अमित त्यागी
ति आधारित भारत की राजनैतिक व्यवस्था में एक समय यह बड़ा मुश्किल माना जाता था कि जाति-व्यवस्था टूट भी सकती है। मतदाता अपनी जाति से बाहर आकर राष्ट्रनिर्माण के लिये भी मत दे सकता है। जातियों में बंटा हिन्दू समाज कभी एकजुट भी हो सकता है। वोट बैंक माना जाने वाला मुस्लिम वर्ग तुष्टीकरण की राजनीति से बाहर भी आ सकता है। पर ऐसा संभव हुआ। पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में हुआ। इसके बाद कई अन्य प्रदेशों में होते हुये 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावों में संभव हुआ। जाति आधारित वोट बैंक टूट गया। जाति की राजनीति करने वाले नेताओं की मनमानी खत्म हुयी। लोगों ने प्रत्याशियों को नहीं, कमल और मोदी को वोट दिया। क्षेत्रीय दलों की निर्भरता सिमट कर रह गयी। केंद्र मजबूत होता चला गया। और यह तो गणित का नियम भी है कि अगर केंद्र बिन्दु मजबूत होता है तो वृत्त(विकास का पहिया) का निर्माण तेज़ होता है।
वर्तमान में सबका साथ सबका विकास वाले नारे की तजऱ् पर संवैधानिक पदों पर सभी जातियों का समावेश दिखाई दे रहा है। राष्ट्रपति के पद पर एक दलित रामनाथ कोविन्द विराजमान हैं तो प्रधानमंत्री के पद पर पिछड़े वर्ग के मोदी। लोकसभा अध्यक्ष के पद पर एक महिला सुमित्रा महाजन काबिज हैं तो उपराष्ट्रपति के पद को एक ब्राह्मण वैकय्या नायडू सुशोभित करने जा रहे हैं। अलग अलग जातियों से होने के बावजूद इन सबमे एक समानता है। यह सब एक परिवार से आते हैं। संघ परिवार। वह परिवार, जिस पर तरह तरह के आरोप लगाए जाते रहे हैं। खुद पर लगे आरोपों पर संघ ज़्यादातर खामोश रहा है। बीच बीच में कभी कभी मुखरता भी हुयी किन्तु कुल मिलाकर इन आरोपों के द्वारा संघ मजबूत होता चला गया। और आज स्थिति यह है कि उसने सभी बड़े संवैधानिक पदों पर कब्जा कर लिया है।
इन पदों के कुछ राजनैतिक महत्व हैं। भारत के राष्ट्रपति जहां उत्तर प्रदेश से आते हैं वहीं भावी उपराष्ट्रपति आंध्र प्रदेश से। एक ओर उत्तर प्रदेश को राजनीति की पाठशाला माना जाता है वहीं दूसरी तरफ आंध्र प्रदेश में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नायडू भाजपा को संभाले रहे। किसी दक्षिण भारतीय का भाजपा के समर्थन से उपराष्ट्रपति बनना देश की राजनीति का एक बड़ा घटनाक्रम होने जा रहा है। आंध्र प्रदेश से सटे राज्य तमिलनाडु की राजनीति पर भी इसका प्रभाव पडऩे जा रहा है। जयललिता की मौत के बाद तमिलनाडु की सत्तारूढ एआईडीएमके में तीन धड़े बन चुके हैं। दूसरे बड़े दल डीएमके की हालत भी कमजोर है। भाजपा वहाँ लगातार मजबूत होती जा रही है। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम की अगुवाई वाला ऑलइंडिया अन्नाद्रविड़ मुनेत्रकडग़म (एआईएडीएमके) का गुट उपराष्ट्रपति चुनाव में एम. वेंकैया नायडू के समर्थन का ऐलान कर चुका है। राष्ट्रपति चुनाव में भी एआईडीएमके के तीनों गुटों ने रामनाथ कोविन्द का समर्थन किया था।
पुराने गढ़ों में कमजोर होती कांग्रेस :
दक्षिण भारत को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। अब जिस तरह से कांग्रेस दक्षिण भारत में भी खुद को बचाने में नाकामयाब हो रही है उसके अनुसार भाजपा एक स्पष्ट विकल्प के तौर पर उभरने लगी है। वाम दलों के गढ़ केरल और बंगाल उनके हाथों से लगभग जा चुके हैं। बंगाल में ममता सरकार की नाकामियाँ सर चढ़कर बोल रही हैं। एक ओर संघ का कैडर लगातार मजबूत होता जा रहा है तो दूसरी ओर दिग्गज कांग्रेसी अपने दल से बाहर होते जा रहे हैं। इस साल के अंत में गुजरात चुनाव होने हैं। गुजरात मोदी का प्रदेश है। वहाँ, भाजपा की सरकार को दो दशक होने जा रहे हैं। चुनाव के कुछ माह पहले ही गुजरात में कांग्रेस के एक बड़े कद्दावर नेता शंकर सिंह बघेला ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है। चुनाव वाले किसी प्रदेश में कांग्रेस के साथ ऐसा पहली बार हुआ हो ऐसा भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से जब भी किसी प्रदेश में चुनाव होता है, दिग्गज कांग्रेसी अपनी पार्टी छोड़ देते हैं। अब चाहे उत्तराखंड में कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा एवं यशपाल आर्य हों या उत्तर प्रदेश में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्षा रहीं रीता जोशी। चुनाव के ठीक पहले इन लोगों ने कांग्रेस को लात मार दी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस की करारी हार हुयी। उत्तर प्रदेश में तो बसपा के कई बड़े नेता भी चुनाव पूर्व भाजपा में विलीन हो गये थे। असम में हेमंत बिसवा शर्मा ने भी चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस पार्टी से किनारा कर लिया था।
कांग्रेस छोडने के बाद सभी नेताओं के बयानों की अगर तुलना करें तो उनमे एक समानता पायी जाती है। यह सभी नेता सोनिया गांधी की तो तारीफ करते हैं किन्तु राहुल गांधी की कार्यशैली पर उंगली उठाते रहते हैं। राहुल गांधी से समय न मिलना कांग्रेसी नेताओं को ज़्यादा आहत करता है। एसएम कृष्णा और जयंती नटराजन के साथ ही 2014 लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद से कांग्रेस के बड़े नेताओं का पार्टी छोडने का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ है वह दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। कांग्रेस की चिंता सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है कि पार्टी के नेता साथ छोड़ रहे हैं बल्कि यह भी है कि जनता में कांग्रेसियों का आकर्षण नहीं बचा है। राहुल गांधी पर जिस तरह के बचकाने चुट्कुले प्रचलित हैं उसके लिए खुद राहुल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वह अभी तक कोई चिंतन शैली विकसित नहीं कर पाये हैं। वैकल्पिक राजनीति के एजेंडे पर उनकी पकड़ काफी कमजोर हैं। वह समय समय पर दिशाहीन बयान देकर भाजपा को और अधिक शक्तिशाली बना देते हैं।
विपक्षी दल जब जब महागठबंधन की बात उठाते हैं तो एक राष्ट्रिय दल होने के कारण कांग्रेस उसका मुख्य केंद्र बिन्दु होती है किन्तु कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व गठबंधन की राह में रोड़ा बन जाता है। महागठबंधन के लिए प्रयासरत लालू यादव और कांग्रेस की करीबी साफ दिखाई देती है किन्तु वर्तमान में लालू यादव भ्रष्टाचार के मामलों में सपरिवार फंसे हुये हैं। कांग्रेस अब भी उनके साथ खड़ी है। कांग्रेस इस समय एक ऐसे दोराहे पर है जहां वह अगर लालू का साथ नहीं देती है तो महागठबंधन के द्वारा उसकी दुबारा वापसी की उम्मीदें खत्म होती हैं। अगर साथ देती है तो जनता में उसके भ्रष्टाचार में सहयोगी होने की छवि जाती है। अब यही है भविष्य के भारत की रूपरेखा। जहां एक कमजोर विपक्ष ने भाजपा को शक्तिशाली से महाशक्तिशाली बना दिया है। अब अगर सरकार की नाकामियाँ भी ज़ाहिर होती हैं तो जनता के पास राजनैतिक विकल्प शून्य है।
