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चुनावी राजनीति कौन आगे?

 

इस साल के अंत में तीन राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो गई है। इसके साथ ही देश के बौद्धिक और मीडिया वर्ग के एक हिस्से में शिगूफेबाजी भी शुरू हो गई है। शिगूफा यह कि तीन राज्यों के साथ ही लोकसभा का चुनाव भी केंद्र सरकार कराने की तैयारी में है।

कांग्रेस के एक सचिव नाम न छापने की शर्त पर इन पंक्तियों के लेखक से बाजी तक लगाने को तैयार थे कि दिसंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के साथ ही लोकसभा का भी चुनाव होने जा रहा है। इतना ही नहीं, उनका दावा है कि जिन राज्यों में साल 2019 में विधानसभा चुनाव होने हैं, मसलन महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, अरूणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और हरियाणा की विधानसभा के भी चुनाव पहले साथ ही कराए जा सकेंगे। इसके लिए उन्होंने उदाहरण भी दिया कि कांग्रेस पार्टी में जारी फेरबदल का मकसद भी पार्टी को चुनाव के मद्देनजर तैयार करना है। उनका तर्क है कि चूंकि मोदी सरकार की लोकप्रियता घटती जा रही है, फिर राज्यों में बीजेपी की हालत खराब है, इसलिए केंद्र सरकार एक साथ चुनाव कराने की तैयारी में है। हालांकि जब उनके सामने यह प्रश्न उछाला गया कि निजी तौर पर मोदी की निजी साख पर सवाल नहीं है, भारतीय मतदाताओं के लिए अब भी सबसे पसंदीदा ब्रांड मोदी ही हैं तो उनका जवाब था कि इसीलिए तो केंद्र सरकार एक साथ चुनाव कराने की तैयारी में है। ताकि सरकार की साख बच जाए और बीजेपी के पास ज्यादा से ज्यादा सरकारें आ जाएं। कांग्रेस के सचिव का दावा कि कांग्रेस मोदी को इस बार जीतने नहीं देगी।

कांग्रेस की इस बात को बल मिला मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत के उस बयान से, जिसमें उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की विधानसभाओं के साथ ही लोकसभा का चुनाव कराने को पूरी तरह तैयार है। दर्शनशास्त्र का एक सिद्धांत है, यत्रे-यत्रे अग्नि, तत्रे-तत्रे धूम्र यानी जहां आग होती है, वहीं धुआं होता है। इस आधार पर देखें तो कांग्रेस का दावा सही है कि कहीं न कहीं केंद्र सरकार ऐसा विचार कर रही है, तभी सतह पर एक साथ चुनाव कराने का विचार सामने आ रहा है। हालांकि हम मीडिया के जिस दबाव के दौर में रह रहे हैं, उसमें अटकलबाजियों को ज्यादा जोर मिला है। इसकी वजह से कह सकते हैं कि एक देश, एक चुनाव का वैचारिक आधार करने में जुटी भारतीय जनता पार्टी और उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार इसी साल के अंत में आम चुनाव भी कराना चाहती है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के सामने साल 2004 का अनुभव भी है, जब वक्त से पहले चुनाव कराने से उसकी वापसी नहीं हुई और उस दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय और गैर विवादास्पद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री बन गए।

बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह कांग्रेस कार्यसमिति से दिग्विजय सिंह, सीपी जोशी, मोहन प्रकाश, जनार्दन द्विवेदी, बी के हरिप्रकाश जैसे वरिष्ठ नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाकर दीपेंद्र हुड्डा समेत नौजवान नेताओं पर भरोसा जताया है, उस सचिव के मुताबिक यह कांग्रेस की तैयारी का हिस्सा है। हालांकि राहुल गांधी ने अपने साथ अशोक गहलोत और मोतीलाल वोरा के साथ ही अहमद पटेल को भी रखा है। अशोक गहलोत को जहां महासचिव बनाया है, वहीं मोतीलाल वोरा से कोषाध्यक्ष का प्रभार लेकर उन्हें मुख्यालय के प्रशासन की कमान सौंप दी है। सबसे ज्यादा आश्चर्य हो रहा है कि राहुल ने अपनी मां के करीबी और राजनीतिक सचिव रहे अहमद पटेल को अपनी टीम में न सिर्फ जगह दी है, बल्कि उन्हें पार्टी का खजाना भी सौंप दिया है।

