क्या मोदी-योगी ने विदेशो में पढ़े नितिज्ञों के आगे घुटने टेक दिए हैं?
मोदी और योगी जैसे भारतीयता का चिंतन रखने वालों के सत्ता में आने के बाद भी व्यवस्था में परिवर्तन नजर क्यों नहीं आता ? कृषि प्रधान देश में कृषि, कृषक एवं अन्नदाता की सबसे ज्यादा दुर्दशा है। इसका एक मात्र कारण वो नीतिज्ञ है जो विदेशो में पढे हैं। वह ऐसी नीतियाँ ही बनाते हैं जिनसे विदेशियों को भारत से ज्यादा से ज्यादा लाभ मिल सकें। सरकार कोई भी आये। कमोवेश, नीतियां वही रहती है। क्योंकि नीतियां बनाने बाले इस तंत्र में बैठाये गये हैं। ये लोग हावर्ड और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से शिक्षा लेकर आये हैं। उदाहरण के तौर पर वर्तमान नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र से डी फिल किये हुये हैं तो वह कैसे भारत और भारत की आत्मा के अनुरूप नीतियां बना सकते हैं। नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविन्द पानगढयि़ा भारतीय-अमेरिकी अर्थशास्त्री हैं। वह कोलंबिया विश्वद्यालय में प्रोफेसर हैं। प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी हासिल करने वाले पानागढयि़ा विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और व्यापार एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (अंकटाड) में भी विभिन्न पदों पर काम कर चुके हैं। कांग्रेस सरकार के समय योजना आयोग के वाइस चैयरमेन मोंटेक सिंह अहलूवालिया थे जिनकी पढाई ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की रही एवं वह अंतराष्ट्रीय संस्था अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे वित्त संस्थानों से जुड़े रहे।
सत्ता कोई भी रहे यह नीति बनाने वाले विदेशी सोच के लोग ही रहते हैं। इसलिए इनकी नीतियाँ वही रहती हैं जो विश्व बा?ार के आधार पर होती हैं। अर्थात सयुंक्त राष्ट्र संघ के लाभ के लिये। विश्व व्यापार संघ (डबल्यूटीओ), विश्व बैंक, विश्व स्वास्थ्य संघ, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लाभ के लिए। सीधे शब्दों में ऐसे कई संगठन पूरे विश्व के विकाशील और पिछ?े देशो का नीति निर्धारण करते है। आपके शिक्षा कैसी हो, चिकित्सा कैसी हो, व्यापार कैसा हो, बैंकिंग सिस्टम कैसा हो, कृषि कैसी हो और इन सबकी नीतियां सिर्फ एक दृष्टिकोण से बनाई जाती है कि ज्यादा से ज्यादा इन देशंो की धन सम्पदा और सत्ता पर यूरोपियन देशों का आधिपत्य रहे। इस देश की नीतियाँ निर्धारण करने में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले आज तक भारत के लोगों के लिये नीतियाँ नहीं बना पाये। स्पष्ट शब्दों में कहें तो सरकार चाहे हिंदुत्व के नाम पर भारत में आये या धर्मनिरपेक्षता के नाम पर। इन विदेशी सोच रखने वाले काले अंग्रेजों के रहते भारत की मूल आध्यात्मिक आत्मा के आधार पर नीतियाँ नहीं बन सकती हैं।