अल्पसंख्यक हो रहे हैं जागरूक :
भाजपा पर अल्पसंख्यक विरोधी दल होने का आरोप लगातार लगता रहा है। अल्पसंख्यक और दलित गठजोड़ की राजनीति करने वाले दल इस छवि को ज़्यादा ही प्रचारित करते हैं। किन्तु सरकार मे आने के बाद भाजपा सरकार के कोई भी ऐसे काम नहीं दिखाई दिये हैं जो अल्पसंख्यक विरोधी हों। किसी भी देश का आर्थिक व नैतिक विकास तभी संभव है, जब उसका प्रत्येक वर्ग हर क्षेत्र में विकास करे। देश का विकास तभी संभव है जब हर वर्ग एवं जाति के लोग सुरक्षित महसूस करें। जाति और धर्म आधारित व्यवस्था कमजोर हो जाये। उसका सबसे बेहतर माध्यम होता है शिक्षा। जब भी सम्पूर्ण विकास की परिकल्पना की बात की जाती है तब हम देश के उस कमजोर वर्ग को नजऱ अंदाज़ नहीं कर सकते हैं जो मजदूर वर्ग है। यह बड़ा वर्ग ज़्यादातर मुस्लिम या दलित समुदाय से सम्बद्ध है। यह सामंतवादी सोच एवं पूंजीवादी प्रवृत्ति के लोगों से प्रताडि़त है। इनकी प्रताडऩा के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है किन्तु सरकार का फजऱ् है कि वह इनके हितों को संरक्षित करे। अब जब संवैधानिक पदों पर सबका प्रतिनधित्व है तो अब शोषित एवं वंचित वर्ग के लोगों को अपना हक़ तेज़ी के साथ मिलना चाहिए।
राष्ट्रपति उच्च शिक्षा का संवैधानिक प्रतिनिधित्व करता है। उच्च शिक्षा के द्वारा समाज का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रचिंतन करता है। नए राष्ट्रपति से अब अपेक्षा है कि वह दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए शैक्षिक सुधार का एक बड़ा कार्य अवश्य करेंगे। उनकी यह पहल मुस्लिमों को सिर्फ वोट बैंक मानने वाले दलों की नीच सोच पर करारी चोट होगी। संविधान के अनु-29, 30 ने अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिये हैं। इन अनुच्छेदों का फायदा उठाते हुये देश के कोने-कोने में अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों के नाम पर अनगिनत प्राइमरी, माध्यमिक एवं स्नातकोत्तर संस्थान अस्तित्व में आये। इनमे से कुछ संवैधानिक मकसद में कायम रहे किन्तु अधिकतर ने व्यक्तिगत हित ज़्यादा साधे। सिर्फ सरकारी लाभ एवं अल्पसंख्यक दर्जे की स्वायत्ता बनाए रखने के लिए काम किया। संस्थान आर्थिक लाभ हासिल करने के खुले अखाड़े बन गये। इसके द्वारा कुछ लोगों की कमाई तो हुयी किन्तु अल्पसंख्यकों की शिक्षा का मूल उद्देश्य पिछड़ गया। आज भी आम मुसलमान तक शिक्षा पहुँचाने का मूलभूत अधिकार पिछड रहा है। इसको समझने के लिए किसी रॉकेट साइन्स का जानकार होने की आवश्यकता नहीं है। बदहाल मुस्लिम बस्तियाँ खुद ब खुद बदहाली की दास्तान बयान करती हैं ।
ऐसा नहीं है कि नये राष्ट्रपति कोई बड़ा बदलाव रातों रात कर देंगे। पुराने राष्ट्रपतियों ने कुछ नहीं किया है, ऐसा भी नहीं है। चूंकि अब सब बड़े संवैधानिक पदों पर संघ से जुड़े लोग हैं इसलिए विचारधारा के प्रश्न पर कोई टकराव भी नहीं होने जा रहा है। कौशल विकास की योजना के द्वारा जो एक बड़ा वर्ग लाभान्वित हुआ है उसे और तेज़ी के साथ जनता तक पहुचाने की अपेक्षा बन गयी है। रोजगार एक बड़ी समस्या है। जितने रोजगार का वादा सरकार ने किया था उतने पैदा नहीं हो रहे हैं। रोजगार के अभाव में अपराध बढ़ते हैं। गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी बढ्ने लगती है। प्रधानमंत्री को स्वयं खुद कथित गौ रक्षकों के विरोध में बयान देने पड़े हैं। यह सब विषय इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यही गुंडे अल्पसंख्यकों के दिल में डर पैदा करते हैं और बदनाम होती हैं सरकार। अल्पसंख्यकों की शिक्षा के साथ साथ इन विषयों पर नए पदाधिकारियों का दृष्टिकोण देश का भविष्य सुद्रढ़ करेगा।
प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल रहा एतेहासिक :
क्क्प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में से एक नेता रहे थे। कांग्रेस पर उनकी पकड़ और राजनीति का ज्ञान सदियों तक कांग्रेस की नींव बना रहा। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह से प्रणब मुखर्जी ने सरकार का सहयोग किया वह एतेहासिक था। ऐसे अनेक मौके थे जब महामहिम सरकार को परेशानी में डाल सकते थे किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी उनकी तारीफ की और उन्हें पिता-तुल्य माना। इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की जि़ंदगी में ख़ुद को स्थापित करने का मौका मिला।
यदि हम विश्लेषण करें तो प्रणब मुखर्जी चाहते तो पिछले तीन साल में ऐसे कई मौके आए जब वह मोदी सरकार को मुश्किल में डाल सकते थे। जैसे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को बार-बार जारी करने पर वह आपत्ति कर सकते थे। अपने हाथ पीछे खींच सकते थे। हालांकि, यह सिर्फ कुछ समय के लिये ही संभव था किन्तु कर तो सकते ही थे। ऐसे ही मौके उत्तराखंड और अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लागू करने के समय भी उनके पास था। पर उन्होने ऐसा नहीं किया। प्रधानमंत्री एवं कैबिनट का सम्मान किया। राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री में कभी टकराव नहीं दिखा।
यदि इतिहास को देखें तो राष्ट्रपति की भूमिका टकराव की नहीं मानी जाती है। पर कभी कभी टकराव भी हुआ है। सन 1951 में हिन्दू कोड बिल को लेकर डॉ राजेन्द्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के बीच पहली बार टकराव की स्थिति बनी और दोनों के बीच विषय पर पत्राचार हुआ। बाद में दोनों के बीच सुलह हुयी। सहमति बनी। यह निष्कर्ष निकाला गया कि राष्ट्रपति और सरकार के बीच अंतर दिखाई नहीं पडऩा चाहिए। इसके बाद एक बार अप्रैल 1977 में एक टकराव हुआ। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने नौ राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने का फ़ैसला किया। उस समय बीडी जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति थे। प्रारम्भ में उन्होने आदेश पर हस्ताक्षर करने का मन नहीं बनाया था किन्तु बाद में उन्होंने सरकार का सम्मान करते हुये हस्ताक्षर कर दिये। इसके बाद 1985 में एक घटना घटित हुयी। राजीव गांधी और ज्ञानी जैल सिंह के बीच कटुता बढ़ गयी। कहा तो यहाँ तक जाने लगा था कि ज्ञानी जी सरकार को बर्ख़ास्त करने पर विचार करने लगे थे। इसके बाद जब 1996 में लोकसभा चुनाव के दौरान किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरे भाजपा के समर्थित दलों के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सरकार बनाने का न्यौता दिया। शंकर दयाल शर्मा का यह कदम एक न्याय प्रिय कदम था। हालांकि, अटल सरकार सिर्फ तेरह दिन ही चली और एक वोट से विश्वास मत हार गयी फिर भी विवेक के आधार पर महामहिम का फैसला आज भी सराहनीय माना जाता है।
अब गरिमामयी परंपरा को आगे बढ़ाना है महामहिम को:
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति नामांकन के पूर्व अपनी पार्टी छोड़ देते हैं इसलिए उनकी शपथ उन्हे याद दिलाती रहती है कि वह पद पर निष्ठा और गरिमा के साथ निष्पक्ष रहेंगे। विपक्षी दल अब अपने विषयों को लेकर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पास आयेंगे। बहुत संभव है कि यह विषय सरकार के विरोध में हो। ऐसे में अपनी पुरानी निष्ठाओं को त्यागकर फैसले करना एक बड़ी जवाबदेही होने जा रही है। दुनिया की नजऱ में विपक्ष यह बात साबित करने की अवश्य कोशिश करेगा कि एक विचारधारा के लोग लोकतन्त्र के लिये खतरा बने हुये हैं। विपक्ष का इतिहास ऐसा ही कुछ रहा है। वह छवि धूमिल करने की कोशिश करता रहा है। पुरुसकार वापसी गैंग की हरकतें हम सब देख ही चुके हैं कि किस तरह बिहार चुनाव के पहले एक सुनियोजित साजिश के द्वारा असहिष्णुता का राग अलापा गया और पुरुस्कार वापस हुये। बिहार में मतदान के बाद यह सब शांत हो गये। यहाँ तक की चुनाव परिणाम का भी इंतज़ार इन लोगों ने नहीं किया।
अब चूंकि विपक्ष कमजोर, लाचार एवं हताश है ऐसे में महामहिम का कार्य महत्वपूर्ण होने जा रहा है। संघीय ढांचे की रक्षा करते हुये राज्यों के हितों को उन्हे साधना होगा। अनु0-356 के प्रयोग में भी समझदारी दिखानी होगी। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसा विद्वान व्यक्ति भी एक बार इस संबंध में उच्चतम न्यायालय से फटकार खा चुका है। चूंकि, कैग, उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीश, अटॉर्नी जनरल जैसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों में राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है इसलिए महामहिम के प्रारम्भिक निर्णय उनकी छवि बनाने का काम करने जा रहे हैं। संसद के अंदर राष्ट्रपति का भाषण सत्ताधारी दल के द्वारा तैयार होता है। वह भी उस दल से जुड़े रहे हैं इसलिए इसमे सरकार से कोई टकराव नहीं होने जा रहा है। हाँ, समय समय पर सरकार को राजनैतिक सलाह एवं देश में चलने वाली गतिविधियों पर उनकी पैनी नजऱ भारत के लोकतन्त्र को और ज़्यादा मजबूत करेगी। महामहिम के लिए सिर्फ भारत की संवैधानिक परंपरा का निर्वहन ही चुनौती नहीं है बल्कि भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक, क्षेत्रीय एवं आर्थिक विरासत को सँजोये रखना भी एक बड़ी चुनौती होने जा रहा है। ठ्ठ
एक कद्दावर नेता की छवि है नायडू की
बचपन से आरएसएस से जुड़े रहे हैं। आपातकाल में मीसाबंदी। पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं में से एक हैं। संसदीय कार्यमंत्री भी रहे हैं। देश के पूर्व के अन्य सभी उपराष्ट्रपतियों के मुकाबले वेंकैया के पास ज्यादा अनुभव है। अन्य पार्टी के नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं। सदन चलाने की क्षमता है। मोदी सरकार के संकटमोचक की छवि है संसदीय कार्यमंत्री होने के नाते संसदीय नियमों की जानकारी है।
वह 1998 से राज्यसभा के सदस्य हैं.। वेंकैया नायडू ने कर्नाटक, राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया है। इस तरह से उन्होंने दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तर भारत का भी प्रतिनिधित्व किया। अगर वेंकैया जीते तो वह पहले ऐसे उपराष्ट्रपति होंगे जो संसदीय कार्यमंत्री भी रहे हैं। इस तरह से नायडू का नामांकन दिखाता है कि मोदी सरकार ने उपराष्ट्रपति पद की भावना और संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए ही उनका चुनाव किया था। खास करके राज्यसभा में उनकी भूमिका को ध्यान में रखा गया।
मोदी सरकार ने पारस्परिक संघवाद और स्वस्थ संसदीय कार्यप्रणाली के महत्व को भी दर्शाया है। नायडू की बेदाग छवि से भी उम्मीदवारी को बल मिला। किसान के बेटे नायडू बहुत ही जमीनी नेता है। वह विधायक भी रह चुके हैं। शहरी एवं ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में उन्होंने अच्छा काम किया है।
बीजेपी के दो बार अध्यक्ष रह चुके हैं। वाजपेयी सरकार में भी मंत्री रहे हैं। इस तरह से उनके पास राजनीतिक, विधायी और प्रशासनिक अनुभव है। नायडू को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवर बनाकर बीजेपी ने एक अच्छी परंपरा को आगे बढ़ाया है जिनके पास राज्य और केंद्र में काम करने का अनुभव है।
वेंकैया नायडू बनाम गोपाल कृष्ण गांधी
• नायडू का जन्म 1 जुलाई, 1949 को आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिले में हुआ। नेल्लोर से स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं से राजनीति विज्ञान में स्नातक ,विशाखापट्टनम के लॉ कॉलेज से अंतरराष्ट्रीय कानून में डिग्री ली।
• 14 अप्रैल, 1971 को शादी हुयी एवं उनके एक बेटा और एक बेटी है। कॉलेज के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गए। नायडू पहली बार 1972 में जय आंध्रा आंदोलन से सुर्खियों में आए। 1975 में इमरजेंसी में जेल गए। 1977 से 1980 तक यूथ विंग के अध्यक्ष रहे।
• महज 29 साल की उम्र में 1978 में पहली बार विधायक बने। 1983 में भी विधानसभा पहुंचे और धीरे-धीरे राज्य में भाजपा के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे। बीजेपी के विभिन्न पदों पर रहने के बाद नायडू पहली बार कर्नाटक से राज्यसभा के लिए 1998 में चुने ग। इसके बाद से ही 2004, 2010 और 2016 में वह राज्यसभा के सांसद बने। 1999 में एनडीए की जीत के बाद उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में ग्रामीण विकास मंत्रालय का प्रभार दिया गया।
• 2002 में वे पहली बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। दिसंबर 2002 तक अध्यक्ष रहे। 2004 में वह दोबारा अध्यक्ष बने। साल 2004 में नायडू राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, लेकिन एनडीए की हार के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। 2014 में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के बाद उन्हें शहरी विकास मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया।
• गोपाल कृष्ण गांधी का जन्म 22 अप्रैल 1945 को हुआ था। उनके पिता का नाम देवदास गांधी और मां का नाम लक्ष्मी था। गोपाल कृष्ण गांधी ने सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इंग्लिश लिट्रेचर में मास्टर्स की पढ़ाई की।
• गोपाल कृष्ण गांधी कई पदों पर भी रह चुके हैं। 1968 से 1992 तक वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे। 1985 से 1987 तक वह उप-राष्ट्रपति के सचिव पद पर भी रहे। इसके बाद साल 1987 से 1992 तक वह राष्ट्रपति के संयुक्त सचिव रहे। 1997 में राष्ट्रपति के सचिव बने।
