– ललित गर्ग-
देश में एक के बाद एक अग्निकांड हो रहे हैं। एक अग्निकांड मुम्बई के पब में हुआ, जहां पन्द्रह लोगों की जान चली गयी है। और अब उससे भी भयानक अग्निकांड बाहरी दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में एक फैक्टरी में हो गया, जिसने 10 महिलाओं समेत 17 लोगों की जान ले ली। उस जहरीली काली आग ने कितने ही परिवारों के घर के चिराग बुझा दिए। कितनी ही आंखों की रोशनी छीन ली और एक कालिख पोत दी कानून और व्यवस्था के कर्णधारों के मुँह पर। ‘अग्निकांड’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखांे के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं। जीवन का हर पल दुर्घटनाओं का शिकार हो रहा है। दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना हो या सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना-हर स्थिति में मनुष्य जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता पर सन्नाटा पसर रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना, यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही, आम जनता भी इससे बच नहीं सकती। बवाना की आग में पीड़ितजन तो सहानुभूति के पात्र हैं ही, पर इन घटनाओं के लिए सहानुभूति की पात्र देश की जनता भी है, जो भ्रष्ट, लापरवाह एवं लालची प्रशासनिक चरित्रों को झेल रही हैै। मनुष्य अपने स्वार्थ और रुपए के लिए इस सीमा तक बेईमान और बदमाश हो जाता है कि हजारों के जीवन और सुरक्षा से खेलता है। दो-चार परिवारों की सुख समृद्धि के लिए अनेक घर-परिवार उजाड़ देता है।
बवाना की आग इतनी विकराल थी कि श्रमिकों को निकलने का मौका ही नहीं मिला। शव एक-दूसरे से चिपके पाए गए। आग तो इस औद्योगिक क्षेत्र की तीन फैक्टरियों में लगी थी। लेकिन जिस फैक्टरी में मौतें हुईं उसके ग्राउंड फ्लोर पर पटाखों की पैकिंग का काम हो रहा था और ऊपर रबड़ की फैक्टरी थी। हादसे तभी होते हैं जब भ्रष्टाचार होता है, जब अफसरशाह लापरवाही करते हैं, जब स्वार्थ एवं धनलोलुपता में मूल्य बौने हो जाते हैं और नियमों और कायदे-कानूनों का उल्लंघन होता है। आग क्यों और कैसे लगी, यह तो जांच का विषय है ही लेकिन फैक्टरी को तो उसके मालिक ने मौत का कुआं बना रखा था। आग पर काबू पाने के कोई अग्नि शमन उपकरण थे ही नहीं। आग बुझाने के लिए रेत और पानी तक नहीं था। फैक्टरी से बाहर जाने का भी एक ही रास्ता था। आखिर क्या वजह है कि जहां दुर्घटनाओं की ज्यादा संभावनाएं होती है, वही सारी व्यवस्थाएं फेल दिखाई देती है? सारे कानून कायदों का वहीं पर स्याह हनन होता है। हर दुर्घटना में गलती भ्रष्ट आदमी यानी अधिकारी की ही होती है पर कारण बना दिया जाता हैं पुर्जों व उपकरणों की खराबी को। जैसे-जैसे जीवन तेज़ होता जा रहा है, सुरक्षा उतनी ही कम हो रही है, जैसे-जैसे प्रशासनिक सर्तकता की बात सुनाई देती है, वैसे-वैसे प्रशासनिक कोताही के सबूत सामने आते हैं, मरने वालों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन हर बड़ी दुर्घटना कुछ शोर-शराबें के बाद एक और नई दुर्घटना की बाट जोहने लगती है। सरकार और सरकारी विभाग जितनी तत्परता मुआवजा देने में और जांच समिति बनाने में दिखाते हैं, अगर सुरक्षा प्रबंधों में इतनी तत्परता दिखाएं तो दुर्घटनाओं की संख्या घट सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्यों नहीं हो रहा है, यह मंथन का विषय है।
राजधानी दिल्ली ही नहीं, देश में हर जगह कानूनों एवं व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ते हुए देखा जा सकता है। बवाना की फैक्टरी में यदि नियमों एवं कायदों को लागू किया होता तो इतनी जाने नहीं जाती। मजदूर चाह कर भी कुछ कर नहीं पाए। यदि दो रास्ते होते तो शायद लोगों की जानें बच जातीं। आग तो आग ही है, वह अपना-पराया नहीं देखती है। फैक्टरी के मालिक ने दिल्ली फायर ब्रिगेड से अनापत्ति प्रमाणपत्र भी नहीं लिया था। कोई कह रहा है कि उसके पास गुलाल बनाने का लाइसेंस था, प्लास्टिक का सामान बनाने का लाइसेंस था लेकिन प्लास्टिक की फैक्टरी में पटाखों का होना अपने आपमें खतरनाक है। इस औद्योगिक क्षेत्र के जिस संबंधित विभाग के अधिकारियों के कंधों पर जांच-पड़ताल की जिम्मेदारी थी, वे अधिकारी भी मामले में पूरी तरह से बेखबर थे। साफ है कि फैक्टरी नियमों और कानूनों का उल्लंघन करके चलाई जा रही थी। दिल्ली में केवल बवाना ही नहीं, अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां अवैध रूप से ऐसे उद्योग चल रहे हैं जो मानव जीवन के लिए जानलेवा हैं। वेश्यालयों में देह व्यापार से मन्दिरों में देह का धंधा समाज के लिए इसलिए और भी घातक है कि वह पवित्रता की ओट में अपवित्र कृत्य है।
इंसान का जीवन कितना सस्ता हो गया है। अपने धन लाभ के लिये कितने इंसानों के जीवन को दांव पर लगा देता है। श्रमिकों की जान जोखिम में डालना तो मालिकों का जन्मसिद्ध अधिकार हो गया है, लेकिन इन बेचारे मजबूरी के मारे श्रमिकों एवं मजदूरों की जान की जिम्मेदारी एवं उसकी सुरक्षा उन अधिकारियों की है जिन्हें कानून एवं कायदों को अमलीजामा पहनाना होता है। लेकिन मालिकों से ज्यादा दोषी ये अधिकारी और कर्मचारी हैं। अगर ये अपनी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाते तो उपहार सिनेमा अग्निकांड नहीं होता, नन्दनगरी के समुदाय भवन की आग नहीं लगती, पीरागढ़ी उद्योगनगर की आग भी उनकी लापरवाही का ही नतीजा थी। बात चाहे पब की हो या रेल की, प्रदूषण की हो या खाद्य पदार्थों में मिलावट की-हमें हादसों की स्थितियों पर नियंत्रण के ठोस उपाय करने ही होंगे। तेजी से बढ़ता हादसों का हिंसक एवं डरावना दौर किसी एक प्रान्त या व्यक्ति का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी किया है। इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे मौत के तरह-तरह की डरावने हादसों एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। स्थानीय निकाय हो या सरकारें, लाइसेंसिंग विभाग हो या कानून के रखवाले- अगर मनुष्य जीवन की रक्षा नहीं की जा सकती तो फिर इन विभागों का फायदा ही क्या? कौन नहीं जानता कि ये विभाग कैसे काम करते हैं। सब जानते हैं कि प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर इंस्पैक्टर आते हैं और बंधी-बंधाई राशि लेकर लौट जाते हैं। लाइसेंसिंग विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार है। इसके लिए कोई एक विभाग जिम्मेदार नहीं बल्कि उद्योगों से जुड़े सभी विभाग जिम्मेदार हैं। पर नैतिकता और मर्यादाओं के इस टूटते बांध को, लाखों लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते इन आदमखोरों से कौन मुकाबला करेगा? कानून के हाथ लम्बे होते हैं पर उसकी प्रक्रिया भी लम्बी होती है। कानून में अनेक छिद्र हैं। सब बच जाते हैं। सजा पाते हैं गरीब आश्रित, जो मरने वालों के पीछे जीते जी मर जाते हैं। और ये फैक्टरियां और ये कारखाने फिर लेबल और शक्ल बदल-बदलकर एक नये अग्निकांड को घटित करते रहते हैं। लेकिन कब तक?
इन अग्निकांडों ने कई बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। सरकार की नाकामी इसमें प्रमुख है। पुलिस ”व्यक्ति“ की सुरक्षा में तैनात रहती है ”जनता“ की सुरक्षा में नहीं। भ्रष्ट अधिकारी नोट जुगाड़ने की कोशिश में रहते हैं, जनता की सुरक्षा के लिये नहीं। भ्रष्टाचार शासन एवं प्रशासन की जड़ों में पेठा हुआ है, इन विकट एवं विकराल स्थितियों में एक ही पंक्ति का स्मरण बार बार होता है, “घर-घर में है रावण बैठा इतने राम कहां से लांऊ”। भ्रष्टाचार, बेईमानी और अफसरशाही इतना हावी हो गया है कि सांस लेना भी दूभर हो गया है। राशन कार्ड बनवाने, स्कूल में प्रवेश लेने और यहाँ तक की सांस लेने के लिए भी रिश्वत की जरूरत पड़ती है। अगर इन बातों को जनता नकारती रही तो कब तक हम लोग नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को ढंूढते फिरेंगे। आखिर हम कब नींद से जागेंगे। कुछ जिम्मेदारी तो हमारी भी है। हमारे देश की चर्चाएं बहुत दूर दूर तक हैं यह अच्छी बात है लेकिन इन चर्चाओं के बीच हमारे देश का भ्रष्टाचार भी दुनिया में चर्चित है, इसे तो अच्छा नहीं कहा जा सकता। इसलिए हमें जरूरत है इसको रोकने की। हमें यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफसोस भी होता है कि हमारे पास ईमानदारी नहीं है, राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, नैतिक मूल्य नहीं है। राष्ट्र में जब राष्ट्रीय मूल्य कमजोर हो जाते हैं और सिर्फ निजी स्वार्थ और निजी हैसियत को ऊंचा करना ही महत्वपूर्ण हो जाता है तो वह राष्ट्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है और हादसों का राष्ट्र बन जाता है।
प्रेषक
(ललित गर्ग)