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कृषि संकट की जड़ें

जावेद अनीस

मध्यप्रदेश विडम्बनाओं और विरोधाभासों का गढ़ बनता जा रहा है, एक तरफ तो यह सूबा भुखमरी, कुपोषण और किसानों की बदहाली के लिए कुख्यात है तो ठीक उसी समय यह देश का ऐसा पहला सूबा भी बन जाता है जहाँ ‘हैप्पीनेस डिपार्टमेंटÓ की शुरुआत की जाती है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा लाख धमकाने, पुचकारने और फरेब के बावजूद किसानों का गुस्सा शांति नहीं हुआ है।इस बार किसानों प्रतिरोध इनता तेज था कि एक बार तो करीब 11 सालों से सूबे की गद्दी पर अंगद की तरह पसरे शिवराजसिंह चौहान की गद्दी हिलती नजर आयी। आदोंलन शुरू होने के करीब पखवाड़े भर के भीतर ही सूबे के करीब दो दर्जन किसानों ने आत्महत्या कर ली लेकिन किसान पुत्र शिवराज सिंह की सरकार का पूरा जोर किसी भी तरह से इस पूरे मसले से ध्यान हटा देने या उसे दबा देने का रहा। पहले आन्दोलनकारियों को ‘एंटी सोशल एलिमेंटÓ के तौर पर पेश करने की पूरी कोशिश की गयी और जब मामला हाथ से बाहर जाता हुआ दिखाई दिया तो खुद मुख्यमंत्री ही धरने पर बैठ गये। बाद में उनका कहना था कि दिया कि किसान आंदोलन को अफीम तस्करों ने भड़काया था और उन्होंने ही इसे हिंसक बनाया।
किसानों का आक्रोश केवल मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह देशव्यापी है।पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में किसान आन्दोलन हुए हैं लेकिन किसानों कि हालत में कोई फर्क नहीं देखने को मिला और ना ही सरकारों द्वारा उनकी मांगों पर कोई विशेष ध्यान दिया गया है।
साम, दाम, दंड ,भेद का खेल

आंदोलन के शुरुआत में मध्यप्रदेश के किसान लाखों लीटर दूध और सब्जी सड़कों पर फेंक कर अपना विरोध दर्ज करा रहे थे जिसका शिवराज सरकार द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया । इससे किसानों का आक्रोश बढ़ता गया, बाद में सरकार द्वारा आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के नेताओं को बुलाकर समझौता करने और आन्दोलनकारियों की मांगों को मान लेने का स्वांग रचा गया जबकि भारतीय किसान संघ का इस आंदोलन से सम्बंध ही नही था और फिर जब पुलिस द्वारा आंदोलन कर रहे 6 किसानों की हत्या कर दी गयी तो थ्योरी पेश की गयी कि आंदोलनकारी किसान नहीं बल्कि असामाजिक तत्व थे जिन्हें कांग्रेस का संरक्षण प्राप्त था, यह दावा भी किया गया कि गोली पुलिस की तरफ से नहीं चलायी गयी थी इसके बाद मुख्यमंत्री खुद उपवास पर बैठ गये। मृतक किसानों के परिवारवालों को बुलाकर शिवराज ने ये जताने की कोशिश की कि किसान उनके साथ हैं। अगले दिन शिवराज ने बहुत ही नाटकीय अंदाज में वहां मौजूद भीड़ से क्या मैं अपना उपवास खत्म कर दूं? पूछ कर उपवास तोड़ दिया। इस दौरान उन्होंने करीब एक दर्जन घोषणायें भी कर डालीं। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह ने हिसाब लगाया है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने कार्यकाल के पहले दस वर्षों में करीब 8000 घोषणाएं कर चुके हैं यानी औसतन दो घोषणाएं हर रोज, जिनमें से लगभग 2000 को पूरा नहीं किया जा सका है। पिछले तीन सालों में की गयी 1500 घोषणाओं में से तो केवल 10प्रतिशत ही पूरी हो सकी हैं। ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उपवास के दौरान की गयी घोषणाओं का क्या होने वाला है।
पिछले ग्यारह सालों के अपने कार्यकाल में शिवराज सिंह चौहान ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं, मुसीबत को मौके में तब्दील कर देना उनकी सबसे बड़ी खासियत रही है, यहाँ तक व्यापमं जैसे कुख्यात घोटाले के बाद भी वे अपनी कुर्सी बचा पाने में कामयाब रहे हैं। आज एक बार फिर वे अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। जिस किसान हितैषी छवि को उन्होंने बहुत करीने से गढ़ा था इस बार उसी को सबसे बड़ा झटका लगा है और यह झटका खुद किसानों ने ही लगाया है। गोलीकांड से ठीक पहले हालात बिलकुल ही अलग नजर आ रहे थे। उनकी बहुप्रचारित नर्मदा यात्रा खत्म ही हुई थी और विपक्ष हमेशा की तरह कमजोर और असमंजस्य की स्थिति में नजर आ रहा था लेकिन किसानों के गुस्से और गोलीकांड से फिजा बदली हुई नजर आ रही है। दरअसल आंदोलन के शुरूआती दौर में जब किसान सड़क पर उतरे तो इसे गम्भीत्ता से नहीं लिया गया। अगले साल विधान सभा चुनाव हैं और शिवराज सरकार अपने आप को सबसे कमजोर स्थिति में पा रही है, लम्बे समय बाद विपक्षी कांग्रेस में हलचल और जोश दोनों नजर आ रही है।
खतरनाक पैटर्न

अखबारों में छपी खबरों के अनुसार किसान आंदोलन के दौरान गोली चलने से ठीक पहले मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह कानून व्यवस्था कि समीक्षा के दौरान कहा था कि किसानों की आड़ में असमाजिक तत्व गड़बड़ी कर रहे हैं। ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाए। इसके कुछ घंटों बाद ही मंदसौर से पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने की खबरें आती हैं, सत्ताधारी पार्टी और सरकार से जुड़े कई नेताओं ने भी आन्दोलनकारियों को नकली, मु_ी भर किसान और विपक्ष की साजिश साबित करने पर पूरा जोर लगा रहे थे। प्रदेश में किसानों की मौत को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजे गये अपने जवाब में मध्यप्रदेश सीआईडी ने कहा है कि ‘मध्यप्रदेश में किसानों के आत्महत्या की बड़ी वजह खेती या कर्ज नहीं बल्कि वे पारिवारिक कलह, शराब पीने, शादी, सम्पत्ति विवाद और बीमारी आदि वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश के किसान नेता सुनीलम कहते हैं कि मुख्यमंत्री द्वारा किसान आंदोलन को अफीम तस्करों द्वारा प्रायोजित बताना बहुत हो शर्मनाक है। लेकिन श्रम की लकीर यहीं खत्म नहीं होती है सूबे में भाजपा के मुखिया नंदकुमार सिंह चौहान का बयान है कि, समस्याओं से लडऩे की विल पॉवर (इच्छाशक्ति) कम होने के चलते किसान ही नहीं विद्यार्थी भी आत्महत्या कर रहे हैं,कई बार ऐसा होता है कि लोगों के मन के मुताबिक रिजल्ट नहीं आता और हताश होकर लोग आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। यह पूरी की गयी है कि कैसे किसानों इस पूरी त्रासदी को बहुत ही सामान्य बना दिया जाए।
क्यों उबले किसान ?

मौजूदा किसान आंदोलन खेती-किसानी की कई सालों से कि जा रही अनदेखी का परिणाम है, इस आक्रोश के लिये सरकारों कि नीतियां जिम्मेदार है। आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते, उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है उनके और अगर उन्हें दूसरा कोई विकल्प मिले तो वे आसानी से खेती छोडऩे के लिए तैयार हो जायेंगें। हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है। 2013 में जारी किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाये देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम 47 हजार रुपए का कर्ज है। इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है यह नोटबंदी ही है जिसकी वजह से किसान अपनी फसलों को कौडिय़ों के दाम बेचने को मजबूर हुए, मंडीयों में नकद पैसे की किल्लत हुई और कर्ज व घाटे में डूबे किसानों को नगद में दाम नहीं मिले और मिले भी तो अपने वास्तविक मूल्य से बहुत कम। आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम मिला। जानकार बताते हैं कि खेती- किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी। मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के आलावा कुछ खास नहीं किया है
कृषि संकट की जड़ें

खेती में अब इतना मुनाफा नहीं, खेती बंट-बंटकर घट गई है, खेती जनसंख्या का बोझ नहीं सह सकती है, खेती का काम जो कर रहे है वे करें उनकी मैं हर संभव मदद करूंगा लेकिन मेरी इच्छा है कि आपमें से कुछ लोग उद्योगों की तरफ आएं, सर्विस सेक्टर में जाएं,इसके लिए हम अकादमिक से लेकर मैदानी प्रशिक्षण देंगे। यह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वाक्य हैं जिन्होंने जाने-अनजाने अपने इन चंद वाक्यों से भारत के कृषि संकट की गहराई को छू लिया। दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र का संकट हैÓ, यह एक ‘कृषि प्रधान’ देश की ‘कृषक प्रधान’ देश बन जाने की कहानी है। 1950 के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था, 1991 में जब नयी आर्थिक नीतियां को लागू की गयी थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 प्रतिशत था जो अब वर्तमान में करीब 13 प्रतिशत के आस पास आ गया है। जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है,
नतीजे के तौर पर आजभी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता कृषि क्षेत्र पर बनी हुई है । इस दौरान परिवार बढऩे की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है जिनके लिए खेती करना बहुत मुश्किल एवं नुकसान भरा काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गयी है। एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल 9.02 करोड़ काश्तकार परिवारों में से 7.81 करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें। खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होताजा रहा है। दरअसल खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां कूट रही हैं,भारत के कृषि क्षेत्र में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुआ है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खप कर इतने सस्ते में उत्पाद दे रही है तो फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है, इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़ेे कारोबार तेजी से फल फूल रहे हैं । फर्टिलाइजर बीज, पेस्टीसाइड और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ी कंपनियां सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं। यूरोप और अमरीका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजडऩा पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नये क्षेत्रों की तलाश में रहता है। भारत का मौजूदा विकास मॉडल इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है जिसकी वजह देश के प्रधानमंत्री और सूबाओं के मुख्यमंत्री दुनिया भर में घूम-घूम कर पूँजी को निवेश के लिये आमंत्रित कर रहे हैं, इसके लिए लुभावने आफर प्रस्तुत दिये जाते हैं जिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल है।
आगे का रास्ता और भी खतरनाक है

भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बढ़ी पूँजी का रुख गावों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही और जिसके बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र छोड़ कर दूसरे सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा। यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित होगा। मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ भी चुकी है, इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि में सुधार की रूप-रेखा भी प्रस्तुत की गई है। इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं। कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में ‘कृषि के निजीकरणÓ का रोडमैप है
हमारे राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसा चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर इसलिए भी नजरंदाज नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चूका है,विपक्ष में रहते हुए तो सभी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं जहाँ खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है। सरकारें आती जाती रहेंगीं लेकिन मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने वजूद की लड़ाई लडऩे के लिए अभिशप्त हैं।

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