• इसके अलावा गोपाल कृष्ण गांधी यूनिइडेट किंगडम में भारतीय उच्चायुक्त में सांस्कृतिक मंत्री के पद का दायित्व भी संभाल चुके हैं। लंदन में नेहरु सेंटर के डायरेक्टर रह चुके हैं। गांधी ने लिसोटो में भारतीय उच्चायुक्त का पदभार संभाला था। क्क्• गोपाल कृष्ण गांधी, साल 2000 में श्रीलंका में भारतीय उच्चायुक्त, 2002 में नॉर्वे में भारतीय राजदूत और आइसलैंड में बतौर भारतीय राजदूत अपनी सेवाएं दे चुके हैं। 2004 से 2009 तक वह पश्चिम बंगाल के गवर्नर रह चुके हैं।
मेरा चयन भारतीय लोकतंत्र की महानता का प्रतीक : रामनाथ कोविन्द
देश के 14वें राष्ट्रपति चुने जाने के बाद सभी का धन्यवाद देते हुये महामहिम कोविन्द ने एक भावुक भाषण दिया। उनके भाषण में भावना भी थी और दर्द भी। दलितों का प्रतिनिधित्व भी था और कर्तव्य की अपेक्षाओं का भानभी। उनका भाषण कुछ था।
‘जिस पद का मान डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणब मुखर्जी जैसे महान विद्वानों ने बढ़ाया है, उस पद के लिए मेरा चयन मेरी लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी का अहसास करा रहा है। व्यक्तिगत रूप से यह मेरे लिए बहुत ही भावुक क्षण है। आज दिल्ली में सुबह से बारिश हो रही है। बारिश का यह मौसम मुझे बचपन के उन दिनों की याद दिलाता है जब मैं अपने पैतृक गांव में रहा करता था। घर कच्चा था। मिट्टी की दीवारे थीं। तेज बारिश के समय फूस की बनी छत पानी रोक नहीं पाती थी। हम सब भाई-बहन कमरे की दीवार के सहारे खड़े होकर इंतजार करते थे कि बारिश कब समाप्त हो। आज देश में ऐसे कितने ही रामनाथ कोविंद होंगे, जो इस समय बारिश में भीग रहे होंगे, कहीं खेती कर रहे होंगे, कहीं मजदूरी कर रहे होंगे। शाम को भोजन मिल जाए इसके लिए पसीना बहा रहे होंगे। आज मुझे उनसे कहना है कि परौंख गांव का रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति भवन में उन्हीं का प्रतिनिधि बनकर जा रहा है। मुझे यह जिम्मेदारी दिया जाना, देश के ऐसे हर व्यक्ति के लिए संदेश भी है जो ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है। इस पद पर चुने जाना न कभी मैंने सोचा था और न कभी मेरा लक्ष्य था,. लेकिन अपने समाज के लिए, अपने देश के लिए अथक सेवा भाव आज मुझे यहां तक ले आया है। यही सेवा भाव हमारे देश की परंपरा भी है। राष्ट्रपति के पद पर मेरा चयन भारतीय लोकतंत्र की महानता का प्रतीक है। इस पद रहते हुए संविधान की रक्षा करना और संविधान की मर्यादा को बनाए रखना मेरा कर्तव्य है।’
कैसे राष्ट्रपति साबित होंगे रामनाथ कोविंद?
रामनाथ कोविंद का भारत का 14 वां राष्ट्रपति चुना जाना अपने आप में एक एतिहासिक घटना है। अब तक जो 13 राष्ट्रपति चुने गए, उनमें से कई लोग पहले उप-राष्ट्रपति रहे, केंद्रीय मंत्री रहे, मुख्यमंत्री रहे, कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और राज्यपाल भी रहे। राज्यपाल तो कोविंद भी रहे लेकिन दो साल से भी कम। जब उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए घोषित हुआ, तब लोगों को जिज्ञासा हुई कि यह कोविंद कौन है ? उनके बारे में यह लोक-जिज्ञासा ही बताती है कि उनका राष्ट्रपति बनना एतिहासिक क्यों हैं ? जो व्यक्ति 30-35 साल से देश की एक प्रमुख पार्टी भाजपा में सक्रिय रहा हो, दो बार राज्यसभा का सदस्य रहा हो, उसके दलित मोर्चे का अध्यक्ष रहा हो, वह इतना प्रचार-परांगमुख और आत्मगोपी हो कि लोगों को पूछना पड़े कि वह कौन है, यही प्रश्न एक बड़े प्रश्न को जन्म देता है कि रामनाथ कोविंद कैसे राष्ट्रपति होंगे ?