क्योंकि हम यदि गाय के गोबर से खाद बनाने की नीति को अमल में लायेंगे तो फिर इन यूरोपियन देशो ने जो अपने यहाँ डीएपी, यूरिया और खतरनाक पेस्टिसाइड प्रतिबंधित कर रखे है, वह भारत में कैसे बिकेंगे। गाय का स्वादिष्ट मांस कैसे मिलेगा,इनके खाल के बने बढिय़ा जूते,अन्य उत्पाद कैसे मिलेंगे। खतरनाक रसायन को अनाज, सब्जियों फलों के माध्यम से जनता खायेगी तो कैंसर जैसी विभिन्न खतरनाक बीमारियाँ उत्पन्न होंगी। तो उसके लिये विदेशी कंपनियों की दवाइयों का पूरा जाल भारत की जनता को लूटने के लिये बिछा हुआ है। यदि हम कृषि उत्पाद की बात करे तो एक तरफ किसान अपने द्वारा उत्पन्न अनाज एवं उत्पादों का मूल्य निर्धारित नहीं कर पाता। दूसरी तरफ अमेरिका, इंग्लैंड में पढ़ेे अर्थशास्त्री योजना आयोग और नीति आयोग में बैठकर ऐसी नीतियाँ बनाते हैं जहां किसानों का आलू 2 रूपए किलो भी न बिक पाता हो, वहीँ चिप्स बनाने बाली कंपनियों के द्वारा हजारों रुपये प्रति किलो बेचा जाता है। आलू को किसानो से औने पौने दामो में खरीदकर चिप्स बनाकर एफ डी आई व अन्य माध्यमो से 500 रूपए किलो तक की खुली लूट करने के लिये भारत में आमंत्रित करते हैं। भारत का किसान इन्ही ऑक्सफोर्ड और हावर्ड से पढ़े नीतिज्ञो की बनाई नीतियों के कारण कर्ज में डूबा आत्महत्या करता रहता है। यह दुर्भाग्य से वर्तमान सरकार में, पिछली सरकार में और उससे भी पहले वाली सरकार में भी बदस्तूर जारी था। आज भी जारी है।
काले अंग्रेज बनाम चिकित्सा
भारत में लोगो की दिनचर्या योग, अखाड़ों आदि से शुरू होती थी। हम आयुर्वेद पर आधारित संयमित जीवन जीते थे पर आज योग आयुर्वेद के नाम पर धंधा तो शुरू हो गया पर जीवनयापन आज भी शुरू नहीं पाया।दूसरी तरफ इन्ही विदेश में पढ़े और विदेश की भोगवादी नीति के प्रभाव में इन्ही नीतिज्ञो ने एक बाजारवाद के अनुसार भोगवाद के नाम पर ऐसा विदेशी संस्कार हममे भर दिया जिससे हमारी नियमित दिनचर्या, हमारा खानपान सबकुछ प्रदूषित हो गया। यह कुचक्र बाकायदा रचा गया जिससे हम ज्यादा से ज्यादा बीमारियों से ग्रसित रहें। इन विदेशी दवाई बनाने बाली कम्पनियो की हजारों करोड़ की लूट बदस्तूर जारी रही। ज्यादातर भारत के प्राइवेट अस्पताल उन्ही नीतिज्ञो की नीति के कारण काले अंग्रेज चिकित्सा माफियाओं, मिशनरियों के है जो जरा जरा सी बीमारियो के लाखो रुपये लूट लेती है। मरे हुये व्यक्ति को भी जिन्दा बताकर इलाज करती रहती है।
सरकारी अस्पतालों की की दुर्दशा के लिये भी वही नीतियाँ जिम्मेदार है जिसकी वजह से सरकारी अस्पताल को भारत में रामभरोसे ही कहा जाता है। जहाँ आजादी के 70 वर्ष बाद भी किसी गंभीर बीमारी के इलाज की कल्पना करना भी बेमानी है। लाखो गरीब और उनके बच्चे बिना इलाज के प्रतिवर्ष मर जाते हैं। पर यह व्यवस्था है कि इसकी लूट कर विदेशी कम्पनियो के दलाल डॉक्टर, माफिया और नेता करोड़पति, अरबपति और खरबपति होते जाते हैं। प्रश्न यह है कि भारत की कोई भी सत्ता नेता इसको बदल क्यों नहीं पा रहा है जब विदेशी कंपनियों के उपकरणों और दवाइयों से लैस एक प्राइवेट अस्पताल अच्छी सुविधाओं के नाम पर लूट सकता है तो क्या हमारे नीतिज्ञ अच्छे सुविधाओं वाले अस्पताल की नीतियाँ नहीं बना सकते। जहाँ गरीब को सस्ता और बहुत अच्छा इलाज मिल सके। शायद इसलिये नहीं क्योंकि वो नीतिज्ञ बैठाये ही इसीलिये गये हैं कि गरीब का हक काले अंग्रेजो और विदेशी कम्पनियो और सत्ताओं को लुटवा सके।
काले अंग्रेज बनाम शिक्षा
