बुलंदशहर में भीड़ की हिंसा ने देशभर को स्तब्ध करके रख दिया हैI देश की राजधानी दिल्ली में भी कुछ ही समय के दौरान जानलेवा भीड़ ने दो लोगों को अलग-अलग घटनाओं में मार-मार का मौत के घाट उतार दिया। अभागे मृतकों पर छोटी-मोटी चोरी करने के आरोप थे। मारने वाले वहशी हो गए थे और उन्हें मृतकों की चीत्कार और आंसू भी रोक नहीं सके।किसी भी शख्स पर बेहिसाब लाठियों,घूंसों,लातों और हथियारों से वार करने वाले क्यों भूल जाते हैं कि अगर उन पर इस तरह के हमले हों तो उन पर क्या बीतेगी? पर, इधर कुछ दिन पहले ही दिल्ली पुलिस ने चार तंजानियाई और दो नाइजीरियाई नागरिकों को भीड़ के हाथों लगभग मारे जाने से बचाया भी था । दिल्ली में रहने वाले इन अफ्रीकी नागरिकों पर यह आरोप लगा जा रहा था कि उन्होंने एक बच्चे का अपहरण कर लिया है। दरअसल द्वारिका पुलिस स्टेशन में फोन आया कि कुछ अफ्रीकी नागरिकों की एक बच्चे के अपहरण करने के आरोप में पिटाई की जा रही है। पुलिस ने तुरंत घटनास्थल पर पहुंचकर उन पिटते हुए अफ्रीकी नागरिकों को बचाया। दरअसल दिल्ली में रह रहे अफ्रीकी मूल के लोगों को लेकर ऐसी अफवाहें बार-बार फैलाई जाती रही हैं। इन्हें फैलाया जाता है व्हाट्सअप के माध्यम से। बेशक पुलिस को घटनास्थल पर पहुंचने में जरा भी देर हुई होती तो उपर्युक्त अफ्रीकी नागरिकों की जान चली जाती। आप अपने या देश से बाहर के नागरिकों को मारने वाले होते कौन हो?यह सवाल तो पूछा ही जाएगा। आखिर वे कौन लोग हैं,जो किसी आरोपी को अपने स्तर पर दंड देने लगते हैं? इन्हें क्यों पुलिस को इत्तिला देने की भी आवश्यकता महसूस नहीं होती? अब तो हरेक के पास मोबाइल फोन है I फिर भी पुलिस को क्यों नहीं फोन करके घटना की जानकारी दी जाती ? क्या भारत में जंगल का राज चलेगा? इस देश ने अजमल कसाब जैसे मुंबई हमले के सबसे बड़े गुनाहगार को भी अपने बचाव का भरपूर अवसर दिया था?वह आतंकी लंबे समय तक जेल में रहकर हमारी गाढ़ी कमाई के पैसों की बिरयानी खाता रहा था? लंबी और थकाने वाली न्यायिक प्रक्रियाके बाद सुप्रीम कोर्ट और अंत में राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका को अंततः खारिज किया था। जब कसाब जैसे दुर्दांत आतंकी को अपने बचाव का अवसर मिल सकता है, तो छोटे-मोटी चोरी करने के अपराधी को कोई सरेआम जान से मारने वाला कौन होता है? उसे दंड देने की पूरी प्रक्रिया है। भीड़ का राक्षस हो जाना अस्वीकार्य है। इस तरह के तत्वों पर कठोर चाबुक चलनी ही चाहिए।बुलंदशहर की भीड़ द्वारा पुलिस इंस्पेक्टर की बेरहमी से पिटाई करके मारा जाना हिंसक भीड़ के बढ़ते प्रकोप को दर्शा रहा है I यह ठीक है कि गौकशी के अपराधियों को भी सजा मिलनी चाहिए और निर्दोष युवक पर गोली चलाने वाले पुलिसकर्मी को भी बख्शा नहीं जाना चाहिए I लेकिन, इसका अर्थ तो यह नहीं है न कि भीड़ कानून अपने हाथ में ले ले और पुलिस इंस्पेक्टर को ही घेरकर मर डाले I किसी को भी कानून अपने हाथ में लेना अपराध है I
दुर्भाग्यवश होने यह लगा है कि जब भीड़ अपने स्तर पर ‘न्याय’ कर रही होती है,तब दस मारते हैं और पचास तमाशबीन बने रहते हैं। ये अपने मोबाइल पर वीडियों बना रहे होते हैं,जबकि इन्हें पुलिस को सूचित करना चाहिए। ये भी किसी भी प्रकार से कम गुनाहगार नहीं हैं।
महाभारत में अभिमन्यु को पूरी भीड़नेघेरकरमाराथा। मारने वाले कुछ थे और तमाशा देखने वाले हज़ारों। जो तमाशा देख रहे थे, उन्हें सज़ा मिली। द्रौपदी का चीरहरण भरी सभा में हुआ, भीष्मपितामह तमाशा देखते रहे। उनको तीरों की सेज पर सोकर असह्य दर्द झेलना पड़ा। न उनके प्राण निकलते थे और न दर्द से मुक्ति मिलती थी । यह उनके कर्मों का फल ही था। इससे क्या हुआ कि वो माँ गंगा के पुत्र थे? उनको हिसाब इसी दुनिया में देना पड़ा। क्या जो लोग किसी को मरता देखते हैं, वे शेष जीवन शांति से बीता सकते हैं? क्या उन्हें अपराधबोध चैन से सोने देता होगा? कतई नहीं। दिनकर की पंक्ति याद आती है “जोतटस्थहैंसमयलिखेगाउनकाभीअपरा
यह भी कोई पुरानी बात नहीं है जब बिहार के मोतिहारी मेंभीड़ ने एक असिस्टेंट प्रोफेसर संजय कुमार को जिस बेरहमी से पीटा था, उसका वीडियो देखकर चक्कर आने लगते हैं। संजय कुमार की गलती मात्र यह थी कि वे वहाँ के कुलपति के तथाकथित भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ रहे हैं। यकीन करेंगे कि भीड़ ने उनको पीटने के बाद जिन्दा जलाने का भी प्रयास भी किया था।
यह माना जा सकता है कि भीड़ पहले अपने ही स्तर पर न्याय करने का प्रयास करती रही है। पर अब ये घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं। पहले देश के दूर-दराज के इलाकों में ही भीड़ का नंगा नाच देखने सुनने को मिलता था। अब तो वह राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच गया है। इस भीड़ पर कसकर काबू करने की तुरंत आवश्यकता है। यह तो सरासर जघन्य अपराध हैं। इन्हें किसी अपराधी की डंडों या बेल्टों से धुनाई करने में सुख मिलता है। इतना घोर अन्याय होने के बावजूद हमारे यहां कुछ लोग तर्क देने लगते हैं कि हमारी पंगु न्याय व्यवस्था के कारण ही लोग कानून अपने हाथों में लेने लगे हैं। ये कहते हैं कि कोर्ट से न्याय मिलना दूर की कौडी के समान है। इसलिए समाज का एक हिस्सा अपने स्तर पर ही अपराधी या आरोपी को मारने लगता है। यह एक तरह से भीड़ की हिंसा को सही बता देते हैं। यह सरासर गलत है। इसकी कठोर निंदा होनी चाहिए। इन्हें याद रखना होगा कि अगर इनके तर्कों के हिसाब से देश चलेगा तो फिर यहां पुलिस महकमें को बंद ही करदेना चाहिए। फिर तो कमजोर और समाज के अंतिम पाएदान पर खड़े इंसान के लिए कोई जगह शेष बचेगी ही नहीं जो मजबूत और पैसे वाला होगा उसी की चलेगी। क्या हम“जिसकी लाठी, उसी की भैंस”वाली कहावत को चरितार्थ क
भारत के लोकतंत्र से भीड़तंत्र की तरफ बढ़ने पर सुप्रीम कोर्ट भी गहरी चिंता जता चुका है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने विगत जुलाई महीने में कहा था भीड़ का किसी को मार डालना भीड़तंत्र की निशानी हैं। देश के किसी भी नागरिक को ये अधिकार नहीं है कि वह कानून अपने हाथ में ले ले। तब सुप्रीम कोर्ट ने भीड़तंत्र की घटनाओं में इजाफे पर चिंता का इजहार करते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिए थे कि वे इस तरह की घटनाओं को रोके। लेकिन, यह भी सही है कि न्याय त्वरित होना चाहिए। न्यायलय का सत्तर सालों से चल रहे मुकदमे को यह कहकर टाल देना कि“यह हमारी प्राथमिकता नहीं है, वास्तव में दुर्भाग्य पूर्ण है।
दरअसल एक धारणा समाज में बनती जा रही है कि पुलिस और कोर्ट के रास्ते न्याय मिलने में लंबा वक्त लगता है। इसलिए अपने स्तर पर ही आरोपी को सजा दे दी जाए। वैसे यह सोचनिंदनीय और नकारात्मक है। यह सोच देश के लिए गंभीर खतरा बन सकती है। अत: वे सब जो पुलिस और देशकी विधि व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाते हैं, उन्हें भी समझाने की जरूरत है। उन्हें समझना भी होगा कि वे जिस रास्ते पर चलने लगा है,वो उन्हें जेल में चक्की पिसवा सकता है।
उधर, देश के पुलिस महकमें को भी अपनी गिरेबान में झांकना होगा कि उसके प्रति देश के आम नागरिक के मन में सम्मान और भय का मिला-जुला भाव क्यों समाप्त होने लगा है? यदि उसी की छवि निष्पक्ष और ईमानदार नागरिक के साथ खड़े होने की होती तो आज भीड़ किसी को भी पीट-पीट कर मार नहीं रही होती।
आर.के.सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)