इसमें शक नहीं कि कोविंद ऐसे समय में राष्ट्रपति बन रहे हैं, जो अपने ढंग का अनूठा है। 30 साल में यह पहली सरकार है जो स्पष्ट बहुमत से बनी है, जिसके कर्णधार नरेंद्र मोदी हैं। पिछले तीन साल में देश में जो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रहे हैं, वे दोनों परस्पर विरोधी दलों के हैं लेकिन इसके बावजूद उनमें न तो ऐसी कोई अप्रियता हुई, जैसी कि हिंदू कोड बिल और सोमनाथ मंदिर को लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरु के बीच हुई थी या 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद डॉ. राधाकृष्णन और नेहरु या पोस्टल बिल को लेकर ज्ञानी जैलसिंह और राजीव गांधी के बीच हुई थी। मैं समझता हूं कि कोविंद के राष्ट्रपति रहते हुए विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में उचित तालमेल रहेगा।
कोविंद को राष्ट्रपति बनाने के पीछे कारण ढूंढते हुए कई विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी को इस पद के लिए ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो रबर का ठप्पा सिद्ध हो, जो सरकार के हर निर्णय पर सहमति की मुहर लगा दे। यह बात किस प्रधानमंत्री के लिए सत्य नहीं होगी ? कौन प्रधानमंत्री यह चाहेगा कि किसी विघ्नसंतोषी को राष्ट्रपति बना दिया जाए ? क्या अपने 14 राष्ट्रपतियों में से आप एक भी ऐसे राष्ट्रपति का नाम गिना सकते हैं, जो अपने समकालीन प्रधानमंत्री को चुनौती दे सकता था ? सिर्फ ज्ञानी जैलसिंह, जो पहले मुख्यमंत्री और गृहमंत्री रह चुके थे, वे ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विरुद्ध कार्रवाई करने की सोच रहे थे। लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं हुई। इसीलिए मोदी को कोई दोष नहीं दिया जा सकता। संभवत: इसी कारण श्री लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरलीमनोहर जोशी को मौका नहीं मिला। यों भी आपात्काल के बाद अब तक संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक राष्ट्रपति के स्वविवेक के अधिकार को काफी सीमित कर दिया गया है। मंत्रिमंडल के निर्णय पर राष्ट्रपति को आखिरकार मुहर लगानी ही होती है।
भाजपा के सक्रिय सदस्य बनने के पहले वे अनेक बड़े नेताओं के सहयोगी की तरह भी काम कर चुके हैं। उन नेताओं में प्रमुख पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी हैं। अब से लगभग 40 साल पहले कोविंदजी मुझे मोरारजी भाई के डुप्ले लेन के बंगलों पर ही मिला करते थे। यह तथ्य उन विरोधी नेताओं और सेक्यूलरवादियों को शायद अच्छा लगेगा, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि कई विरोधी दलों के सांसदों और विधायकों ने कोविंद को अपना वोट दिया है ? उन्होंने सोनिया गांधी की ‘अंत:करण के वोटÓ की अपील को वास्तव में चरितार्थ कर दिया है। कांग्रेस ने दलित कार्ड खेला, मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ खड़ा कर दिया लेकिन इसके बावजूद उन्हें 66 प्रतिशत और मीराकुमार को 34 प्रतिशत ही वोट मिले। राष्ट्रपति पद के चुनाव-प्रचार के दौरान कोविंदजी और मीराजी ने जिस गरिमा और संयम का परिचय दिया, वह राष्ट्रपति पद के भावी उम्मीदवारों के लिए अनुकरणीय है। राष्ट्रपति चुने जाने पर श्री रामनाथ कोविंद ने जो बयान दिया, वह कितना मार्मिक है। वह बताता है कि कोविंद अपने बचपन को भूले नहीं है। ‘प्रभुता पाए, काय मद नाहिंÓ की कहावत को उन्होंने गलत सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा कि देश में मेरे जैसे अनगिनत कोविंद हैं, जो बरसात में भीग रहे होंगे, खेतों में पसीना बहा रहे होंगे ताकि रात को वे अपना पेट भर सकें। बिहार के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कैसे सम्मोहित कर लिया था, यह बात मुझे नीतीशजी ने कुछ माह पहले पटना में उनसे हुई मेरी भेंट में मुझे बताई थी। मैं उम्मीद करता हूं कि राष्ट्रपति के तौर पर कोविंद भी देश के सभी राजनीतिक दलों के साथ ऐसा ही निष्पक्ष व्यवहार करेंगे ।