हमारे भारत की आत्मा मूलत: आध्यात्मिक आत्मा है हम,संस्कार, मोक्ष और सर्वेभवन्तु सुखिन:, कर्म योग, ज्ञान योग, की बात करने बाले लोगो को आजादी के बाद भी गुरुकुल आधारित संस्कारित शिक्षा व्यवस्था न देकर मैकाले की कॉन्वेंट स्कूलो के माध्यम से भोगवादी शिक्षा व्यवस्था थोप दी गई तो फिर जीवन मूल्यों में उत्थान कहाँ होगा क्योंकि यदि चरित्र और ऊँचे आदर्श की जगह भोगवादी संस्कृति होगी तो युवा ज्यादा से ज्यादा विदेशी कम्पनियो के उत्पादों का उपभोग करेगा। दूसरी तरफ डॉक्टर, इंजीनयर, नौकरशाह, नेता या बाबा बनकर भी भोगवादी संस्कृति अपना कर देश को लूटेगा। लुटवायेगा भी। दूसरी तरफ इन कांवेंट स्कूल के मालिक या तो विदेशी ईसाई मिशनरी या फिर बड़े-बड़े शिक्षा माफिया के समूह होते है जो वाकायदा एक षड्यंत्र के तहत भोगवादी मैकाले मॉडल को भारत में तेजी से फैलाकर मात्र काले अंग्रेज की एक बड़ी फौज तैयार कर रहे है। जो कॉन्वेंट स्कूलो की मोटी फीस नहीं दे सकते उन गाँव के गरीब किसान मजदूर लिये सरकारी स्कूल है जहाँ पढाई और मिडडे मील के नाम पर नीतिज्ञो द्वारा बनाई गई नीति के नाम पर मात्र सरकारी पैसे की जबरदस्त लूट की जा रही है। ज्यादातर स्तरहीन शिक्षको की भर्ती कर मोटी तनख्वाह देने के बाद भी शिक्षा व्यवस्था की प्रमाणिकता और स्तर लगभग शून्य है। कोई भी अमीर व्यक्ति या नेता अपने बच्चों को वहाँ भेजना ही हीन समझता है। और तो और चरित्र में सर्वथा ऊँचा चिंतन रखने बाले देश में युवाओं और बिना शादी शुदा लोगो के चरित्र को धता बताते हुये न सिर्फ शिक्षा का बाजारीकरण किया गया बल्कि इसके माध्यम से वासना के भोगवाद में डुबा कर विदेशी कम्पनियो के कंडोम का भारी भरकम व्यापार तक शुरू हो गया।
विदेशी नीतिज्ञ बनाम अर्थव्यवस्था
आज भारत प्राकृतिक संसाधनों से भरा पूरा होने के बाद भी विदेशी कर्ज में डुबा हुआ है। कारण वही नीतिज्ञ है जो इस देश को एक ऐसी अर्थव्यवस्था के मकडज़ाल में डालकर सिर्फ विदेशी कम्पनियो और सत्ताओं के हाथ में लुटवा रहे हैं। विदेशी नीतियों से हमे बकायदा षड्यंत्र कर लुटवाया जा रहा है। हम कृषि प्रधान देश होने के बाद भी टेक्नोलॉजी विकसित नहीं कर पाये। विदेशो से भारी पैसा देकर कृषि टेक्नोलॉजी लेने को मजबूर किये जाते है। हम आतंकवाद और पडोसी देश का डर दिखा विदेशी कम्पनियो के 10 रूपए लागत के हथियार हजार गुना ज्यादा कीमत में खरीदने को मजबूर इन्ही नीतियों की वजह से ही है। आज भारत में एफडी आई का भी आना कोई साधारण घटना नहीं है यह उन्ही नीतियों का परिणाम है जो सिर्फ ग्लोबलाइजेशन के कुचक्र में भारत को फांस कर लूटने का षड्यंत्र रचना है।
इसका प्रमाण मात्र यह है कि जो नेता और पार्टियाँ चुनाव से पहले भारत में एफडी आई को लाना राष्ट्रद्रोह बताते थे आज उसी को भारत में एफ डी आई लाकर ऐसे दिखा रहे है जैसे पता नहीं कौन सा क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है। इसका मतलब साफ है कि मोदी हो या योगी सबने नीति -नीतिज्ञो की बनाई विदेशी षड्यंत्रकारी व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए हैं। अत: सरकार कोई भी आये यदि सरकार में नीतियाँ बनाने बाले भारतीयता का उच्च चिंतन रखते हैं तो शायद इस देश की दिशा और दशा कुछ और होगी। पूर्व में भारतीयता का चिंतन रखने वाले नितिज्ञो ने ही भारत को विश्वगुरु का दर्जा दिलवाया था।
अशित पाठक (राष्ट्रवादी चिंतक)