सिर्फ कांग्रेस ही क्यों, मोदी के विराट राजनीतिक कद से बौखलाया समूचा विपक्ष भी चुनावी तैयारियों में जुट गया है। जनता दल (यू) से बाहर होकर लोकतांत्रिक जनता दल बना चुके शरद यादव की पहल पर तेलंगाना राष्ट्र समिति और तृणमूल कांग्रेस के अलावा बाकी विपक्षी दलों ने मिलकर 16 अगस्त को संविधान बचाओ, लोकतंत्र बचाओ रैली भी की, लेकिन उनकी किस्मत खराब थी कि उसी दिन अटल बिहारी वाजपेयी की खराब हालत को लेकर जारी आशंकाओं और बाद में उनके निधन ने इस रैली की तरफ से मीडिया का ध्यान जाने ही नहीं दिया। इस आयोजन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ ही वामपंथी दलों के नेता भी शामिल हुए थे। हालांकि द्रविड़ मुनेत्र कषगम की नुमाइंदगी इसमें नहीं थी।

बहरहाल मोदी को घेरने के लिए विपक्षी गोलबंदी शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती ने गठबंधन का ऐलान कर दिया है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का गठबंधन होना तकरीबन तय है। जाने-माने चुनाव विश्लेषक संजय कुमार का मानना है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मिलन बिना भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोक पाना आसान नहीं होगा, वहीं बिहार में जनता दल (यू) के राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़ देने के बाद सिर्फ कांग्रेस के साथ ही उसका गठबंधन हो सकता है। उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन होने के बावजूद कांग्रेस का साथ लेने को लेकर खींचतान जारी है। बताया जा रहा है कि गठबंधन में शामिल होने को तैयार बैठी कांग्रेस को सिर्फ अमेठी और रायबरेली सीटें देने की तैयारी है। इससे कांग्रेस पसोपेश में है।

कांग्रेस के साथ कर्नाटक में पहले ही जनता दल सेक्युलर से समझौता हो ही चुका है। लेकिन तमिलनाडु में पेच फंसा हुआ है। वहां साफ नहीं है कि वहां के दोनों महत्वपूर्ण और ताकतवर दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी डीएमके और अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी अन्ना द्रमुक किसके साथ जाएंगी। लेकिन इतना तय है कि दोनों का एक साथ जाना संभव नहीं है। दोनों दलों में जैसी अदावत अतीत में रही है, उससे साफ है कि दोनों पार्टियां एक गठबंधन में नहीं रहेंगी। इस बीच रजनीकांत के भी राजनीति में आने की चर्चा है। कमल हासन पहले से ही अपनी पार्टी बना चुके हैं। तमिल सिनेमा के एक बड़े हीरो विजयकांतन की डीएमडीके पार्टी पहले से ही मैदान में है। इसके अलावा एमडीएमके समेत राज्य में कई छोटी पार्टियां भी हैं। पिछले आम चुनाव में डीएमडीके के साथ भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन किया था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को खास सफलता नहीं मिली। कन्याकुमारी से उसे जीत मिली, जबकि कोयंबटूर सीट पर वह दूसरे नंबर पर रही। दूसरे नंबर पर रहे सीपी राधाकृष्णन को सरकार ने कयर बोर्ड का चेयरमैन बना रखा है। बहरहाल यहां अब तक डीएमके के साथ कांग्रेस का गठबंधन रहा है। लेकिन इसके प्रमुख करूणानिधि का सात अगस्त को निधन हो गया। करीब डेढ़ साल पहले पांच दिसंबर 2016 को करूणानिधि की घोर प्रतिद्वंद्वी और राज्य की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता भी इस दुनिया से कूच कर गईं। दोनों में चाहे जितनी भी खींचतान और अदावत रही हो, लेकिन दोनों राज्य के कद्दावर नेता थे। पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद राज्य की 39 की 38 सीटों पर अन्ना द्रमुक ने जीत हासिल की थी।

बहरहाल पहले जयललिता और अब करूणानिधि के निधन के बाद राज्य की राजनीति में बड़ा शून्य पैदा हुआ है। दोनों ही नेताओं की विरासत को लेकर जंग छिड़ी हुई है। अन्ना द्रमुक में जहां जयललिता की सहेली शशिकला और उनके बेटे दिनकरण पार्टी पर दावा ठोक रहे हैं, वहीं मुख्यमंत्री ईके पलानिसामी और पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम के धड़ों में समझौता भले ही हो गया है, लेकिन दोनों के बीच खींचतान जारी है। वहीं करूणानिधि ने अपने छोटे बेटे स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी भले ही बना दिया, लेकिन उनके बड़े बेटे एम के अज्जागिरी विरासत पर दावा ठोक रहे हैं। ऐसे माहौल में भारतीय जनता पार्टी अपनी संभावनाएं देख रही हैं। पार्टी के राज्य में पूर्व अध्यक्ष रहे सीपी राधाकृष्णन कहते हैं कि हमारी कोशिशें अब रंग लाएंगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में तमिलनाडु में उनकी पार्टी बड़ी जीत हासिल करेगी। हालांकि यह देखना होगा कि राज्य के  दोनों बड़े दलों में उत्तराधिकार की लड़ाई किस बिंदु पर पहुंचती है और वे किस धड़े के साथ जाते हैं।

वामपंथी दल फिलहाल कांग्रेस के साथ हैं। भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते वर्चस्व के चलते त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के पारंपरिक विरोधी रहने के बावजूद उनकी मजबूरी है कि कांग्रेस के साथ ही जाएं। लेकिन स्थानीय स्तर पर तीनों ही राज्यों में उन्हें कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता करना मुश्किल में डाल सकता है। केरल में अगर वे कांग्रेस से समझौता करते हैं तो उनके सामने अपनी सत्ता और उससे जुड़े कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने में दिक्कत हो सकती है। वहीं ममता बनर्जी के साथ जाकर बेशक वे भारतीय जनता पार्टी का पश्चिम बंगाल में विरोध करेंगे, लेकिन इसकी कीमत उन्हें अपने आधार वोटबैंक को खोने के तौर पर चुकानी पड़ सकती है। इसलिए उनके सामने कांग्रेस का साथ दोधारी तलवार है। पहले वे बाकी राज्यों में कांग्रेस का साथ देते रहे हैं, लेकिन अपने मूल गढ़ों में वे कांग्रेस से मुकाबला करते रहे हैं। लेकिन त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में उनका आधार खिसक गया है, जबकि केरल में कांग्रेस ही उनके बरक्स मुख्य विपक्षी दल है।

कुछ महीने पहले सभी विपक्षी दलों ने मिलकर कांग्रेस की अगुवाई में नरेंद्र मोदी के खिलाफ गठबंधन बनाने की शुरूआत की थी। दिलचस्प यह है कि इसमें हाल के दिनों तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथी रहे एन चंद्रबाबू नायडू भी शामिल थे। लेकिन उनके धुर विरोधी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने इस गठबंधन में शामिल होने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि ओडिशा में बीजेपी तेजी से उभर रही है। फिर शरद पवार ने भी राहुल की अगुवाई में खुलकर कुछ कहने से परहेज किया। इसका असर यह हुआ कि गठबंधन अब तक हवाओं में ही तैर रहा है।

इस बीच राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल शिवसेना आए दिन भारतीय जनता पार्टी को आंखें दिखाती रही है। लेकिन उसकी मजबूरी है कि उसका भारतीय जनता पार्टी के अलावा किसी और दल के साथ अस्तित्व नहीं रह सकता। वैसे भी शरद पवार ताक में बैठे हैं कि कब यह गठबंधन टूटे और वे लपक कर भाजपा का साथ पकड़ लें। इसलिए शिवसेना लाख चिढ़े, उसकी मजबूरी है कि वह भारतीय जनता पार्टी के ही साथ रहे। बिहार में नीतीश कुमार के गठबंधन में आ जाने के बाद राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा पसोपेश में हैं। उनकी नीतीश से अदावत रही है। इसलिए कभी वे लालू यादव की ओर जाते दिखते हैं तो कभी मोदी का गुणगान करते हैं। चुनाव आते-आते उन तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का भरोसा शायद ही बरकरार रहे। जम्मू-कश्मीर में हाल तक पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ सत्ता में रही भारतीय जनता पार्टी ने अपने कोर वोटरों की उपेक्षा और नाराजगी के साथ ही आतंकियों के प्रति हमदर्दी को देखते हुए महबूबा मुफ्ती की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद से राज्य में भी नए सिरे से गठबंधन बनने  की संभावनाएं बढ़ गई हैं।

भारतीय जनता पार्टी का कोर सवर्ण वोट बैंक एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने से चिढ़ा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी ने राम विलास पासवान और दूसरे दलित नेताओं के दबाव और मायावती के संभावित दबदबे को रोकने के लिए यह कदम भले ही उठा दिया, लेकिन अब उसके भी कुछ नेता दबी जुबान से मानते हैं कि इससे सवर्ण वोट बैंक उसके हाथ से छिटक सकता है। उत्तर प्रदेश के बलिया से भारतीय जनता पार्टी के विधायक सुरेंद्र सिंह ने तो बयान ही दे दिया है कि एससी एसटी कानून में बदलाव किया जाएगा तो सवर्ण भारतीय जनता पार्टी को क्यों वोट देंगे?

चाहे कुछ भी हो, लेकिन एक बात तय है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन से आगामी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव प्रभावित जरूर होंगे। नाराज सवर्ण वोटबैंक का गुस्सा थोड़ा कम जरूर होगा। जिसका असर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में दिख सकता है। भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह उनकी अस्थियों के राज्यों की राजधानी में विसर्जन का कार्यक्रम रखा है, वह एक तरह से कार्यकर्ताओं को उत्साह में भरने और अटल जी के प्रति श्रद्धानत लोगों को आकर्षित करने की कोशिश है।

अगले आम चुनाव पर करूणानिधि का निधन भी असर डालेगा। तमिलनाडु के लोग ज्यादा जज्बाती होते हैं। अगर उनका करूणानिधि पर भरोसा रहा और उनके प्रति जज्बात जिंदा रहे तो इस बार डीएमके के लिए चुनाव आसान होंगे। इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं के हित में आ रहा तीन तलाक विरोधी कानून भी चुनावों पर बड़ा असर डालेगा। मुस्लिम महिलाएं इससे राहत महसूस कर रही हैं। हालांकि मॉब लींचिंग यानी भीड़ द्वारा फैसले करने की घटनाओं को लेकर जिस तरह विपक्ष ने मोदी सरकार पर हमला जारी रखा है और अल्पसंख्यक वोटरों को इस मुद्दे पर रिझा रहा है, उसका असर अल्पसंख्यक वोटरों के रूझान पर जरूर पड़ेगा।

किसानों के हित में फसलों के समर्थन मूल्य को केंद्र सरकार ने बढ़ाकर डेढ़ गुना कर दिया है। यह पहली बार हुआ है कि किसानों को उनकी फसल की कीमतें डेढ़ गुना बढ़ाई गई हैं। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पहले से ही लागू है। लेकिन हाल ही में आए सर्वे ने सोचनीय तस्वीर भी पेश की है। इसके मुताबिक 47 प्रतिशत किसानों को इस योजना के बारे में पता ही नहीं है। जाहिर है कि यह हालत न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना बढ़ोत्तरी की जानकारी को लेकर होगी। चुनाव पर इसका असर पड़े बिना नहीं रहेगा।

आर्थिक मोर्चे पर नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विजय माल्या की फरारी ने सरकार की पेशानी पर बल ला दिया है। बेरोजगारी को लेकर भी विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। चूंकि देश की 65 फीसद आबादी युवा है, इसलिए इन मुद्दों का असर पड़े बिना नहीं रहेगा। बीजेपी थोड़ी बढ़त में इसलिए नजर में आ रही है, क्योंकि उसके पास नरेंद्र मोदी जैसा नेता है, जिसकी साख है। जनता में इस नाम ने अभी भरोसा नहीं खोया है। उसकी तुलना में राहुल गांधी को खुद विपक्ष ही एक मत से नेता मानने को तैयार नहीं है। ममता बनर्जी खुद प्रधानमंत्री बनने की कोशिश में हैं तो शरद पवार को लगता है कि उनके लिए यह चुनाव आखिरी मौका है। रही बात केजरीवाल की तो वे लगातार अपनी साख खो रहे हैं। उनके नेता मसलना कुमार विश्वास, आशुतोष और आशीष खेतान एक-एक कर साथ छोड़ते जा रहे हैं। जाहिर है कि इन सबके असर से चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।

उमेश चतुर्वेदी

 

 

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