के लिए होगा। चेन में किसी ने भी जीएसटी बचाने की कोशिश की तो उसे बाकी सप्लायर ऐसा नहीं करने देंगे। क्योंकि उस कंडीशन में अगर एक कंपनी जीएसटी नहीं देगी , कच्चा बिल देगी , तो दूसरी कंपनी आगे जीएसटी का इनपुट क्लेम नहीं कर पायेगी , और उसकी प्रोडक्शन लागत बढ़ जाएगी। उसका माल बाकी प्रतिद्वंदी से महंगा हो जायेगा।
इसे सरकार सेल्फ पोलिसिंग कहती है। सेन्ट्रल और स्टेट टैक्स अथॉरिटी के अलावा सेल्फ पोलिसिंग टैक्स बेस को बढ़ाने में मदद करेगी। ऐसा नहीं है कि सरकार को केवल अपनी चिंता है , सरकार ने जीएसटी एक्ट में एक प्रावधान और किया है , एंटी प्रोफिटियरिंग का। 1 जुलाई से ट्रांजिशन फेस हुआ है। कंपनियों को इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ मिलेगा और साथ में कुछ कंपनियों के लिए उनके माल की टैक्स कीमत में बदलाव भी होंगे। करों की दर बदलेगी। 5 प्रतिशत टैक्स वाली वस्तु 12 प्रतिशत या 18 प्रतिशत ब्रैकेट में आएगी। कम्पनियाँ अपनी वस्तुओ के दाम बढ़ाने की कोशिश करेंगी। इनपुट टैक्स बेनिफिट का फायदा कस्टमर को नहीं देंगी। इसी तरह घटे टैक्स दर को भी व्यापारी लोगों तक पहुँचाना नहीं चाहेंगे। खास उदाहरण उन कंपनियों का है जिन्हे सीएसटी में सप्लाई मिलती रही है और आगे वो माल को बेचते हैं।
जैसे एक दूसरे प्रदेश से 100 रूपये कीमत का कच्चा माल खऱीदा उसपर 10 प्रतिशत सीएसटी दिया। उस कच्चे माल से कोई वस्तु बनाई और उसे 200 रूपये में आगे बेचा। कस्टमर से 200 के ऊपर 12 प्रतिशत वैट वसूल किया। कस्टमर को 224 रूपये कीमत पड़ी।
जीएसटी के बाद उसी कच्चे माल को उसने 112 रूपये में खऱीदा अगर 12 प्रतिशत जीएसटी माना जाये। और आगे 224 रूपये में बेचा। कस्टमर पर एहसान जताया की जीएसटी में इनपुट टैक्स दर बढ़ गयी है। लेकिन उसने अपनी कीमत वही रखी है।
उसे 2 रूपये एक्स्ट्रा जीएसटी के जरूर कच्चा माल खरीदते समय चुकाने पड़े। पहले सीएसटी10 प्रतिशत था , लेकिन जब उसने अपना माल बेचा तो उसे जीएसटी के रूप में 24 रूपये मिले। जिसमे से उसे सरकार को सिर्फ 12 रूपये देने हैं। 12 रूपये टैक्स इनपुट के उसके पास आ चुके हैं। 12 रूपये उसके पास हैं, 2 रूपये घटाकर भी उसे 10 रूपये का फायदा है। ये पैसा वो अपने पास रख सकता है या कस्टमर कम करके दे सकता है। उसके माल की कीमत 224 नहीं 215 रूपये होनी चाहिए।
अगर कोई कंपनी, व्यापारी ऐसा नहीं करता है तो जीएसटी एक्ट के तहत उस पर जुरमाना लगेगा। और उसे अपने तमाम कस्टमरों को अवैध ढंग से कमाया पैसा वापस करना होगा। एंटी प्रोफिटियरिंग अथॉरिटी स्वंय या किसी की भी कंप्लेंट पर जांच करेगी और सजा सुनाएगी।
हालांकि इस प्रावधान का विरोध हमारे प्रिय कांग्रेसी एवं वामपंथी ये कहकर कर रहे हैं की इससे इन्स्पेक्टर राज की वापसी हो जाएगी। कंपनियों को टैक्स ऑथोरिटीज से परेशानियां बढ़ेंगी। लेकिन सरकार ने एक चीज बहुत साफ़ की है। सब कुछ ऑनलाइन। टैक्स अथॉरिटी और टैक्स पेयर के बीच कम से कम इंटरेक्शन। ठ्

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *