हम आज 21 वीं सदी में लोकतांत्रिक सरकारों और मानवाधिकार आयोग जैसे वैश्विक संगठनों के होते हुए भी असफल हैं तो समय आत्ममंथन करने का है। अपनी गलतियों से सीखने का है, उन्हें सुधारने का है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सम्पूर्ण विश्व में मानव समाज एक बहुत ही बुरे दौर से गुजर रहा था। यह वो समय था जब मानव सभ्यता और मानवता दोनों ही शर्मसार हो रही थीं। क्योंकि युद्ध समाप्त होने के बाद भी गरीब और असहायों पर अत्याचार, जुल्म, हिंसा और भेदभाव जारी थे। यही वो परिस्थितियाँ थीं जब संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक मानव के मनुष्य होने के उसके मूलभूत अधिकारों की जरूरत को समझा और यूनीवर्सल मानव अधिकारों की रूपरेखा को ड्राफ्ट किया जिसे 10 दिसम्बर 1948 को अपनाया गया। इसमें मानव समुदाय के लिए राष्ट्रीयता, लिंग,धर्म, भाषा और अन्य किसी आधार पर बिना भेदभाव किए उनके बुनियादी अधिकार सुनिश्चित किए गए। इस ड्राफ्ट को औपचारिक रूप से 4 दिसंबर 1950 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के पूर्ण अधिवेशन में लाया गया। तब इसे सभी देशों और संगठनों को अपने अपने तरीके से मनाने के लिए कहा गया। भारत में 28 सितंबर 1993 से मानवाधिकार कानून लागू किया गया और 12 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन हुआ।
हालांकि मानवाधिकारों के अन्तर्गत आने वाले अधिकांश अधिकार हमारे वो मौलिक अधिकार हैं जो हमारा संविधान हमें देता है, बल्कि हर देश का संविधान अपने नागरिकों को देता है। तो यह प्रश्न लाज़मी है कि फिर मानवधिकारों की आवश्यकता क्यों पढ़ी ? दरसअल संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार उस देश तक ही सीमित होते हैं क्योंकि संविधान केवल देश का होता है इसलिए वो केवल देश की सीमाओं के अंदर ही लागू होता है। जबकि मानव अधिकार संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दिए गए हैं इसलिए विश्व के हर हिस्से में लागू होते हैं।
भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन भले ही 1993 में किया गया लेकिन इसके बारे में इस देश के आम आदमी ने हाल के कुछ वर्षों में ही जाना जब उसने अखबारों और न्यूज़ चैनलों में आतंकवादियों और कश्मीर में सेना पर पत्थर बरसाने वालों के मानवाधिकारों के हनन के बारे में सुना।
यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश में मानव अधिकारों की बात उन मानवों के लिए उठाई जाती रही है जिनमें मानवता ही नहीं पाई जाती।
इससे भी अधिक खेदजनक यह है कि जिस मानव को ध्यान में रख कर इन अधिकारों की रूपरेखा तय की गई थी उस मानव की कहीं बात नहीं होती और जिन अधिकारों को दिलाने के लिए इस आयोग का गठन हुआ था उन अधिकारों का कोई नामोनिशां नहीं दिखाई देता।
जैसे मानवाधिकारों के अंतर्गत हर मानव को प्रदूषण मुक्त वातावरण में जीने का अधिकार है लेकिन अपने ही देश में हम देख रहे हैं कि देश की राजधानी समेत न जाने कितने ही शहरों में रहने वाले लोग इस कदर प्रदूषित वातावरण में रहने के लिए विवश हैं कि अब उनके स्वास्थ्य पर ही बन आई है।
इसी प्रकार मानवाधिकार आयोग यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को भोजन मिले, कहा जा सकता है कि इन अधिकारों की फेहरिस्त में मानव के भोजन के अधिकार को प्रमुखता से रखा गया है।लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में अब भी 20 करोड़ से ज्यादा लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। वैश्विक सूचकांक में 119 देशों में भारत 100 वें पायदान पर है। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में हर साल कुपोषण से हज़ारों बच्चों की जान चली जाती है। क्या इनके मानवधिकारों की कभी कोई बात होगी ?
पीने के लिए साफ पानी पर हर मानव का अधिकार है। लेकिन आप इसे क्या कहेंगे कि साफ पानी की बात तो छोड़ ही दीजिए, आज भी इस देश के कई हिस्सों में लोग पानी तक के मोहताज हैं ?
जब ताज़ी हवा, शुद्ध जल और पेट भरने को भोजन जैसी मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों की पूर्ति करने में हम आज 21 वीं सदी में लोकतांत्रिक सरकारों और मानवाधिकार आयोग जैसे वैश्विक संगठनों के होते हुए भी असफल हैं तो समय आत्ममंथन करने का है। अपनी गलतियों से सीखने का है, उन्हें सुधारने का है।
अब समय इस बात को समझने का है कि आखिर भूल कहाँ हैं ?
भूल दरअसल “अधिकार” के मूलभूत विचार में है। क्योंकि जब हम अधिकारों की बात करते हैं तो बात लेने की होती है और मानसिकता भी केवल प्राप्त करने की रहती है। लेकिन इसके विपरीत अगर हम कर्तव्यों की बात करेंगे तो विचार देने के आएंगे, मानसिकता अपनी योग्यता अनुसार अपना योगदान देने की आएगी।
इसलिए अगर हम सच में बदलाव लाना चाहते हैं तो बात अधिकारों की नहीं कर्तव्यों की करनी होगी। जब इस पृथ्वी का हर मनुष्य अपने अधिकारों से अधिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक होगा तो अपने आप ही एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा करेगा।
डॉ नीलम महेंद्र